मंगलवार, 1 मई 2012

भरत प्रसाद की दो कविताएं-


परिचय-
 
             01 अगस्त 1971 को उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जनपद में हरपुर नामक गांव में जन्में  भरत  प्रसाद ने समस्त शैक्षिक डिग्रियां प्रथम श्रेणी में पास की है। पेशे से अध्यापन। सहायक  प्रोफेसर हिन्दी विभाग पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग मेघालय में

भूरी-भूरी खाक धूल काव्य संग्रह में मुक्तिबोध की युग चेतना में एम0 फिल0 तथा  
समकालीन हिन्दी कविता में अभिव्यक्त समाज और संस्कृति में पी0 एच0 डी0।
 अब तक इनकी-  
और फिर एक दिन   कहानी संग्रह 
देसी पहाड़ परदेसी लोग   लेख संग्रह  
एक पेड़ की आत्म कथा काव्य संग्रह प्रकाशीत   एवं  
सृजन की इक्कीसवीं सदी लेख संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
 अनियतकालीन पत्रिका- साहित्य वार्ता का दो वर्षों तक संपादन एवं हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन के साथ ही परिकथा  पत्रिका के लिए ताना बाना  शीर्षक से नियमित स्तंभ लेखन। इनके लेख एवं कविताओं का पंजाबी एवं बांग्ला में अनुवाद।

पुरस्कार-1-सृजन सम्मान 2005 रायपुर  छत्तीसगढ़
                  2-अम्बिका  प्रसाद दिब्य रजत अलंकरण 2008  भोपाल म0 प्र0

                  वर्तमान युग की सबसे बड़ी विडम्बना है - विसंगति। विसंगतियों ने पूरे समाज की जीवन धारा को कुंद कर दिया है। विसंगतियां आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त हैं। क्षेत्र चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो या जीवन मूल्यों का हो। कुछ ऐसी भी विसंगतियां होती हैं जो समाज के ताने बाने को अधिक आकर्षक  और मजबूत करती हैं। किन्तु यही विसंगतियां जब विद्रूपताओं का रूप धारण कर लेती हैं,तब समाज और
राष्ट्र अनेकानेक अनैतिकता के अधीन हो जाते हैं। कवि विभिन्न विसंगतियों से रुबरू होते हुए इसके खिलाफ मोर्चा खोलकर कविता का नया वितान रचता है।


               बकौल नित्यानंद गायेन-
कवि अपनी कविताओं के माध्यम से एकटक सुनहरे अतीत में झांकता है फिर अचानक व्याकुल हो उठता है अतीत के सुनहरे दिनों को खोते देखकर । किन्तु कवि उम्मीद नहीं छोड़ता । वह वर्तमान समय के षड्यंत्रों को ललकारते हुए आगे बढता है । कवि कर्म केवल समाज को दर्पण दिखाना नहीं  दीया भी दिखाना है । और कवि भरत प्रसाद यही कर रहे हैं । वे आज के इस खतरनाक समय में जहां सच के पक्ष में खड़ा होना सबसे बड़ा खतरा है  इसके पक्ष में खड़े होकर दे रहे हैं बेबाक गवाही । सत्य के साथ खड़े ,सरल भाषा के इस कवि को पढ़ते हुए उनकी पक्षधरता को आसानी से महसूस किया जा सकता है । 01 मई को मजदूर दिवस के अवसर पर प्रस्तुत हैं भाई भरत  प्रसाद की दो कविताएं-
इनकी कविताओं  से हम आगे भी रुबरू कराते रहेंगे ।



 
 























पृथ्वी को खोने से पहले

लाचार,आवाक् सा, सांसें रोके
सुदूर अतीत को झांकता रहता हूं अपलक
एक से बढ़कर एक पृथ्वी के अनमोल दिन
अरे, खोते जा रहे हैं मुझसे
आंखें उठाकर  देखिए,
इतिहास करवट बदलता है- एक दिन
छाटे- छोटे दिन मिलकर ही
बड़ी- बड़ी सभ्यताओं को जन्म देते हैं
किसी दि नही घटित होती हैं अमर घटनाएं
भूलिए मत
बुद्ध में बुद्धत्व छः साल में नहीं
सिर्फ छः दिन के भीतर प्रकट हुआ था
वर्षों से बुझे हुए मस्तक में
किस दिन चमकता हुआ विस्फोट भर जाए
कुछ कह नहीं सकते
नाउम्मीदी के घुप्प अंधकार में भी
एक न एक दिन
उम्मीद की सुबह खिलती है
हजार बार पराजय में टूटे हुए कदम भी
एक दिन , जीत का स्वाद चखते हैं
घृणा की चौतरफा मार से
किसी का मरा हुआ सिर
अचानक किस दिन
बेइंतहा सम्मान पाकर जी उठे
कौन बता सकता है  ?
पिछला कोई भी दिन,नहीं है आज का दिन
वह कल भी नहीं अएगा,
आज का दिन, सिर्फ आज के दिन है-
अनगिनत शताब्दियों के लिए
15 अगस्त की जगह,रख दीजिए 14 अगस्त
अर्थ का अनर्थ हो जाएगा
नहीं हो सकता 5 दिसम्बर, 6 दिसम्बर की जगह
सिर्फ एक दिन का फासला
मनुष्य का चेहरा  बदल देता है
पलट देता है इतिहास को देखने का नजरिया
हमारे जीवन  में हजारों दिन आए
और हजारों दिन गये
मगर धिक्कार! कि हम जीने की तरह
एक दिन भी  नहीं जीए
पृथ्वी को खोने से पहले
जी भरकर जी लेना चाहता हूं
एक-एक दिन का महत्व
सुन लेना चाहता हूं
जड़- चेतन में अनंत काल से धड़कती
पृथ्वी का हृदय
पदलेना चाहता हूं
सृष्टि के सारे अलक्षित मर्म
पा लेना चाहता हूं
हर वृक्ष के प्रति माटी की ममता का रहस्य
इसके बगै़र जीना तो क्या
इसके बग़ैर मरना तो क्या ।

