वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे से आज कई मुद्दों
पर मेरी बात हुई। बड़े भाई व कवि मित्र महेश पुनेठा द्वारा संचालित ‘दीवार पत्रिका’ की बात हो या
गढ़वाल से मेरे एवं कुछ साथियो द्वारा ‘शिक्षा वृक्ष आंदोलन’ पर किये गये
कार्यों पर की गयी बात हो। आज ‘शैक्षिक दखल’ पत्रिका पर उनका एक
खुला पत्र। आगे और भी उनके पत्र हमें पढ़ने को मिलेंगे।
एक नई पहल करते समर्पित शिक्षक
- हरीश चन्द्र पाण्डे
हम बने बनाये सामान व व्यक्तित्वों को देखने
के आदी हो गए हैं। चमचमाते भव्य पैकेटिंग से बाजार के बाजार अटे पड़े हैं और ऐसे ही
रंग-रोगन किए करिश्माई व्यक्तित्व भी। ऐसा
राजनीति, शिक्षा, साहित्य, खेल हर जगह हैं। हमें बने बनाये गांधी,
राधाकृष्णन, टैगोर, ध्यानचंद, प्रेमचंद, पंत, निराला चाहिए। यानि
शीर्श से कम कुछ नहीं देखना हमें। बनता हुआ नहीं देखना है, बना हुआ देखना है। हमें एक तैयार नाटक से मतलब है, उसके मंच व मंच पीछे की तैयारियों से कोई मतलब नहीं,उसकी रिहर्सल से कोई मतलब नहीं। हमें उस सौवें चोट से मतलब है, जिस पर एक पेड़ गिरा है, उन निन्यानवे चोटों से कोई मतलब नहीं जिन्होंने पेड़ गिराने की पूरी आधार भूमि तैयार
की। यह पिसे-पिसाए आटे के रंगीन बैगों का समय है, गेहूं के दानों व उनमें खुदे किसानों के चेहरों का नहीं और न ही मिल में काम करने
वाले मजदूरों का। यानि यह तृणमूलता की उपेक्षा का समय है। ऐसे चकाचौंध भरे समय में
कहीं किसी कोने में किसी भावी सपने के बीज रोपे जा रहे हों तो, धारा के विपरीत तैरने का सा अहसास होता है।
मैं यहां अपने रूप,साज-सज्जा में साधारण
सी दिखती एक पत्रिका ‘शैक्षिक दखल’ के प्रकाशन
की बात कर रहा हूं। युवा साहित्यकार महेश पुनेठा और दिनेश कर्नाटक के संपादन में उत्तराखंड
से निकल रही इस पत्रिका के पीछे समर्पित शिक्षकों की एक टोली है। मुखपृष्ठ पर लिखी
इबारत ‘शैक्षिक सरोकारों को समर्पित शिक्षकों तथा
नागरिकों का साझा मंच’ इसके सरोकारों का संकेत
दे देती है। क्या हैं ये शैक्षिक सरोकार? इसका उत्तर
यह पत्रिका है। इसकी विषय सामग्री है और इसकी संपादकीय चिंताएं हैं। क्या शिक्षा की
परंपरागत नीति व शिक्षकों का परंपरागत व्यवहार नईं सामाजिक संरचना के अनुरूप अपने को
बदल पाया है? अगर पूर्व पद्धति में कुछ ऐसा है जो ठीक नहीं
तो उसका विकल्प क्या है? मैं सोचता हूं,
यह पत्रिका इस पर विचार ही नहीं करती उसे अध्यापकों के माध्यम
से व्यवहृत भी कराती है। एक तरह से यह अध्यापकों की भी पाठशाला है, जिसमें छात्रों में भयमुक्त वातावरण पैदा कर उन्हें पठन-पाठन
यात्रा में सहयात्री बनने का एहसास भरना है। यह पत्रिका गमलों में सैद्धांतिक विचारों
की पौध उगाने की बजाय जमीन पर पौधारोपण कर रही है। इधर हमारे समाज में नैतिकता का सर्वमुखी
क्षरण हुआ है उसमें शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र अग्रणी हैं। ‘गुरु’ और ‘डॉक्टर’ जिन्हें मानव के लिए
ईश्वरत्व के सबसे निकट माना गया, सर्वाधिक प्रभावित
है। ऐसे में किसी एक कारण को उत्तरदायी न मानते हुए यह पत्रिका एक नई पहल करती है,
जिसमें अध्यापक, छात्र व आम
नागरिक की खुली सहभागिता है। पत्रिका ने फेसबुक पर शैक्षणिक बातचीत चलाकर इसका बहुत
ही सकारात्मक पक्ष उजागर किया है, जबकि फेसबुक इस बीच
नकारात्मक व कीचड़ उछालू प्रवृत्तियों का भडांस गवाक्ष भी बन गया है। ये कुछ लोग हैं
छात्रों-शिक्षकों के बीच के संबंधों को पुनर्व्याख्यायित करते हुए एक नये नैतिक मनुष्य
की कल्पना में आज को देख रहे हैं। ये ‘दीवार पत्रिका’
के माध्यम से बच्चों में आत्मविश्वास और कल्पनाशीलता जगा रहे
हैं। अगर पढ़ाई में फिसड्डी समझा जाने वाला एक छात्र अपने घर की गरीबी के अनुभव को कागज
पर सबसे प्रामाणिक निबंध के रूप में उकेर देता है तो यह बदली हुई विचार पद्धति ही है
जो उसके छुपे हुए कौशल को पहचान कर उसके मानसिक रुद्ध द्वार खोलती है। उसमें आत्मविष्वास
का बीज बोती है। अध्यापकों व छात्रों की पारस्परिकता की जिस दुनिया को यह पत्रिका उठाती
है, वह पूरे भारतवर्श पर लागू होती है अतः इसके कथ्य की जरूरत केवल
हिंदी क्षेत्रों को नहीं है। मैं इस पत्रिका में एक बडे़ भूगोल की नैतिक आहटें सुन
रहा हूं। इसने शिक्षा पद्धति की नींव को छूने की कोशिश की है और बडे़ ही विनत भाव से।
शिक्षक-छात्र इसमें किसी आदेश के तहत नहीं वरन खुले अंतःकरण से शामिल हो रहे हैं। कुछ
विचारशील लोग अपनी लो प्रोफाइल मुद्रा में एक सपने को आकार दे रहे हैं, इसके लिए मैं संपादक मंडल व शैक्षिक दखल टीम को हार्दिक शुभकामनाएं
देता हूं। .
-हरीश चन्द्र पाण्डे
अ/114,गोविंदपुर,इलाहाबाद
अर्थपूर्ण और सार्थक खुला पत्र। बधाई ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पत्र..
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