सोमवार, 22 दिसंबर 2014

और कितने टुकड़े :विक्रम सिंह






                                               विक्रम सिंह  1 जनवरी 1981

 
      जमशेदपुर झारखण्ड में जन्में , समकालीन रचनाकारों में तेजी से अपनी पहचान बनाते जा रहे पेशे से मैकेनिक इंजीनियर  युवा लेखक विक्रम सिंह की कहानियां राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा - समरलोक , सम्बोधन ,किस्सा , अलाव , देबन्धु , प्रभात खबर , जनपथ , सर्वनाम , वर्तमान साहित्य , परिकथा , आधरशिला , साहित्य परिक्रमा , जाहन्वी , परिंदे इत्यादि पत्र-पत्रिकाओ में प्रकाशि हो चुकी हैं।यहां पहली बार किसी ब्लाग में इनकी  लम्बी  कहानी- और कितने टुकड़े प्रकाशित।

पुस्तक - वारिस ;कहानी संग्रह-2013
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत




कहानी
और कितने टुकड़े


एक ओंकार सतनाम करता पुरख अकाल मूरत निरभउ निरवर अजूनी सैभ............गुरूनानक देव जी
प्लेटफार्म पर गाड़ी खड़ी हुई तो मात्र चार पॉच लोग ही गाड़ी से उतरे। सरदार कुलवंत सिंह ने गाड़ी से उतर दायें बायें देखा प्लेटफार्म में कुछ ही लोग इधर उधर घूम रहे थे। उसने देखा प्लेट फार्म पर भरे मिट्टी के बोरो के पीछे जवान स्टैनगन लिए तैनात थे। कुछ जवान कंधो में स्टैनगन लिए गोता लगा रहे थे। लोगों से ज्यादा उसे जवान ही नजर आ रहे थे। उसे लगा जैसे वह प्लेटफार्म में ना हो कर बार्डर में आ गया हो। सरदार कुलवंत सिंह ने गहरी सांस ली और अपनी पेंट को कमर से उपर पेट तक खींच लिया। फिर अपने दोनों हाथों से पगड़ी ठीक की और सीक से दाढ़ी को संवारा और बैग उठा चल दिया। जैसे ही प्लेटफार्म के दरवाजे के पास पहुंचा कि एक जवान ने कहा,’’जी अपनी अटैची खोल के एक बार दिखा दियो जी।’’
सरदार कुलवंत सिंह ने तुरन्त अपनी अटैची नीचे रख अटैची को खोल कर जवान के सामने रख दिया। जवान ने अटैची के अंदर रखे कपड़े को उठा-उठा कर अटैची के नीचे के तह को देखा और कहा,’’सिर्फ कपड़े ही हगे ना?’’; सिर्फ कपड़े ही है ना?’’
’’हान जी’’


    एक बार फिर जवान ने कपड़े उठा कर देखा बस तीन सैट कपड़े ,एक हल्की चादर,एक तौलिया के सिवा कुछ नहीं था। एक टिफिन बॉक्स था। घर से चलने के पहले कुलवंत की पत्नी ने रास्ते के लिए रोटी और भरोवा करेले दिये थे। जवान ने टिफिन बाक्स खोल कर दिखाने के लिए कहा,जैसे ही टिफिन बॉक्स खोला तो उसमें से सडी सी बदबू आ निकली।’’
जवान ने कहा,’’ बंद कर ले टिफिन पता नहीं कब से यूं ही रखा है। धोया तक नहीं।’’
जवान ने उन्हें जाने दिया।
कुलवंत सिंह प्लेट फार्म से बाहर आकर बस स्टेशन की तरफ चल दिया। प्लेटफार्म के बाहर भी कई जवान चक्कर लगा रहे थे।
कुलवंत सिंह बस स्टॉप पर आ बस में बैठ गया। करीब आधे घंटे बाद बस में सवारी भर गई।
बस जैसे ही स्टार्ट हुई कि कंडक्टर ने चिल्ला कर कहा,’’जीना को छुटठे पैसे आ। ओ बैठे रवे ते जीना को छुटठे पैसे नहीं आ वह बास चो होडे उतर जावे।’’ ;’’जिनके पास खुले पैसे हैं  वह बैठे रहें जिनके पास नहीं है वह उतर जाये।’’
कुलवंत ने पास बैठे नौजवान से पूछा,’’ दस दा छुटठा होउंगा।’’; ’’दस का खुला होगा।’’
’’वैखदा वा जे मिलगे ते ठीक आ।’;’देखता हूं जो मिल गये तो ठीक है।’’
उसने अपने पेंट के पाकैट से मनी बैग निकाला और उसमें से दो पॉच-पॉच के नोट निकाल कर दे दिये।
कुलवंत को खुले पैसे मिलते ही जान में जान आ गई।
बस चल पड़ी कुलवंत खुश हो गया। कुलवंत ने उस नौजवान लड़के से पूछा,’’केडा पेंड पेनदा पुत्तर?’’ ;’’बेटा कौन सा गॉव पड़ता है।’’
’’सुन्दरपुर’’
’’मैं वी ताडे लागे दे पेंड मेते जान दया वा।’’;’’मैं भी तुम्हारे पास के गॉव जा रहा हूं।’’
’’अच्छा जी’’
’’पुत्तर की करन दया वा तू।’’ ;’’बेटा तुम क्या करते हो।’’
’’बस अभी अभी बारहवीं की परीक्षा दी है। आगे की पढाई दिल्ली जा कर करूंगा।’’
’’क्यों पंजाब नहीं अच्छा लगता।’’
’’नहीं पापा कहते हैं पंजाब अभी सैफ नहीं है।’’
कुलवंत ने गहरी सॉस ली। खिड़की का शीशा जरा सा और खोल दिया। बस खेतों खलियानो बालियों के बीच के पक्की सड़क से चलता जा रहा था। सड़क पर कई जगह मिट्टी के बोरो के पीछे जवान स्टैनगन लिए तैनात थे।
अचानक से जंगल के बीच से गुजरते समय बस रूक गई। बस में बैठे कुछ लोगों ने कहा,बस क्यों रूक गई।’’
कन्डक्टर ने कहा,’’चुप करो वे।’’


