शुक्रवार, 1 मई 2015

माया एन्जेलो की कविताएँ





माया एन्जेलो
, मूल नाम - मार्गरेट एनी जॉन्सन- 1928.2014 अमेरिकी-अफ्रीकी कवयित्री को अश्वेत स्त्री-पुरूषों की आवाज के रूप में जाना गया। उनके काम को अमेरिकी लायब्रेरियों में प्रतिबंधित करने के भी प्रयास किए गए किंतु आज उनके लिखे को विश्व के कई विद्यालयों व कालेजों में पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। उनकी पुस्तकों के मुख्य विषय नस्लभेद, पहचान, परिवार व यात्राएं हैं।


मजदूर दिवस पर माया एन्जेलो की कविताएँ प्रकाशित करते हुए हमें जो खुशी हो रही है वह समर्पित है उन तमाम मजदूरों को जिन्होंने किसी काम को करते हुए किसी तरह का भेद भाव नहीें बरता बल्कि बड़े मनोयोग से सांस्कृतिक भूदृश्य को नये शिल्प में गढ़ा। यहां प्रस्तुत कविताओं के केंद्र में मजदूर नहीं हैं बल्कि ये कविताएं उनके लिए मील का पत्थर साबित होंगी जो  कबके चट्टानों में ढल गये हैं जिसका उन्हें भान तक नहीं। इन्हें पृथ्वी के धरातल पर कहीं भी देखा जा सकता है गुनगुनाते हुए दर्द को पी कर मुस्कराते हुए। तो आज प्रस्तुत है माया एन्जेलो की कविताएँ जिसका मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद किया है पद्मनाभ गौतम ने।
 

 


















लाखों  मनुष्यों की यात्रा
लम्बी रही है रातए गहरे रहे है घाव
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

सुदूर समुद्री किनारे पर
मृत नीले आकाश के नीचे
केश पकड़ कर खींचा गया था
मुझको तुमसे दूर
बंधे थे तुम्हारे हाथए और बंधा था मुँह
पुकारा तक नहीं जा सका तुमसे मेरा नाम
थे असहाय तुम और तुम सी ही मैं
दुर्भाग्य किंतु कि इतिहास में सदा
तुमने पहना शर्मिन्दगी का ताज
मैं कहती हूँ
लम्बी रही है रात घाव रहे है गहरे
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

किंतु आजए आवाजें पुरानी आत्माओं की
बोलतीं हैं मजबूत शब्दों में
वर्षों की सीमा को लांघ करए शताब्दियों के पार
पार कर महासागरों और समुद्रों को
कि आओ एक दूसरे के करीब
और बचाओ अपने लोगों को
कर दिया गया है भुगतान
तुम्हारे वास्ते इस परदेश में
अतीत कराता है याद
है अदा कीमत आजादी की
गुलामी की जंजीरों के वेश में              
लम्बी रही है रातए घाव रहे है गहरे
कालिमामय था कूप और खड़ी दीवारें

वह नर्क जो भोगा हमने
अब तक रहे जो भोग
उसने चढ़ा दी है सान हमारी संवेदनाएँ
और कर दी हैं इच्छाएँ मजबूत
लम्बी रही है रात
इस सुबह देखती हूँ तुम्हारे दर्द के पार
भीतर तुम्हारी आत्मा तक
जानती हूँ कि एक साथ
बन सकते हैं हम संपूर्ण
देखती हूँ पार तुम्हारे सलीके और स्वाँग के
देखती हूँ तुम्हारी बड़ी धूसर आँखों में
परिवार के लिए प्रेम

मैं कहती हूँए तालियाँ बजाओ और
इकट्ठा होओ इस सभा-मैदान में
मैं कहती हूँए तालियाँ बजाओ और
एक.दूसरे के साथ करो प्रेम का व्यवहार
मैं कहती हूँए तालियाँ  बजाओ और ले जाओ हमें
महत्वहीनता की नीच गलियों सेए
तालियाँ बजाओ आओ आकर पास

आओ हम साथ चलें और अपने हृदय उड़ेल दें
आओ हम साथ चलें और करें अपनी आत्माओं का पुनरावलोकन
आओ हम साथ चलें और धवल कर दें अपनी आत्माओं को
तालियाँ बजाओ और सँवारना छोड़ो अपने पंख
मत दो अपने इतिहास को धोखा
तालियाँ बजाओ और बुलाओं आत्माओं को कगारों से
तालियाँ बजाओं और बुलाओ आनंद को वार्तालाप में
शयनकक्ष में प्रेम को विनम्रता को अपनी रसोई में
और संरक्षण अपने नौनिहालों में

