शनिवार, 29 नवंबर 2014

पहाड़ में खुलती एक खिड़की: अकुलाए हुए निकलते शब्द



                                                    आरसी चौहान
                                  मोबा0-08858229760   

         आज हिन्दी साहित्य उस चौराहे पर खड़ा है जहां से सड़कें चकाचौंध कर देने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों , सिनेमा, बाजार और सच्चे-झूठे दावा करने वाले विज्ञापनों की ओर जाता है और इन सड़कों पर आम आदमी आतंकवाद ,उग्रवाद ,भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे धिनौने पहियों के निचे कुचला जाता है। ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत रचनाकारों की आवाज की अवहेलना बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती। इनकी आवाज को सार्थक दिशा देने के लिए राष्ट्रीय स्तर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने एक बड़ा मंच प्रदान किया है।

      वागर्थ, नया ज्ञानोदय, हंस ,कथादेश, युद्धरत आम आदमी ,समसामयिक सृजन ,परिकथा, युवा संवाद ,संवदिया, कृतिओर ,जनपथ और इसी कड़ी को एक कदम आगे बढा़ते हुए “अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक
प्रकाशित करने वाली हिमालयी पत्रिका -हिमतरू का जुलाई-2014 अंक शीतल पवन के झोंके की तरह आया है। यह शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्ताावेज तो है ही ,खासकर दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत युवा रचनाकारों को चिह्नित कर उन्हें उत्प्रेरित करने का एक महायज्ञ भी है। जिसकी खुशबू और आंच देर-सबेर हिन्दी साहित्य के गलियारों में बड़े धमक के साथ सुंघी व महसूस की जाएगी। ऐसा मुझे विश्वास  है।

         हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा । कुल्लू जैसी विषम परिस्थियां ,जहां का धरातल करैले की तरह उबड़-खाबड़ तो है ही अगर कुछ रचनाओं के स्वाद में कसैलापन लगे तो मुंह बिचकाने की जरूरत नहीं है। हिमतरू के इस“अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक”में  देश-विदेश के लगभग अड़सठ रचनाकारों की उनकी विभिन्न रचनाओं को प्रकाशित किया है। किशन श्रीमान के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका के इस अंक का अतिथि सम्पादन युवा कवि गणेश गनी ने किया है। इस अंक में रचनाकारों की वरिष्ठता क्रम को ध्यान में न रखकर उनकी रचनाओं को किसी भी पेज में स्थान दिया गया है। इसी अंक में मेरी एक कविता-

जूता

लिखा जाएगा जब भी
जूता का इतिहास
सम्भवतः,उसमें शामिल होगा कीचड़

और कीचड़ में सना पांव
बता पाना मुश्किल होगा
हो सकता किसी ने
रखा हो कीचड़ में पांव
और कीचड़ सूख कर
बन गया हो जूता सा
फिर देखा हो किसी ने कि
बनाया जा सकता है
पांव ढकने का एक पात्र
फिर बन पड़ा हो जूता
और तबसे उसकी मांग
सामाजिक हलकों से लेकर
राजनैतिक सूबे तक में
बनी हुई है लगातार
घर के चौखट से लेकर
युद्ध के मैदान तक
सुनी जा सकती है
उसकी चौकस आवाज
फिर तो उसके ऊपर गढे गये मुहावरे
लिखी गयी ढेर सारी कहानियां
और इब्नबतूता पहन के जूता
भी कम चर्चा में नहीं रही कविता
कितने देशों की यात्राओं में
शामिल रहा है ये
शुभ काम से लेकर
अशुभ कार्यो तक में
विगुल बजाता उठ खड़ा होता रहा है यह
और अब ये कि
वर्षों से पैरों तले दबी पीड़ा
दर्ज कराते ये
जनता के तने हुए हाथों में
तानाशाहों के थोबड़ों पर
अपनी भाषा,बोली और लिपि में
भन्नाते हुए......।

हिमतरू (मासिक) जुलाई-2014, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी
प्रधान सम्पादक-इन्दू पटियाल
इस अकं का मूल्य-101 रूपये
संपर्क सूत्र- 201, कचोट भवन,नजदीक मुख्यडाक घर,ढालपुर,कुल्लू हि0प्र0
मोबा0-09736500069, 09418063231

1 टिप्पणी:

  1. आर सी चौहान भाई, यूँ ही आस-पास को गहन दृष्टि से देखकर कविताएँ कहें...अच्छा लगा...

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