बुधवार, 24 अगस्त 2016

सुशांत सुप्रिय की कहानी : बँटवारा




    मेरा शरीर सड़क पर पड़ा था . माथे पर चोट का निशान था . क़मीज़ पर ख़ून के छींटे थे . मेरे चारो ओर भीड़ जमा थी . भीड़ उत्तेजित थी . देखते-ही-देखते भीड़ दो हिस्सों में बँट गई . एक हिस्सा मुझे हिंदू बता रहा था . केसरिया झंडे लहरा रहा था . दूसरा हिस्सा मुझे मुसलमान बता रहा था . हरे झंडे लहरा रहा था .
एक हिस्सा गरजा -- इसे *टुओं ने मारा है . यह हिंदू है . इसे जलाया जाएगा . इस पर हमारा हक़ है

दूसरा हिस्सा चिल्लाया -- इसे काफ़िरों ने मारा है . यह हमारा मुसलमान भाई है . इसे दफ़नाया जाएगा . इस पर हमारा हक़ है .
फिर ' जय श्री राम ' और ' अल्लाहो अकबर ' के नारे लगने लगे . मैं पास ही खड़ा यह तमाशा देख रहा था . क्या मैं मर चुका था ? भीड़ की प्रतिक्रिया से तो यही लगता था . मैंने कहा -- भाइयो , मैं मर गया हूँ तो भी पहले मुझे अस्पताल तो ले चलो . कम-से-कम मेरा ' पोस्ट-मार्टम ' ही हो जाए . पता तो चले कि मैं कैसे मरा .

भीड़ बोली -- ना बाबा ना . हम तुम्हें अस्पताल नहीं ले जा सकते . यह 'पुलिस-केस' है . बेकार में कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटने पड़ेंगे . एक बार फिर ' जय श्री राम ' और ' अल्लाहो अकबर ' के नारे गूँजने लगे . भीड़ एक-दूसरे के ख़ून की प्यासी होती जा रही थी . डर के मारे मैं पास के एक पेड़ पर जा चढ़ा . इन जुनूनियों का क्या भरोसा . मरे हुए को कहीं दोबारा न मार दें .
  मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ . सड़क पर जो पड़ा था वह मेरा ही शरीर था . फिर मेरे शरीर को जलाया जाए या दफ़नाया जाए , इस बारे में इन्हें मुझ से तो सलाह-मशविरा करना चाहिए था . पर भीड़ थी कि मुझे सुनने को तैयार ही नहीं थी .
  मैंने अनुरोध के स्वर में फिर कहा -- भाइयो , मुझ जैसे अदना इंसान के लिए आप लोग साम्प्रदायिक सद्भाव क्यों तोड़ रहे हो ? कृपा करके भाईचारा बनाए रखो . मिल-बैठ कर तय कर लो कि मुझे जलाया जाना चाहिए या दफ़नाया जाना चाहिए . अगर बातचीत से मामला नहीं सुलझे तो मामला अदालत में ले जाओ . भीड़ बोली -- अदालत न्याय देने में बहुत देर लगाती है . पचास-पचास साल तक मुक़दमा चलता रहता है . निचली अदालत का फ़ैसला आने पर फिर हाइ-कोर्ट , सुप्रीम कोर्ट में अपील हो जाती है . तब तक तुम्हारे शरीर का क्या होगा ?
  मैंने कहा -- भाइयो , ख़ून-ख़राबे से बचने के लिए मैं अदालत का फ़ैसला आने तक ' ममी ' बने रहने के लिए भी तैयार हूँ . पर भीड़ के सिर पर तो ख़ून सवार था . कोई इतना समय रुकने के लिए तैयार नहीं था . इस पर मैंने कहा -- भाइयो , तो फिर आप लोग सिक्का उछाल कर फ़ैसला कर लो . टॉस में जो पक्ष जीत जाए वह अपने मुताबिक़ मेरे शरीर को जला या दफ़ना दे . भीड़ ने कहा -- हमने ' शोले ' देखी है . हम इस चाल में नहीं आएँगे . अजीब मुसीबत थी . नीचे सड़क पर मेरा शरीर पड़ा हुआ था . चारो ओर उन्मादियों की भीड़ जमा थी . पास ही के पेड़ पर मैं चढ़ा हुआ था. अपने शरीर को इस तरह देखने का मेरा पहला अवसर था . मुझे अपने शरीर पर दया आई . उससे भी ज़्यादा दया मुझे भीड़ पर आई . मेरी लाश पर क़ब्ज़े को ले कर ये लोग मरने-मारने पर उतारू थे . तभी एक पढ़ा-लिखा-सा दंगाई मेरे पेड़ की ओर इशारा करता हुआ अंग्रेज़ी में चिल्लाया -- गिटपिट-गिटपिट ... ब्लडी-फ़ूल ... गिटपिट-गिटपिट ... किल हिम ... !
 