हमारे पुरखे बताते हैं हमें बावजूद दर्दीले इतिहास के
हम चलने वाले लोग हैं जो उठेंगे दोबारा

औरए अब भी उठ रहे हैं हम।

 मैं जानती हूं क्यों गाती है पिंजरे की चिड़िया

उन्मुक्त पक्षी उछलता है हवाओं की पीठ पर
हवा के प्रवाह में उतराता है
जब तक झुका नही देता उसके पंख
सूर्य की नारंगी किरणों में होता विलीन
हवा का झोंका
और दिखाता दम आसमान पर अपने आधिपत्य का
किंतु पक्षी पिंजरे का जो
छोटे से पिंजरे में चलता कदमों नपे-तुले
देख सकता बमुश्किल पार पिंजरे की सलाखों के
पंख उसके कसे हैं और बंधे जिसके पाँव
इस लिए खोलता है गाने को अपना कंठ।
पक्षी पिंजरे का गाता है
अज्ञात के भय से कंपित गान
साधा गया जिसे किंतु चुप रहने को
दूर पहाड़ों तक सुनी जाती है उसकी धुन
क्योंकि पिंजरे का पंछी गाता है मुक्ति की चाह में

याद करता है उन्मुक्त पंछी
उसाँस भरते पेड़ों से आती
शांत सुकोमल पूर्वी हवाओं को
और सूर्योदय से चमकते आंगन में
इंतजार करते मोटे कीटों को
पर पिंजरे का पंछी होता है खड़ा
सपनों की कब्र पर
छाया चीखती है उसकीए दुःस्वप्न की चीख
पंख उसके कसे हैं और बंधे जिसके पाँव
इस लिए खोलता है गाने को अपना कंठ

पक्षी पिंजरे का गाता है
अज्ञात के भय से कंपित गान
साधा गया जिसे किंतु चुप रहने को
दूर पहाड़ों तक सुनी जाती है उसकी धुन
क्योंकि पिंजरे का पंछी
गाता है मुक्ति की चाह में


गुजरता वक्त

तुम्हारी त्वचा का रंग
सूर्योदय की तरह
और मेरी जैसे कस्तूरी
एक उकेरता है कैनवस पर
नियत अंत का आरम्भ
उकेरता दूसरा
एक नियत आरंभ का अंत


 देवदूत के द्वारा स्पर्शित

हम आदी नहींजो साहस के 

और सुखों से निर्वासित
जीते हैं कुंडली मार कर
एकांत के खोल में
जब तक प्रेम
छोड़ कर मंदिर अपना
उच्च और पवित्र
दृष्टिगोचर हो न जाए हमको



आता है प्रेम
करने को हमें जीवन में स्वतंत्र
और इसके साथ
आते हैं श्रृंखलाबद्ध
सुख
पुराने आनंदों की स्मृतियां
पुराने दर्दों का इतिहास

फिर भी
यदि हम हों निर्भय
तोड़ देता है प्रेम
हमारी आत्माओं से
भय की जंजीरें
हमें मिलती है
अपनी दुर्बलता की चेतावनी
प्रेम की रोशनी की चमक में
साहस कर हो जाते हैं हम बहादुर
औचक देखते हैं हम
कि प्रेम के बदले में हमें
देना होता है सर्वस्व
फिर भी यह प्रेम ही है
जो करता है हमें मुक्त।


                         पद्मनाभ गौतम
 स्थाई पता  - 
           द्वारा श्री प्रभात मिश्रा
            हाईस्कूल के पास, बैकुण्ठपुर, जिला-कोरिया
            छत्तीसगढ़, पिन-497335
            मो
0 - 09436200201
                     07836-232099

5 टिप्‍पणियां:

  1. कमाल की प्रस्तुति
    मजदूरs दिवस को साकार कर दिया
    बधाई

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  2. शुक्रिया आरसी भाई, मजदूर दिवस पर प्रकाशित होने से इन कविताओं की प्रासंगिता और भी बढ़ गई।

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  3. behtarin prastuti k lie badhai Aarsi bhai and Padmnabh Mishra jee....

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  4. जीवन से संवाद करती कविताएं,और सोचने
    को विवश करती है-----सार्थक और सुंदर रचना

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