रविवार, 9 जुलाई 2017

डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर' के दो गीत






 
























1- मम्मी से
मम्मी देखो बात मान लो,
 बचपन में ले जाओ मुझको।

पकड़-धकड़ के, रगड़-रगड़ के  
नल नीचे नहलाओ मुझको।  
तेल लगाओ मालिश कर दो,
 मुझे हँसाओ जी भर खुद को।
मम्मी देखो बात मान लो...।।

भाग-भाग कर पकड़ न आऊँ,  
छड़ी लिए दौड़ाओ मुझको।
छुटपन के फिर रंग दिखाऊँ,  
रूठूँ मैं बहलाओ मुझको।
 मम्मी देखो बात मान लो...।।

तरह-तरह की करूँ शरारत,
 दे दो घोड़ागाड़ी मुझको।  
बाल अदाएँ नटखट-नटखट,
फिर से मैं दिखलाऊँ तुमको।
मम्मी देखो बात मान लो...।।

2- नभ गंगा

एक छुअन तेरी मिल जाती,
यह धरती सारी हिल जाती।

गगनलोक में विचरण करता,  
मंगल पे निलय बना लेता।
भर देता माँग सितारों से,  
हर पत्रक कमल बना देता।
नभगंगा भी खिल-खिल जाती,  
सरिता सागर से मिल जाती।

कर नीलांबर को निजवश में,  
चाँदनी संग मैं इठलाता।
धर राहु-केतु को मुट्ठी में,
कटु-रोदन को मैं तड़पाता।
याद न तेरी पल-पल आती,  
तृष्णा उत्कट भी गल जाती।

सावन आता इस जीवन में,
होता नवप्रभात का फेरा।
सूरज भी डाल रहा होता,
 मेरे घर में अपना डेरा।
मोम इश्क़ की गल-गल जाती,  
केसर फुलवारी खिल जाती।

मिल न सकी वो छुअन सुनहरी,
इंतज़ार में मैं बैठा हूँ।
इन हाथों में ब्रह्मांड धरे,  
जीवन निर्जन कर बैठा हूँ।
तू आती मुझमें मिल जाती
संसृति मुस्काती खिल जाती।




                                                       
                                                       
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