     बस में एक युवा चढा। छह फुट लम्बा कद , दुबला पतला देह उसने सफेद पंजाबी कुर्ता पजामा पहन रखा था। चेहरा दाढ़ी से भरा हुआ था। उसकी दाढ़ी बिखरी  हुई थी। सिर पर नीला पटका बांध रखा था। कधे में एक स्टैटगन टांग रखी थी। बस में बैठे सभी यात्री को बड़े तेवर से कहा,’’जिने नौजवान बास ते बैठे आ वह बस चौ उतर जावे।’’; जितने भी नौजवान बस में बैठे  हैं वह बस से उतर जाये।
   सभी बस में बैठे लोगों के डर से पसीने छूटने लगे। सभी नौजवान लड़के एक एक कर बस से उतरने लगे। कुलवंत के पास बैठा लड़का भी अपनी सीट से उठ कर ख़ड़ा हो गया। कुलवंत ने उसका हाथ पकड कहा,’’बैठ जा पुत्तर कुछ नहीं हुनदा’’ ’’बैठा रह बेटा कुछ नहीं होगा।
’’नहीं अगर में बस से नहीं उतरा तो उनको मेरे उपर शक हो जायेगा मैं बे वजाह मारा जाउंगा।’’ इतना कह वह आगे बढ़ गया।


     सारे नौजवान लड़के बस से उतर गये। वह युवा आतंकवादी बस में दोबारा चढ़ा और बस के चारो तरफ अपनी नजर घुमाकर उतर गया। कुलवंत को अपने नौजवान बेटे की याद आ गई। वह भी कुलवंत के साथ गॉव आना चाह रहा था। ’’पापा मैं भी आप के साथ गॉव चलता हूं।’’
कुलवंत की पत्नी ने कहा,’’ नहीं बेटा अभी तुम्हारा जाना वहॉ ठीक नहीं होगा।’’
’’अगर मेरा जाना ठीक नहीं तां क्या पापा का जाना ठीक रहेगा।’’
’’मैं तो तुम्हारे पापा से भी कह रही हूं। मत जाईये। नौकरी के बहुत अवसर आयेगे।’  
’’मौके बार बार नहीं आते। बस मैं काम करवा कर जल्द लौट आउंगा
’’ठीक है आप अकेले ही जाइये। बेटे को मत लेकर जाइये।’’
फिर कुलवंत ने बेटे को समझा दिया था।


    बस के नीचे छह-सात आतंकवादी बंदूको से लेस खड़े थे। वह एक एक कर लड़कों का चेहरा देखते उन्हें बस में चढ़ने का इशारा कर देते। जैसे ही वह लड़के को बैठने का इशारा करता। लड़का हड़बड़ा कर बस में चढ़ कर बैठ जाता था।
   आखिर कार कुलवंत के सामने बैठा लड़का भी चढ गया। उसे देखते ही कुलवंत के चेहरे में रौनक आ गई। उसे ऐसा लगा जैसा उसका अपना बेटा बिछड़कर चला गया था।
बस फिर से चल पड़ी। कुलवंत ने पूछा,’’वह क्या चाह रहे थे।’’
’’चाहत तो बहुत बडी है। उन्हें अपना खालिस्तान चाहिये। मगर फिलहाल वह किसी की तलाश में थे।’’
कुलवंत सिंह ने गहरी सॉस ली। और खिड़की के बाहर देखने लगा। उसने खिड़की का शीशा  थोड़ा और सरका दिया। खेतों,मैदान,मजदूर सब कुलवंत की नजरों के सामने से पीछे भागते जा रहे थे। कब ऑख लग गई पता ही नहीं चला।
अचानक एक जगह बस रूक गई। एक पुलिस का सिपाही कंधें में स्टैनगन टांगे हुए बस में चढ गया। वह तमाम बस के खाने में रखे बेग अटैची को सरका सरका कर देखने लगा। फिर उसने सीट के नीचे देखना शुरू कर दिया। जैसे ही कुलवंत के सामने वाली सीट के नीचे देखने के लिए कुलवंत के पैर को थोड़ा हिलाया कि उसकी नीद खुल गई। उसने झट अपना पैर उपर उठा लिया। सिपाही वहॉ से आगे चला गया। अपनी पड़ताल कर बस से नीचे उतर गया।
    बस चल पड़ी। कुलवंत ने कहा,’’अब ये क्या ढूढने आया था।’’
ना जाने कितनी जगह इसी तरह नाका बंदी होती है। हमारे बैग थैलों की चैकिंग होती है। हर बार मुझे ऐसा महसूस होता है आखिर अपने राज्य में किसी आतंकवादी से कम नहीं हूं। जहॉ हर मो़ड पर हमे सफाई देने के बाद ही जाने दिया जाता है।’’


       ’’कोई नहीं पुत्तर चंगा वक्त वी आउंगा। कभी मैं भी अपना पंजाब अपना गॉव छोड़ कर गया था। मगर तब ऐसा पंजाब नहीं था। जो आज देख रहा हूं। सोचते सोचते कुलवंत यादों  के भॅवर में गोते लगाता बहुत पीछे चला जाता है..... वह ऐसे दिन थे जब गॉव मे चारो तरफ हरियाली फैली रहती थी। सभी मित्रो ने आठवीं की पढ़ाई पूरी कर ली थी। उन दिनों आठवीं बोर्ड की परीक्षा होती थी। वह सभी सुबह उठ कर दौड़ लगाया करते। डन्ड बैठक पेला करते थे। सबके रीर गटीले हुआ करते थे। घी की रोटी की चूरी तथा गिलास भर दूध पीया करते थे। सब बस सिक्ख रेजिमेंट में भर्ती होना चाहते थे। दे की सेवा करना चाहते थे। 