लमही

लमही , नहीं है लमही में
नहीं है बनारस में
नहीं है उत्तर प्रदेश में
लमही के लिए
भारत वर्ष छोटा पड़ गया है
वह पार कर चुका है प्रशांत महासागर
लांघ चुका है तिब्बत और पामीर का पठार
फिर हिमालय की बात ही क्या
जरा ग़ौर से देखो
वह नाम बदल बदल कर फैल गया है
अमेजन , नीलडेन्यूब नदियों के किनारे
बस चुका है रूस,चीन और अफ्रीका के अंचलों में
यहां तक,फ्रंास और इंगलैण्ड के गांवों में भी
लमही अर्थात् मानवता के लिए कलम की खेती
जमीनी मनुष्यता का उत्सव
जनसत्ता का अभय उद्घोष
लमही का मतलब-
शब्दों की कालजयी ताकत
माटी का पक्का रंग
जुबान का सीधा-सादा जादू
पूरब में निकला हुआ
मनुष्य की आजादी का सबेरा
भारत का हर गांव लमही है
और लमही में हिन्दुस्तान का एक-एक गांव
अनाथ बच्चों के आंसुओं में लमही है
बूढ़े काका की फटी बिवाइयों में लमही है
घूंघट की आंड में बरसते
घरवाली के नयनों में लमही है
जवानी में विधवा हो चुकी
बूढ़ी दादी की कसम में लमही है
लमही है तो कलम के सिपाहियों की
उम्मीद अभी बाकी है
बाकी है पशुओं को भी
हीरा मोती कहने का सपना
उम्मीद है कि
अंतिम मनुष्य की मुक्ति की लड़ाई
फिर कोई प्रेमचन्द लड़ेगा
वरना अब कौन कहेगा?
कि धरती की फसलें,पानी -वानी से नहीं
किसी के खून-पसीने  से  लहलहाती हैं।

सम्प्रति-        सहायक  प्रोफेसर हिन्दी विभाग 

                         पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय शिलांग 
                        मेघालय 793022
                        मोबा0-09863076138  09774125265
                        ई-मेल-deshdhar@gmail.com
                        ब्लाग-deshdhara.blogspot.com

13 टिप्‍पणियां:

  1. पहली कविता तो अदभुत है ...बधाई आपको ...

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  2. वाकई हर एक दिन हर एक तारीख का अपना वजूद होता है जिसकी जगह कोई और कभी नहीं ले सकता. दूसरी कविता में व्यक्त लमही आज लगभग ७७% भारतीय जीवन का प्रतिनिधित्व करता है. आम जन का यह लमही चित्रण अब तो वैश्विक प्रतीक बन गया है. बेहतर कविताओं के लिए कवि भरत जी एवं प्रस्तुतीकरण के लिए आरसी जी को बधाई

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  3. अच्छी कविताएं पढवाने के लिये कवि व संपादक को बहुत बहुत बधाई।

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  4. कविताएं अपने कथ्य और शिल्प में बेजोड़ हैं । सार्थक कविताओ के लिए कवि को बहुत बहुत हार्दिक बधाई।

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  5. .....अतीत को याद करते हुए वर्तमान की दुखती रगों पर हाथ रखती और वर्तमान को खोने से बचाने को चिंतातुर पहली कविता हर संवेदनशील आदमी की कविता है तो लमही , आम आदमी की पक्षधरता को रेखांकित करने वाली संवेदना के प्रति एक रचनात्मक एवं संवेदनात्मक श्रद्धांजलि है ...! बेहतरीन कविताओं के लिए लेखक और संपादक दोनों को बधाई !

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  7. सशक्त कवितायें हैं . सभी कवितायेँ सहज व गंभीर हैं .संवेदना के तंतुओं को झकझोरती हैं कवितायें .

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  8. Mahesh Punetha - bharat bhayi apani seedhi -saral bhasha main gahare arthon ka sandhan karane wale kavi hain . jaisa ki in kavitaon main bhi dekha ja sakata hai. wah apani bhasha se bharmate nahin hain. or hamesha manushyata ke pax main khade rahate hain.

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  9. kavitaen bahut adbhut hain. kavi ko badhai milni hi chahiye.

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  10. बहुत खूब लम्ही सही मायने में अब वहां पर नहीं है जहां पर होना था
    । लम्ही के दर्द को बखूबू उकेरा गया है

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