रविवार, 23 सितंबर 2012

लघु कथाएं-


बंजर भूमि   
खेमकरण सोमन
लडका छब्बीस साल का था और लडकी चौबीस साल की। दोनों में जबरदस्त प्यार था व दोनों ही रिसर्च स्कॉलर थे।लडकी ने अपने घर वालों को बता दिया कि ऐसी-ऐसी बात है, ये दिन ये रात है। घर वाले भी बहुत खुश हुए। लडकी के पिता ने कहा- लडका दूसरी जाति का है, इससे हमें कोई समस्या नहीं है। हमें बेहद खुशी है कि हमारी पढी-लिखी बच्ची ने एक सही जीवनसाथी की खोज की है।
एक दिन लडके ने लडकी से कहा- अवन्तिका, मुझे उस दिन का इन्तजार है जब हमारी शादी होगी और तुम्हारे पिताजी मुझे अच्छा खासा दहेज दे पायेंगे। तब मैं अपने बहुत से सपने साकार कर पाऊंगा।लडके की बात सुनकर लडकी आहत हुई। उसने लडके को ध्यान से देखा। तो लडका उसे बंजर भूमि के समान नजर आया। हां! उस बंजर भूमि की तरह जो उपजाऊ होने का स्वाद नहीं जानती।लडकी ने उसी दिन एक निर्णय लिया।
 
पता - प्रथम कुंज, अम्बिका विहार, ग्राम डाक-भूरारानी, रुद्रपुर, जिला- ऊधमसिंह नगर -263153
            
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प्रेम नंदन
जून की तपती दोपहर। एक दूरसंचार कंपनी के विशालकाय विज्ञापन बोर्ड की छाया में, पसीने से लथपथ एक रिक्सा चालक आकर खड़ा हुआ। उसने सिर पर बॅंधें अगौंछे को खोला और उससे माथे का पसीना पोंछने लगा। पसीना पोंछने के बाद वह अॅगौंछे से हवा करता हुआ रिक्से की टेक लेकर खड़ा हो गया और जेब से बीड़ी निकालकर सुलगाने लगा।उसने बीड़ी के दो- तीन लम्बे कस खींचे तो खांसी गई। वह खो- खो करने लगा। खांसी के कारण उसकी ऑखों में ऑसू गये।वह ऑखें मलने लगा।
      तभी उसके मैले- कुचैले पैंट की जेब में रखे मोबाइल की घंटी बलने लगी। उसे अगौंछे से पसीना पोछते हुए जेब से मोबाइल निकाला और हैलो- हैलो करने लगा।हॉ भइया, अरे नहीं भइया। दो घंटे हो गये रिक्सा खींचते एक चक्कर लगा चुका हूं।पूरे शहर की एक भी सवारी नहीं मिली अभी तक।पूरा शहर दुबका पड़ा है, अपने-अपने घरों में। तेज धूप और कटीली लू ने कैद कर दिया है सभी को घरों के अंदर ।तुम्हारे क्या हाल हैं भइया, कुछ कमाया कि नहीं?
     रिक्से वाला शायद अपने किसी परिचित रिक्से वाल से मोबाइल पर बात कर रहा था।बीड़ी के एक-दो कस खींचने के बाद वह फिर मोबाइल पर बतियाने लगा । नहीं भइया अब कहीं जाउॅगा।सड़कें एकदम सुनसान पड़ीं हैं।आदमी क्या चिड़िया तक नहीं दिखाई पड़ रही हैं।दीवारों पर चिपके पोस्टरों और विज्ञापन बोर्डो में लड़के-लड़कियॉं प्रचार करते दिखाई दे रहे हैं बस।इतना कहकर उसने मोबाइल बंद करके जेब के हवाले किया और जिस विज्ञापन बोर्ड की छाया में खड़ा था ,उसे गौर से देखने लगा।
    तब तक उसकी बीड़ी बुझ चुकी थी। उसने दूसरी बीड़ी सुलगाई और कस खींचने लगा।
पता -अंतर्नाद उत्तरी शकुननगर फतेहपुर मो0-9336453835 bZesy&premnandan@yahoo.in



शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

कल्पना बसेड़ा व कृष्ण कुमार की कविताएं-



 उमंग की एक किरण
      कल्पना बसेड़ा 
    कक्षा -12

 प्रातः नभ में उमंग भर दे
 अंधकार को त्याग जीवन में उजियारा कर दे
  अपनी सुंदर जीवंत किरणों से
   संसार में उजियारा कर दे।
 अपनी किरणों को संसार में फैला कर
 संसार को तू पावन कर दे।



  





















बचपन की यादें
   कृष्ण कुमार 
  कक्षा -12

 क्यों ना फिर से ढूंढ लें उस बचपन को
 जिसमें हजारों सपने सजाए
 क्यों ना याद कर लें उन पलों को
 जो माँ के आँचल में बिताए।

 लौट आए काश वो बचपन
 जिसमें हम खुशियों से नहाए
 हर खुशी मिल जाए चाहे
 बचपन फिर लौट के ना आएगा।

 आलम कुछ ऐसा था उसका
 चिंता की परछाई ना थी
 सुनहरी यादे छोड़ गया वो
 हमसे नाता तोड़ गया वो

 वही शरारत वही नजाकत
 वही दिखी थी सच्चाई
 अब तो तरस गई हैं आँखें
 देखने को अच्छाई
 
 अब तो बस संघर्ष बचा है
 दुःख में ही सुख ढूँढ लो
 देखना चाहो अपना बचपन तो
 अपनी आँखें मूँद लो

                                 प्रस्तुति- अंकित चौहान संपादक उमंग
                                           कक्षा-12
                                           रा00का0 देवलथल पिथौरागढ़