     फिर खेतों में जी तो़ड़ मेहनत किया करते थे। वही घर से लस्सी तैयार हो आ जाती थी। फिर सभी दोस्तो के साथ पानी के बम्मी में नहाया करते थे। नहाते वक्त खूब हुड़दंग मचाया करते थे।
कभी किसी की शादी व्याह आ जाती तो रात भर ढोल के साथ भंगडा किया करते थे। पूरा का पूरा गॉव नाचा करता था।
अचानक बस रूक गई। बस का कन्डक्टर ने आवाज लगाई। ’’मेते पेंड वाले उतर जान।’’
कुलवंत को अचानक से हो आया,हॉजीं बस रोक लो।
कन्डक्टर ने कुलवंत से कहा,’’पेले सूता ही।’’
बस रूक लो जी,कन्डैक्टर ने बस वाले से कहा
शाम के अभी छह बज रहे थे। मगर सड़क के पास कोई नजर नहीं आया ना ही कोई रिक्शा वाला ही नजर आया। तो वह पैदल ही खेतों के पगडन्डी वाली राह पकड़ ली।
गॉव पहुंचते -पहुंचते हल्का अधेरा और ब़ड़ गया। गॉव में जैसे सनाटा फैला हो। अपने भईया के घर के पास पहुंच कर उसने दरवाजे की कुंडी खड़खड़ाई। अंदर से आवाज आई,’’ हॉ कौन आ।’’
’’पाजी मैं कुलवंत।’’
फट से दरवाजा खुल गया। अरे कुलवंत तू। अचानक ही आ गये। घर में सब खैरियत है।’’उसने दोबारा दरवाजा जल्द बंद कर दिया।
’’हॉ सब ठीक है।’’
’’गॉव में अंधेरा होते होत ही सभी अपने घरो में चले जाते हैं । कोई पुलिस वाला तो रास्ते में नहीं रोका तुम्हें’’
’’नहीं मैं खेतों के बीचो बीच आया हूं ।’’
’’यहॉ तो दिन के उजाले में भी लोग सुरक्षित नहीं है और तुम रात को अकेले चले आ रहे हो।’’
’’क्या करता कोई तांगे वाला दिखा ही नहीं।
’’खैर कैसे आना हुआ?’’
’’क्या है हमारी कम्पनी ने एक बहाली निकाली है जो सिर्फ एस.सी एस.टी वालों के लिए है। मेरी अधिकारी से बात हो गई बस कागज की जरूरत है।’’
’’सरपंच के बेटे का तो कल व्याह है। व्याह के बाद बात करेंगे’’
’’मगर गॉव में तो ऐसा लग रहा जैसे मातम है। कोई ढोल बाजा कुछ नहीं बज रहा है।’’
’’बस गॉवो में व्याह ऐसे ही होते हैं । अब तो ना ही कोई किसी से ज्यादा दोस्ती ही रखता है। एक दूसरे से लोग डरते हैं   ’’
’’अपनो से कैसा डर मैं समझा नहीं।’’
’’वह मुस्कुराया और बोला,’’मैं तुमसे बात कर रहा हूं। क्या पता तुम मेरे पीछे आतंकवादी से मिले हो।’’
’’ये कैसी बाते कर रहे हो भईया।’’
’’हॉ यही सच है। तुम्हें पता है। मेरे जोड़ीदार बलवंत के लड़के हरदीप के साथ क्या हुआ बस इतनी सी गलती थी। कि उसने जिस लड़के से दोस्ती रखी थी। वह आतंकवादियो से जा कर मिल गया था। एक रात पता नहीं वह हरदीप के घर ठहर के चला गया था। शायद उस दिन उसे पुलिस ढूंढ रही थी। और जब पुलिस को वह नहीं मिला तो बलवंत के लड़के के पीछे पड़ गये। वह तो शुक्र था कि हरदीप के मामा अमेरीका में थे। तो वह अमेरीका चला गया। फिर उसके बाद कभी दोबारा गॉव नहीं आया। अपना दे ही उसके लिए पराया हो गया।
’’हमारे गॉव के नौजवान भी खालिस्तान चाहते हैं।’’
’’नहीं,बस बेरोजगार और गरीब लोगों के दिमाग में मजहब के पाठ पढ़ा उन्हें अपने में शामिल कर लिया गया है।’’
नहीं, ऐसा नहीं है। गरीबी और भूख का कोई मजहब नहीं होता। मजहब और  ईश्वर इनके लिए कोई मायने नहीं रखता गरीब की गरीबी और भूखे की भूख जो मिटा दे वही उनके लिए  ईश्वर है खुदा है। इस वक्त तो हर गरीब को यह आतंकवादी ग्रुप उनके लिए भगवान लग रहा है।’’
’’खैर, तुम नहा लो। भोजन कर लो।’’


       कुलवंत ने सब परिवार के साथ भोजन खाया। भोजन के बाद कुलवंत का मन तो खुली छत पर सोने का था। मगर वह जानते थे अब किसी की भी खुली छत ही रह गई है। कमरे में सोये वह अतीत में खो गये। जब वह बारहवीं में पढता था। उसकी प्रेमिका लाजो से रात में छुप-छुप कर मिला करता था। वह रात को छत में सो जाया करता था। फिर छत से चोरी छिपे उसके छत में चला जाया करता था। लाजो भी छत में आ जाया करती थी। दिन होने के पहले मिल कर आ जाया करता था। रात को बेहिचक वह मिल के आ जाया करता था किसी को कोई डर नहीं होता था। लेकिन चोर की चोरी तो एक दिन पकड़ी ही जाती है। चोरी पकड़ी जाने के बाद लाजो का जल्द से जल्द व्याह कर दिया गया था। क्योंकि लाजो ने उसे इतना कह व्याह रचा लिया था तुम्हें मुझसे भी खूबसूरत और अच्छी लड़की मिल जाऐगी। क्योंकि लाजो जानती थी। हम दोनों ने मॉ-बाप के खिलाफ अगर व्याह किया तो एक दूसरे पर तलवारे चलनी शुरू हो जाएगी। लाजो कभी नहीं चाहती थी कि प्यार पाने के लिए किसी और की बली चढ़ा दी जाये। कुलवंत के घर में भी इस बात को लेकर खूब हल्ला मचा कुलवंत के बापू अर्थात पिता जी ने अपने बड़े लड़के गुरदयाल को फोन कर सारी बात बता यह कहा कि इसे अपने पास ही बुला ले नहीं तो यह गॉव में बिगड़ जाएगा। उस वक्त कुलवंत बारहवीं कर चुका था। वह ऐसा वक्त था। जब गॉव में बिजली नहीं होती थी। कुलवंत रात में ढिबरी जला कर पढ़ता था। देर रात तक पढ़ता ही रहता था। मॉ उसे कहती ,’’बेटा ढिबरी बंद कर दे नहीं तो तेल खत्म हो जाऐगा। तू दिन में पढ़ लिया कर बेटा।’’उसे इस वजह से दिन में ही पढ़ना पड़ता था। उस पर उसे खेत में भी काम करना पड़ता था। इसलिए कुलंत के बापू को लगा कही कुलवंत लड़कियो के चक्कर में बर्बाद ना हो जाए। उसे बडे लड़के के पास भेज दिया था। अब तो ना ही बापू रहे ना ही गुरदयाल ही थे। 

