इस रक्त रंजित
सुब्ह का
मौसम बदलना |
या गगन में
सूर्य कल
फिर मत निकलना |
द्रौपदी
हर शाख पर
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर
धृतराष्ट्र की
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी
रुक गया
लोहू उबलना |
यह रुदन की
ऋतु नहीं ,
यह गुनगुनाने की ,
तुम्हें
आदत है
खुशी का घर जलाने की ,
शाम को
शाम -ए -अवध
अब मत निकलना |
जयकृष्ण राय तुषार
द्रौपदी
जवाब देंहटाएंहर शाख पर
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर
धृतराष्ट्र की
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी
रुक गया
लोहू उबलना
सधी हुई और मंजी हुई कविता है. बधाई.