शनिवार, 12 मई 2012

कथा लेखन श्रमसाध्य विधा है और कवि प्रायः श्रमभीरू होते हैं : ~


फतेहपुर के समूचे साहित्यिक परिदृश्य को रेखांकित करने के लिए युवा रचनाकार एवं अपने रचना एकर्म को अपने हिन्दी ब्लॉग "आखरबाड़ी" के माध्यम से दुनिया तक फैलाने में संलग्न श्री प्रेम नंदन जी ने साहित्य की विभिन्न विधाओं पर फतेहपुर जनपद के इतिहास को समेटे ग्रंथों ‘अनुवाक और उसकी अगली कड़ी अनुकाल’ के प्रधान सम्पादक डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी जी से एक लम्बी बातचीत की है। डा. ओऽमप्रकाश अवस्थी ने साहित्य और विशेषकर समालोचना के क्षेत्र में अपनी मौजूदगी का बखूबी अहसास कराया है। निःसंदेह इन्हें फतेहपुर जिले की आलोचना परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले शिखर पुरुष का दर्जा प्राप्त है। साहित्य के इस पुरोधा की कृतियों में रचना प्रक्रिया , नई कविता, आलोचना की फिसलन , अज्ञेय कवि व अज्ञेय गद्य प्रकाशित हुई है। साहित्य की अनेक विधाओं पर  एक लंबी  गंभीर बातचीत

प्रेम नंदन-  डॉ0 साहब, कहानी, नई कहानी और अकहानी में मूलभूत क्या अन्तर है?

 डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- कहानी, नई कहान और अकहानी साहित्य जगत के इन पारिभाषिक कुनबों में वैसा ही अन्तर है जैसा पारम्परिक समाज, परम्पराओं से विघटित होता हुआ समाज और आज का समाज। मूलतः कहानी कथा शबद की आधुनिकता का स्थानापन्न रूप है, जिसका विकास लगभग सन् 1900 के आस-पास माना जाता है। इस समय प्रेम सागर, नासिकेतोपाख्यान, इंशा अल्ला की रानी केतकी की कहानी आदि रचनाओं ने अपने को प्रारम्भिक कहानी के रूप में स्थापित किया। यह प्रक्रिया बहुत दिनों तक धार्मिक आख्यानों, उर्दू की किस्सा गोई और संस्कृत के नाटकों की कथा-वस्तु को सम्मिलित रूप से कहानी के रूप में प्रस्तुत की जाती रही। यह कहानी मूल रूप में इतिवृत्तात्मक रही।

 लेकिन सन् 1930 के आस-पास से कहानी इतिवृत्तात्मकता के साथ-साथ देश-काल के समस्या मूलक विषयों को भी जोड़ने लगी जो उस समय देश की आवश्यकता थी, यथा बाल-विवाह, देशद्रोह, अशिक्षा जैसी बुराईयों का खण्डन और नारी-शिक्षा, देश प्रेम, सम्बन्धों का निर्वाह, संयुक्त परिवार की अवधारणा का मण्डन करती रही। मोटे तौर पर विषय वस्तु और शैली को लेकर परिवर्तन होते रहे लेकिन संयुक्त परिवार की अवधारणा ने 1947 तक कहानी को कहानी ही बने रहने दिया। ज्यों-ज्यों संयुक्त परिवार की अवधारणा खण्डित होने लगी और गाँव तथा शहर एक दूसरे से सम्पर्क में आने शुरु हुए, इन नई परिस्थितियों को उद्घाटित करने के लिए नई कहानी का जन्म हुआ। इसके बाद शहरीकरण के जितने दूषित, कुरूप, असामाजिक मूल्य थे वे सब अकहानी के विषय वस्तु बन गये। जिसके कारण अकहानी पर अश्लीलता जैसे दाग भी देखे गये।

प्रेम नंदन- कहानियों से गाँव गायब होते जा रहे हैं और पंचसितारा संस्कृति के अनुरूप लिखी कहानियाँ आम आदमी से दूर होती जा रही हैं, ऐसे में किस्सार्गो और प्रेमचंद जैसे कहानीकारों की परम्परा की क्या प्रासंगिकता रह गई है?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- कहानी लेखन में पंचसितारा संस्कृति के हाबी होने में शहरों में उपलब्ध शिक्षा, व्यवसाय और प्रकाशन तीनों का बड़ा हाथ हैं। शहरी जीवन में ये तीनों लेखकों को आसानी से प्राप्त हो जाने के कारण ही साहित्य में शहरीकरण हावी होता गया और शहरीकरण बढ़ते-बढ़ते पंचसितारा संस्कृति तक पहुँच गया। ग्रामीण क्षेत्र से गये साहित्यकार भी अपने को ग्रामीण संस्कृति का जानकार मानने में आत्महीनता का अनुभव करने लगे। ग्राम्य संस्कृति को पहचानना बाबूपन के लिए बहुत भारी धब्बा हो गया। नगरों एवं महानगरों की सितारा संस्कृति में न केवल ग्रामीण जीवन बल्कि मनुष्य की ही पहचान खत्म हो गयीं इसीलिए कथा साहित्य में ग्राम्यांचल को लेकर पहचान बनाने वाले लेखक नहीं रहे और जो कुछ लिखा भी जा रहा है उसमें बनावटीपन की गंध है।

 