     हॉ तो गुरदयाल बर्नपुर इस.कामें काम करता था। उसने कुलवंत को पास ही आई.टी.आई स्कूल में दाखिल करवा दिया था। कुलवंत ने सोचा था आई.टी.आई की पढाई कर वह दोबारा पंजाब चला जाऐगा। मगर सोचा हुआ कभी नहीं होता है। आई.टी.आई के बाद गुरदयाल ने उसका नाम रोजगार एक्सचेंज में लिखवा दिया था। आईटी के बाद कुलवंत को दो गाय खरीद दी थी। क्योंकि गुरदयाल का मानना था कि  ईश्वर मेहनत करने वालों को ही अच्छे मुकाम पर पहुंचाता है। कुलवंत सिंह सुबह उठकर गायो का सानी-पानी करता था। फिर गाय को दू कर, टिफिन में दूध ले बाजार में बेचने निकल जाता था। मगर कुलंवत को दिल से कभी यह काम पसंद नहीं था। अर्थात उसे इस काम में मन नहीं लगता था। वह अच्छी नौकरी के प्रयास में लगा रहता था। उसने अपना नाम इमप्लायमेंट एक्सचेंजमें लिखवा रखा ही था। एक बार हैगट की बहाली निकली इमप्लायमेंट एक्सचेंजकी ओर से इन्टरव्यु का कॉल लेटर आ गया। 

     इन्टरव्यू में जाने से पहले बड़े भाई गुरदयाल ने उसे अच्छी तरह समझाया साहब जो पूछे सही सही जबाब देना। साहब के सामने थोड़ा नरमी से अपनी गरीबी का रोना रोया। दया आ गई तो नौकरी दे देगा’’
इन्टरव्यु में साहब ने कुछ ही सवाल पूछे थे। यह बात कुलवंत ने कई बार हंसते हुए अपने बेटो को भी बताई थी। साहब ने पूछा,’’ तुमने आई.टी.आई कहा से की है।
’’जी बर्नपूर से।’’
’’कौन से टेड से की है।’’
’’फिटर टेड से की है।’’  
’’घर पर कौन-कौन हैं ’’
’’साहब घर में मैं और दो बहनें हैं । जिनका पालन-पोषण मैं ही करता हूं ’’
’’क्या करते हो’’?
’’साहब दो गायें पाल रखी हैं’’
’’कितना दूध देती हैं?’’
’’जी यही कोई चालीस पचास के आस-पास हो जाता है।’’
’’पानी मिला देते होंगे?’’
’’कुलंवत सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा,’’साहब थोड़ा बहुत करना ही पड़ता है।’’
इस बात पर साहब हंसे कुलंवत  हॅस पड़ा। साहब ने पूछा, मान लो चलती हुई मशीन बंद हो जाये। उसमे पानी तेल डालना पड़े तो डाल लोगे ना।’’’
’’साहब मैं ठहरा फिटर आदमी हम नहीं काम करेंगे तो कौन करेगा।’’
बस फिर क्या था? तीन महीनों तक बाकी के कागज पतरों के काम के बाद ज्वाइनिन्ग लैटर आ गया।


  फिर नौकरी में ऐसा मन लगा की पंजाब वापस आ ही नहीं पाया। बंगाल में ही रह गया।
सुबह काफी हो हल्ला मचने लगा था। डगर की भी चिल्लाने की आवाज आने लगी थी। कुलवंत की नींद खुल गई। तकिये के पास रखी अपनी घड़ी देखी सुबह के सात बज गये थे। चूकि गॉव के घरो में उन दिनों शौचालय नहीं होता था। सभी घरो के बाहर खेतों में जाया करते थे। सो कुलंवत भी बोतल में पानी ले कर एक नीम की तिला दॉतो में रगडते हुए खेतों की तरफ निकल पडे़।