बहुत से दंगाई लाश को छोड़ कर उस पेड़ के नीचे जमा हो गए जिस पर मैं चढ़ा बैठा था . डर के मारे मैं एक डाल और ऊपर चढ़ गया . नीचे से दंगाई चिल्लाए -- जल्दी से तू खुद ही बता तू कौन है , वर्ना हम तुझे फिर से मार डालेंगे . अजीब लोग थे . मरे हुए को फिर से मारना चाहते थे . मैंने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला . पर मुझे कुछ भी याद नहीं आया कि मैं हिंदू था या मुसलमान . जिन्हें अपने बारे में कुछ भी याद नहीं होता, वे किस धर्म के होते हैं? उनका क्या नाम होता है? राम रहीम सिंह डेविड?

भीड़ अब बेक़ाबू होती जा रही थी . दोनो ओर से त्रिशूल और तलवारें लहराई जा रही थीं . ' जय श्री राम ' और ' अल्लाहो अकबर ' के नारों से आकाश गूँज रहा था .
  कहीं दंगा-फ़साद न शुरू हो जाए , यह सोच कर मैंने एक बार फिर कोशिश की -- भाइयो , शांत रहो . अगर कोई हल नहीं निकलता तो मेरा आधा शरीर हिंदू ले लो . तुम उसे जला दो . बाक़ी का आधा शरीर मुसलमान ले लो . तुम उसे दफ़ना दो . मुझे न्यायप्रिय सम्राट् विक्रमादित्य का फ़ैसला याद आया . मैंने सोचा , अब कोई एक पक्ष पीछे हट जाएगा ताकि मेरी लाश की दुर्गति न हो. पर भीड़ गँड़ासे , तलवार और छुरे ले कर मेरे शरीर के दो टुकड़े करने के लिए वाकई आगे बढ़ी . मैं पेड़ की ऊँची डाल पर बैठा होते हुए भी थर-थर काँपने लगा . जो शरीर दो हिस्सों में काटा जाना था वह आख़िर था तो मेरा ही .
  ये कैसे लोग थे जो लाश का भी बँटवारा करने पर तुले हुए थे? मैंने उन्हें ध्यान से देखा . भीड़ में दोनो ओर वैसे ही चेहरे थे . जैसे चेहरे केसरिया झंडे पकड़े थे , वैसे ही चेहरे हरा झंडा पकड़े भी नज़र आए . ठीक वही वहशी आँखें , ठीक वही विकृत मुस्कान भीड़ में दोनो ओर मौजूद थीं . नरसंहारों मे ये ही लोग लिप्त थे .
  भीड़ गँडासों , तलवारों , और छुरों की धार परख रही थी . काश हमारे ' स्टैच्यू ' कहने पर सभी हत्यारे , सभी दंगाई बुत बन जाते . और फिर हम उन्हें गहरे समुद्र में डुबा आते.
  भीड़ ने हथियार उठा कर मेरी लाश पर चलाने की तैयारी कर ली थी . तभी उन में से कोई चिल्लाया -- अबे , इसकी पतलून उतार कर देख. अभी पता चल जाएगा कि स्साला हिंदू है या मुसलमान. अभी यह बेइज़्ज़ती भी बाक़ी थी. कई जोड़ी हाथ मेरी लाश पर से पतलून उतारने लगे. अब मुझ से रहा नहीं गया. मैं पेड़ पर से कूदा और 'बचाओ, बचाओ' चिल्लाया .
  पर मेरी वहाँ कौन सुनता . देखते-ही-देखते दंगाइयों ने मेरी लाश को नंगा कर डाला . शर्म से मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं . छि:छि: ! शिव-शिव ! लाहौलविलाकूवत ! एक मिला-जुला-सा शोर उठा . आँखें खोलते ही मैं सारा माजरा समझ गया. और मुझे याद आ गया कि मैं कौन था. कुछ दंगाई अश्लील मज़ाक पर उतर आए थे. कुछ दोनो हाथों से ताली बजा-बजा कर ' हाय-हाय ' करने लगे थे . अरे ये तो ' वो ' निकला -- दंगाई एक-दूसरे से कह रहे थे और हँस रहे थे .
  माहौल में तनाव एकाएक कम हो गया . मैंने राहत की साँस ली . धीरे-धीरे दंगाइयों की भीड़ छँटने लगी . केसरिया झंडे वाले एक ओर चल दिए . हरे झंडे वाले दूसरी ओर चल दिए . आज त्रिशूलों और तलवारों का दिन नहीं था . अब मैं अपनी नंगी लाश के पास अकेला रह गया था .
अगर इस तरह से दंगे-फ़साद रुक सकें तो काश , ऊपर वाला सबको ' वो ' बना दे -- मैंने सोचा .

  
सुशांत सुप्रिय   
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वैभव खंड ,इंदिरापुरम ,
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