चूँकि हिन्दी का औसत पाठक और लेखक इस अति उच्च वर्ग का नहीं है जो अपने को उस पंचसितारा संस्कृति से जोड़ सके, इसलिए आज की पंचसितारा कहानियों एवं पाठक एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। रही बात प्रेमचंद के ग्रामीण जीवन की प्रासंगिकता की तो वह दो कारणों से बनी रहेगी। पहला तो यह कि कथा साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति का आंकलन करने के लिए ग्राम्यांचल की कहानियाँ ही दिग्दर्शक बनेंगी और दूसरा यह कि जिन आधारों और मूल्यों को उन्होंने अपने कथा साहित्य का आधार बनाया है वे आधार आगे किस प्रकार विकसित हुए, इसकी पहचान करायेंगे। जैसे झिंगुरी शाह से दस रुपये उधार लेकर उनकी अदायगी करने वाला होरी और आज के बैंकों में अपनी जमीन गिरवी रखकर ऋण लेने वाला किसान।

प्रेम नंदन- जनपद में कथा साहित्य के इतिहास पर संक्षेप में प्रकाश डालते हुए वर्तमान परिदृश्य को स्पष्ट करने की कृपा करें।

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- फतेहपुर जनपद में कथा साहित्य का सूत्रपात धार्मिक ग्रन्थों की टीकायें लिखने और ग्रामीण आंचलों में, परिवारों में, धार्मिक, उपदेशात्मक लोक कथायें कहने से हुआ। अधिकांशतः पौराणिक कथाओं को लोक भाषा में बदलने का काम यहाँ के साहित्यकारों ने किया। साहित्यिक मानदण्ड से जुड़े हुए कथाकार के रूप में सबसे पहला नाम लाला भगवानदीन ‘दीन’ का आता है। लाला जी ने लक्ष्मी पत्रिका के सम्पादन के माध्यम से छोटी-छोटी उपदेशात्मक एवं समाजोपयोगी तथा देश प्रेम से जुड़ी कहानियाँ लिखीं। उन्होंने एक छोटा सा उपन्यास भी लिखा। उनकी पत्नी बुन्देला बाला भी कहानियाँ लिखती थीं। कथा साहित्य का यह दौर आगे बढ़ा और राज बहादुर लमगोड़ा ने 1857 के समय के कथानकों को लेकर कुछ कहानियाँ लिखीं। उन्होंने रामकथा को छोटे-छोटे टुकड़ों में कहानीबद्ध करके लिखा।

इस युग में रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, इकबाल बहादुर वर्मा, महावीरप्रसाद राय, गणेश शंकर विद्यार्थी, रामप्रसाद विद्यार्थी (रावी), जीवन शुक्ल, जीवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव (जीवन दद्दा), प्रयाग शुक्ल आदि साहित्यकार कहानी लिखते रहे। वर्तमान में श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी, महेन्द्रनाथ बाजपेयी, जयप्रकाश त्रिवेदी, डॉ0 बालकृष्ण पाण्डेय, शैलेष गुप्त, बृजेन्द्र अग्निहोत्री, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव जैसे अनेक साहित्यकार कथा-साहित्य में अपना योगदान कर रहे हैं।

प्रेम नंदन- क्या कारण है कि जनपद में कविता के बरक्स गद्य लेखन नगण्य प्राय है? इक्के-दुक्के कहानीकार व उपन्यासकार दिखते हैं ऐसी स्थिति में इस विद्या का आप क्या भविष्य देखते हैं?

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- जनपद में स्थापित कवियों, कवि सम्मेलनीय कवियों और उत्साह से प्रेरित होकर स्फुट कवितायें लिखने वालों की लम्बी सूची है लेकिन उसके अनुपात में कहानीकार दाल में नमक की तरह हैं। चूँकि कथा लेखन श्रमसाध्य विधा है और कवि प्रायः श्रमभीरू होते हैं, शायद इसलिए भी जनपद में कथा लेखन नगण्य प्राय है। दूसरा, यहाँ न तो कथा साहित्य के मंच बने और नहीं कथा साहित्य की गोष्ठियाँ सम्पादित हो सकीं, जिससे इस विधा का कुछ विकास हो सकता। यहाँ का जितना भी कथा साहित्य है वह शुद्ध रूप से पाठ्ष साहित्य रहा। इसके लेखन में जितनी तन्यमता और कई सम्बन्धों का संयोजन करने की आवश्यकता होती है वह साहित्यकारों से रम साध्य न हो सका। कथा साहित्य में जो जीवन की अन्तरंगता, सम्बन्धों के निर्वाह के साथ चलती है उतना क्रम करने वाले साहित्यकार कम हैं। एक और बहुत बड़ा कारण यह है कि कथा साहित्य के सामूहिक सम्मेलनों या कहानी लेखकों और कहानी स्रोताओं के संगठन नहीं बन सके। मुख्य रूप से कहानी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन तक सीमित रह गई और उसका सामान्य जन जीवन से सम्बन्ध न बनने के कारण कथा साहित्य का जनपद में समुचित विकास नहीं हो सका है।

प्रेम नंदन- डॉ0 साहब, जनपद के कथाकारों एवं उपन्यासकारों के योगदान पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

डॉ0 ओऽमप्रकाश अवस्थी- इधर कुछ वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं में छोटी कहानियाँ, लघुकथायें लगातार प्रकाशित हो रही हैं तो कुछ लम्बी कहानियाँ भी लिखी जा रही हैं। जनपद के कथाकार यदि इसी गति से लिखते और प्रकाशित होते रहे तो इस विधा के समृद्ध होने की काफी सम्भावनायें हैं। इसको आगे बढ़ाने के लिए कहानी का वाचन, श्रवण और उस पर कुछ श्रोताओं की प्रतिक्रियायें बहुत कारगर सिद्ध हो सकती हैं।

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