     खेतों की तरफ जाते वक्त उसको गॉव के कई लोग मिलते गये। गॉव और खेतों के बीच एक रेल पटरी थी । कुलवंत पटरियो के बीच चलने लगा थां तभी खेतों में काम करते एक ख्स ने कुलवंत को जोर से आवाज दी।’’ओय कुलवंत’’ कुलवंत ने उसे देखा वह पहचान नहीं पा रहा था। वह दौड़ता हुआ पास आ गया। उसने पास आ कुलवंत से कहा,’’वह पैन दे टके। सालया पेहचानाया नहीं।’’। वह सरदार ही क्या जो गाली देकर और जपी डालकर ना मिले। कुलंवत ने भी कहा,ओय पैन चौद सुखबीर ये भेप किदा बदल लिया।’’ दोनों ने एक दूसरे को गले लगा लिया। कुलवंत ने कहा,’’यार तुमने तो अपना हुलिया ही बदल दिया। तुम तो पूरे सिख बन गये।’’ सुखबीर कुलवंत का लगोटिया यार था। पहले सुखबीर मुना सरदार हुआ करता था। किसी फिल्मी हीरो सा दिखता था। सुखबीर भी कुलवंत की कम्पनी मे नौकरी करता था। वह नौकरी भी कुलवंत ने ही लगाई थी। जब कुलवंत की नई नई नौकरी हुई थी। तो कुलवंत ने अपने कई जोड़ीदार को नौकरी पर लगाया था। दरअसल कुलवंत चाहता था। उसका पंजाब आर्थात गॉव दूर है। पर साथी पास आ जायेगे। तो समझो अपना गॉव वही बस गया और अपना भी मन लगा रहेगा। मगर ऐसा हो नहीं सका। सुखबीर ने एक दिन कह दिया ,यार मेरा जी नहीं लग रहा है। दूसरे के यहा काम करने से अच्छा है। अपने खेत में ही मेहनत कर कमा लुंगा। उसने कुलवंत से भी गॉव वापस चलने के लिए कहा था। मगर कुलवंत का वही मन लग गया था। सुखबीर वापस चला आया था। उसी तरह बाकी जोड़ीदार भी वापस आ गये। कुलवंत ने कहा,’’अच्छा है सिख में भी अच्छे लग रहे हो।’’  
’’अब अच्छा लगूं या बुरा के ना रखता तो पंजाब मे रहने कौन देगा। कहीं हिन्दु समझ मार डाला गया तो और अच्छा भी है पंजाब की रौनक तो सरदारो से ही होती है।’’
’’पक्के खालसा बन गये हो तुम।’’
’’ऐसा ही कुछ समझो’’
’’तुम भी खालिस्तान चाहते हो।’’
’’नहीं,अचीबिंग जसटिस,होमेन राईटस एनड डिगनीटी ऑफ पंजाब एनड सिखस।’’
’’हिन्दुओं को मार कर और लोगों को डरा कर हम कभी अपनी महानता हासिल नहीं कर सकते है।’’
’’कोई सिख हिन्दुओं को नहीं मार रहा उन्हें तो समझाया जा रहा है। कि वह यह राज्य छोड़ कर चले जाये। मगर जाने की वजाये और इधर ही आ रहे हैं । बस जब लोग नहीं मान रहे तो बंदूक उठाना पड़ रहा है।’’
’’करीब 40 प्रतित सिख दे के कोने-कोने में बसे हुए हैं । दे के कई गरीब इलाको से रोजी रोटी के लिए यहॉ पंजाब आते हैं । इसलिए हम अपनी महानता इनसे अलग होकर नहीं दिखा सकते।’’
’’देखो मुस्लिम ने अपना पाकिस्तान लिया अगर हम सब सिख अपना खालिस्तान मांग रहे हैं । तो बुरा क्या है।’’
’’1947 में बंटवारे में आधा पंजाब पाकिस्तान चला गया। कुछ कश्मीर में चला गया। अब क्या अलग होगा।’’
’’ऐसा वक्त आयेगा जब राज्य राज्य से अलग होगा। तुम दे अलग होने की बात कर रहे हो।’’
कुलवंत को प्रेर जोर का आ गया था। उसने कहा, सुखबीर तुमसे मैं बाद में बात करूगा।
’’ठीक है आज शाम का खाना मेरे घर खाना।’’
कुलवंत अच्छा कह भागता हुआ खेतों के बीच घुस गया। खेतों के बीच से फूड़ोच से फाइरिंग की आवाज आई।
घर के ऑगन में कुलवंत के बडे भाई साहब सत्ता सिंह मंजी चारपाई में बैठ कर शीशे में देख पगड़ी बांध रहे थे। कुलंवत के वापस आते ही सत्ता सिंह ने कहा,’’कुलवंत जल्दी तैयार हो जा सरपंच के बेटे के व्याह में चलते हैं । सरपंच जी को वहीं बधाई दे देना साथ ही साथ काम की भी बात कर लेंगें।’’
सरपंच के घर के बाहर ढोल बाजे के बीच लडके नाच रहे थे। लड़कियॉ गिदा पा रही थी। 

      सरपंच जी के पास पहुंच कर कुलवंत और सत्ता ने उन्हें बधाई दी। तब तक अगुवा आकर सरपंच जी से कहा’,’’सरपंच जी दिन के दस बज गये हैं । बरात दिन के दिन ही वापस लानी है। जल्दी से सबको कहे बस में बैठ जाने के लिए।’’
सरपंच ने सबको नाच गाना बंद कर बारात की तैयारी करने के लिए कहा।
बस में सभी लोग बैठ गये थे। एक सरदार बस में चडढा और आदमी गिनने लगा। आदमी गिन उसने सरपंच जी से कहा,’’सरपंच वे तीस बंदे बैठ गये । हम तो सिर्फ चौदह बंदे ही बरात में ले जा सकते हैं । आगे या तो आतंकवादी रोक लेगे या पुलिस रोक लेगी।’’दरअसल बात ऐसी थी कि खालिस्तान वालों की कहना था कोई भी लड़के वाले बरात में ज्यादा लोग लेकर नहीं जायेगे।क्योंकि इससे लड़की वालों पर खर्च बड़ जाता है।ना ही दहेज मागेगा। उधर पुलिस वालों का कहना था कि बरात में आदमी कम लेकर जाये।क्योंकि वह मानती थी कही गोलाबारूद में ज्यादा लोग ना मर जाये।
   कुलवंत बस से उतर कर कहने लगा,’’सरपंच जी मैं रह जाता हूं’’
’’नहीं कुलवंत जी आप चलिए।’’
फिर गिनती शुरू हुई। माफी मांग-मांग कर कुछ रिश्तेदारों को बस से उतर जाने के लिए कहा।कुछ तो खुद ही उतर गये। एक ने तो यह कह दिया बरातियो से ज्यादा तो बैंड बाजे वाले ही हो गये। इन्हें भी कम कर लो। दस बैड बाजे वालों की जगह पॉच कर दिये गये। सरपंच ने इस पर गुस्से से कहा,’’अब सारे बैड बाजो वालों को मत उतार देना मैं लड़के की बरात लेकर जा रहा हूं । किसी की मईयत में नहीं जा रहा हूं’’
बैड बाजे वाले बस के उपर बैठ गये। बस चल पड़ी।
शाम के वक्त कुलवंत सुखबीर के घर खाना खाने के लिए गया था। उसकी फूल सी बेटी दोनों को चूल्हे पर रोटिया सेक-सेक कर दे रही थी। सुखबीर ने कहा,’’बस बेटी की शादी कोई अच्छा सा लड़का देख कर कर दूं।’’


     कुलवंत को सुखबीर की बेटी बहुत पंसद आई। उसका मन किया आज ही अपने बेटे जसकरन के लिए उसकी बेटी का हाथ माग लूं। मगर अभी उसे यह वक्त यह सब कहना ठीक नहीं लगा। क्योंकि पहले बेटे की नौकरी हो जाये फिर सुखबीर से इस विपय में बात करूंगा।
बातों-बातों में रात के करीब आठ बज गये। कुलवंत ने कहा चलो आब चलता हूं
गॉव पूरा सुनसान था। कुलवंत और सुखबीर पैदल चले जा रहे थे। तभी बुलेट में सवार दो पुलिस वालों ने दोनों पर टार्च मारी और उनके पास आकर कहा,’’कौन हो तुम लोग।’’
सुखबीर ने कहा,’’मैं सरदार सुखबीर सिंह। इसी गॉव से।’’
’’और यह कौन है तुम्हारे साथ।’’
’’सरदार कुलवंत सिंह। बाहर गॉव में नौकरी करता है। इसी गॉव का है।’’
’’ठीक है जाओ।’’
’’सरकार ने तो इन्हें इतनी छूट देख रखी है कि जहॉ चार युवा एक साथ खडा मिले इनकाउन्टर कर दो। सरकार युवा पीढी से डर गई है। उन्हें लगता है सारे युवा आतंक से जो जोड़े हुए हैं।
कुलवंत को घर के पास से छोड़ सुखबीर वापस चला गया।
गॉव आये हुए कुलवंत को सप्ताह भर हो गया था। एक दिन सरपंच ने कुलंत को सुबह अपने घर में बुला लिया। हाथ में कागज पकडाते हुए कहा,’’लो कुलवंत भगवान करे तुम्हारे बेटे की नौकरी हो जाये । अच्छा है जो तुम अपने गॉव से बहुत दूर हो।’’
’’मगर अपना गॉव अपने लोग कहा भूल सकते हैं। वहा रह कर भी हमेशा गॉव की चिंता सताती रहती है।’’
’’कौन सा गॉव,किसका गॉव,कैसा गॉव! जहॉ खुली सॉस ना ले सके,सूकुन की रोटी ना खा सके,चैन की नीद ना सो सके। जहॉ खुली स्वतन्त्रता से जी सके वही अपना गॉव वही अपना दे है। यहॉ तो हम ऐसे तराजू में लटके हैं कि एक तरफ आतंकवादी की गोली से बच जाये तो दूसरी तरफ पुलिस की गोली के शिकार हो जाओ।’’
’’सरकार कुछ क्यों नहीं कर रही?’’  
’’सब कुछ सरकार का ही तो किया धरा है। वोट बैंक के लिए पहले किसी का साथ लिया अब उसकी मॉग को कैसा पूरा करे। वह भी तो अलग दे बना कर राज करना चाहता है। खैर हमे यह बात अपनी यहीं खत्म करनी चाहिये क्योंकि दीवारो के भी कान होते हैं।’’
कुलवंत खांसता हुआ दरवाजे से बाहर निकल आया था। घर आ वापस जाने की तैयारी करने लगा था। आखिर तैयारी क्या करनी थी जैसे तीन जोड़े कपड़े लेकर आया था वैसे ही उठा कर चल देना था। घर के बाहर तांगे वाला तांगा लेकर आ गया था। घर के बाहर घोड़ा ही......ही... की आवाज कर रहा था रह रह कर अपना सिर हिला रहा था। कुलवंत ने सबसे जाने की इजाजत मांगी। बड़े भाई ने कहा,’’बेटे की नौकरी होने पर खत लिखना।’’
’’हॉ जरूर लिखुंगा। आप लोग भी अपना ख्याल रखीयेगा।’’
कुलवंत तांगे पर बैठ गया। तांगे वाले ने लगाम को खीच कर हूर की आवाज की और घोड़ा दौड़ पड़ा।


    ट्रेन में कुलवंत अपनी सीट में बैठा हुआ था। आस पास उसे सारे हिन्दु बैठे दिख रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था। वह कह रहे हो,यह सिक्खो का राज्य है। यहॉ अपनी जिन्दगी की कोई निश्चयता नहीं है।
कुलवंत ने घड़ी देखी गाड़ी छूटने में अभी भी पन्द्रह मिनट बाकी था। प्लेटफार्म पर कई सारे कबूतर अचानक फड़फड़ाने लगे। ट्रेन के डिब्बे के उपर धडाधड गोलियां बरसने लगी। कुलवंत ने किसी की आवाज सुनी,’’ सीट के नीचे छुप जाओ।’’ कुलवंत और सभी लोग सीट के नीचे घुस गये। लगातार गोलियॉ बरसती जा रही थी। गाडी के डिब्बे से हदय विदारक रोने की आवाज आ रही थी। अचानक से ट्रेन में कुछ फौजी चढ गये और इधर से वह भी फाइरिंग करने लगे।
डीजल का इंजन धॅुआ छोड़ता हुआ सीटी बजाकर चल देता है। आर्मी के जवान दूसरी तरफ कूद जाते हैं।


     गाड़ी पटरी पर तेजी से दौड़ने लगती है। कुलवंत धीरे से सीट के नीचे से निकलता है। अपनी बेतरतीब हुई पगड़ी को सही करता है। खिड़की के बाहर झांकता है। पटरी में दौड़ती पहियों की आवाज के साथ अचानक खिडकियॉ बंद होने की आवाज आनी शुरू हो गई। सबने अपनी-अपनी खिड़कियॉ बंद कर ली थी। यहां तक की डिब्बे का दरवाजा भी बंद कर दिया गया था। क्योंकि अभी ट्रेन पंजाब में ही दौड़ रही थी। ट्रेन भागती जा रही थी मैदानो पहाड़ो को पीछे छोड़ते। कुलवत गहरी चिंता में डूब जाता है। क्या वह दिन दूर नहीं जब एक और पाकिस्तान बन जायेगा हमे हिन्दोस्तान से निकाल-निकाल कर खदेड़ा जायेगा। आखिर हम हिन्दुस्तान के कितने टुकडे करेंगे। फिर अपने ही लोगों से अलग होकर अपने ही लोगों से जंग के मैदान में एक दूसरे पर गोला बारूद गिराते रहेगे। ना जाने ऐसे कितने विचार कुलवंत के दिमाग में उमड घुमड़ कर रहे थे। गाड़ी पटरी में दौड़ती जा रही थी। पास बैठे एक ख्स हनुमान चालीसा पढ़ने लगा था। एक पचास के करीब औरत हाथों में कन्ठी माला लेकर कुछ जाप करनें लगी थी। कुलवंत ने भी वाहे गुरू का नाम लिया और अपनी बर्थ में पैर फाला कर चौड़ा हो सो गया। ट्रेन एक स्टेन पर आकर रूकती है। कई लोग दरवाजा खोलने के लिए कहने लगते हैं । मगर कोई दरवाजा खोलने के लिए नहीं जाता है। कई स्टेन में खडे लोग ट्रेन के डिब्बे को गौर से देखने लगते हैं । डिब्बे के उपर कई तमाम गोलियों के निशान दिख रहे थे। आखिर कार कुलवंत ने उठ कर दरवाजा खोल दिया था।


     ट्रेन कई स्टेशनों पर रूकती और अपनी रफतार से फिर पटरी में दौड़ने लगती थी। उन दिनों कुलवंत को पंजाब से बंगाल आने में तीन दिन का सफर तय करना पड़ता था। करीब तीन दिन बाद कुलवंत अपने घर पहुंचा था।
घर पहुंचते ही कुलवंत की पत्नी के जान में जान आई थी। जब पत्नी जसबीर ने गॉव पंजाब के हालात के बारे में पूछा तो कुलवंत ने इतना कहा था। सब कुछ ठीक है बस लोग बाग ऐसे ही अफवाह फैलाते हैं । कुलवंत नहीं चाहते थे कि पत्नी को वहां के हालत के बारे में कुछ गलत बता कर उसे डरा दिया जाये।
खैर कुलवंत ब्रु ले। दॉत में रगड़ते हुए घर से बाहर आ गये। सामने उसका पड़ोसी जो उसके साथ ही कम्पनी में एक ही विभाग में काम करता था। उसने कुलवंत को देख कहा, उग्रवादी आ गये।’’


      दरअसल कुलवंत को उसके मि़त्र उसे उग्रवादी कह के बुलाते थे। हर दिन अखबार में तथा रेडियो में पंजाब की खबर देखते थे। इस वजह उन दिनों कई जगह सरदारो का लोग मजाक से उग्रवादी कह दिया करते थे। खैर कुलंवत सिंह कभी इस बात का गुस्सा नहीं करते थे क्योंकि उन्हें मजाक और हकीकत का फर्क पता था। कुलवंत ने कहा, ’’मियॉ मैं आ गया।’’ कुलवंत का पड़ोसी निजामदुदीन मुस्लिम था। कुलवंत उसे मियॉ कह कर पुकारता था। सही मायने में तो कम्पनी में काम करने वाले सभी लोग एक दूसरे को असली नाम से पुकारते ही नहीं थे। कुछ ना कुछ उप नाम रख दिया था।
’’काम हो गया।’’
’’हॉ काम तो हो गया। मगर असली काम तो बाकी है।’’
’’अब असली काम क्या रह गया है।’’
’’बेटे की नौकरी।’’
’’वह तो होना ही है।’’


      कुलवंत को कम्पनी के साहब बहुत मानते थे। उनका मानना था सरदार मेहनती,ईमानदार, निडर होते हैं । वह किसी काम से नहीं डरते हैं । इसलिए कुलवंत कभी किसी काम को करने से मना कर देता कहता,’’यह काम मुझसे नहीं हो पायेगा।’’ तो साहब का एक ही जुमला होता,अगर सरदार से नहीं होगा तो फिर यह काम किससे होगा।’’ यही वजह थी कि बेटे की नौकरी भी हो गई।
बेटे की नौकरी की खुशी में कुलवंत ने अपने सभी जोड़ीदारों मुसलमान,बंगाली,बिहारी,मद्रासी को घर में भोजन और राब पिलाया था। फिर पंजाबी की पार्टी ही क्या जहां राब और भंगड़ा ना हो।


      ये ऐसे दिन थे जब पंजाब में बहुत कुछ घट रहा था। कभी हिन्दुओं को बसों से उतार कर मारा जा रहा था। कभी कई पुलिस वाले मारे जा रहे थे। पुलिस के हाथों ही कभी आतंकवादी मारे जा रहे थे। कभी पुलिस के हाथों बेगुनाह इनकाउन्टर किया जा रहा था।
अपने बेटे की नौकरी की खबर पत्र द्वारा पंजाब भेज दी थी।
कुलवंल खाना खाकर दोपहर को सोने जा रहा था। तभी पोस्ट मैंन ने आवाज दी,पोस्ट मैंन’’
कुलवंत को रजिस्टरी देकर चला गया। पत्र कुलवंत के बड़े भाई का था। कुलवंत पत्र पढ़ने लगा। पत्र पंजाबी में लिखी हुई थी।


      बेटे की नौकरी की खबर सुन कर बहुत खुशी हुई। तुम्हारा बेटा अपने पैरो पर ख़ड़ा हो गया। अब जल्द से जल्द इसका व्याह कर दो। एक बहुत दुख की खबर भी है हमलोगों का सुखबीर अब इस दुनिया में नहीं रहा। पुलिस वालों ने उसे आतंकी बोल इनकाउन्टर कर दिया है। पंजाब के हालत दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं । खैर तुम अपना ख्याल रखना। बेटे को मेरा प्यार देना।
पत्र पढते ही कुलवंत की आखे ऑसू से भर गयीं थी।
समय बीतता गया। पंजाब में उन दिनों बहुत कुछ घट रहा था। ज्यो-ज्यो दिन बीत रहे थे। पंजाब में अपने लोगों की चिंता कुलवंत को परेशान करने लगी थी।



       6 जून 1984 की सुबह हर सिखों के लिए बहुत ही निराशा भरा दिन था। दरबार साहिब में खालिस्तानियों का खात्मा करने के लिए उसका घेराव किया गया। इससे कई निर्दोषों की जान चली गई। इससे पहले की आर्मी वाले आम जनता को कुछ कह पाते। गोलियां चलनी शुरू हो गई। देखते ही देखते सब कुछ खत्म कर दिया। कहते हैं कई सिख शख्ससियतों ने अपना सम्मान वापस कर दिया कइयों ने लेने से इनकार कर दिया। 

       31 अक्टूबर 1984 की शाम इस दे के लिए बेहद निराशा और अशांति का दिन था। तत्कालीन प्रधान मंत्री को उनके ही सिख बार्डी गार्डो ने उनकी हत्या कर दी थी। तत्काल ही पूरे दे में सिखों का कत्ले आम शुरू हो गया।


       उस दिन कुलवंत घर पर रेडियो सुन रहा था। बेटा कम्पनी गया हुआ था। कुलवंत की पत्नी डर गई। कुलवंत यह सब सुन अपने बेटे को कम्पनी लेने जाने की तैयारी करने लगे। लेकिन पत्नी ने उन्हें रोक लिया आखिर बाहर उन्हें भी तो खतरा था। अचानक से दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। कुलवंत ने पूछा कौन,मैं निजामुद्दीन’’कुलवंत ने दरवाजा खोल दिया। निजामुद्दीन अपनी लाइसनसी बंदूक टागे अंदर घुस गया। चारो ओर सिखों को मारा जा रहा है। उनकी दूकाने घर जलाये जा रहे हैं । कुलवंत पास की सरदार के ढाबे को जला दिया गया है। मगर कुलवंत तू चिंता ना कर मेरे यार एक-एक को बहन चौद को उडा़ दूंगा।’’
’’मुझे अपनी नहीं अपने बेटे की चिंता है।’’
’’तुम चिंता मत करो कम्पनी में उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। देख कुलवंत जिस हिन्दुस्तानियो की रक्षा के लिए गुरूनानक देव ने सिख धर्म बनाया आज वही हिन्दु सिखों के खून से नहा रहे हैं । आज तो कोई मुस्लिम उन्हें नहीं मार रहा है।’’
’’नहीं मेरे दोस्त आज कोई मजहब नहीं मार रहा ना मुसलिम ना हिन्दू आज कुछ असामाजिक लोग हैं जो राजनीति का चोला पहन कर लूट रहे हैं, मार रहे हैं ।’’
उस रात कुलवंत का बेटा जसकरन वापस नहीं आया। निजामुद्दीन ने कहा,’’ हो सकता है। उसने कही रण ली हो माहौल ठंडा होने पर आ जायेगा।’’


     लेकिन जसकरन कभी नहीं आया। कुलवंत अपने बेटे की तला के लिए खूब भटका मगर वह कहीं नहीं मिला। लोगों का कहना था। दंगे के लोगों ने उसे मार कर जिंदा जला दिया होगा। या फिर हो सकता है कम्पनी में ही आग के भट्टी में फेंक दिया होगा। गुस्साये लोगों ने उसके जीस्म का पीस पीस कर दिया होगा।


     एक दिन कुलवंत के पास उसके मित्र अफसोस जताने आये थे। कुलवंत ने बस इतना भर कहा था।’’ अगर पंजाब में हिन्दुओं को मारने वाले सिख आतंकवादी थे तो यह कौन थे जिन्होंने मासूम लाचार लोगों की जान ली है।’’


      कहते हैं कुछ दिनों बाद कुलवंत वहां से चला गया बिना किसी से कुछ कहे। लोगों का कहना है। कुलवत गुस्से से पंजाब चला गया और खालिस्तानियों से मिल कर उग्रवादी बन हिन्दुओं को मारने लगा। कुछ लोगों का कहना है। उसकी पत्नी हिन्दुओं से डर गई थी। जैसे उसने अपना बेटा खो दिया था। अपने पति को खोना नहीं चाहती थी। इसलिए सब कुछ बेच पंजाब अपने मुल्क चली गई थी। लेकिन अभी-अभी कुछ लोगों का कहना है। कुलवंत को दिल्ली के जंतर-मंतर में दंगो में पीडित सिखों के परिजनों के बीच ’’आई वान्ट टू जस्टीस’’ का बोर्ड लगाये बैठा देखा है।


सम्पर्क- विक्रम सिंह
बी ब्लॉक-11, टिहरी  विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,न्यू शिवालिक नगर, हरिद्वार,उत्तराखण्ड,249407
मो.9012275039
ई-मेलः bikram007.2008@rediffmail.com

                                                                                 सभी चित्र गूगल से साभार

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

नीलम बिष्ट की तीन कविताएं





        राजकीय इंटर कालेज देवलथल में कक्षा दस में अध्ययनरत नीलम बिष्ट ने यह कविताएं उन्होंने अपने स्कूल की दीवार पत्रिका के लिए लिखी हैं।आशा है आपको कविताएं जरूर पसंद आयेंगी । आप सुधीजनों के विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
 
मेरे प्यारे पापा

सबसे प्यारे , सबसे न्यारे
सबसे अच्छे, सबसे सच्चे।
सारे दुनिया में प्यारे पापा
सारी दुनिया में अच्छे पापा।
मुझे अच्छे-अच्छे खेल खिलाते
ढेर सारे खिलौने मुझे दिलाते।
अच्छी-अच्छी बातें सिखाते
मीठे-मीठे सपने दिखाते।
कांटों से लड़ना सिखाते
फूलों सा खिलना सिखाते।
चिड़ियों सा उड़ना सिखाते
मुझे मेरी राह दिखाते।
नटखट गुड़िया मुझे पुकारते
पापा की लाडली मुझे बुलाते।
मुझे कठिन मेहनत करना सिखाते
सागर की लहरों से लड़ना सिखाते।
सबसे प्यारे एसबसे न्यारे
सबसे अच्छे, सबसे सच्चे।
मेरे हैं वो प्यारे पापा
सारी दुनिया से न्यारे पापा।

पिंजड़े में बंद परी

पिंजड़े में बंद परी ने कहा -
ओ ! दुनिया के जुल्मी लोगो
क्यों बंद रखा है मुझे
इस पिंजड़े में
लोगों की सेवा करूं
क्या इतना ही मेरा काम है
मैं एक परी हूं
मुझे एक नई दुनिया में जाना है
पापा की राजकुमारी बनना है
भाई से पहले राकेट चलाना है
स्वच्छ हवा में सैर को
मेरे पंख तरसते हैं
स्वच्छ जल में तैरने को
मेरी छड़ी व्याकुल है
क्यों झरने से बहते जीवन
को रोकते हो
रूके पानी से बदबू उठने लगी है
बहुत हुआ इसे  बहने दो
अब वक्त है बसंत का
कली को बगिया में खिलने दो
अब वक्त है बरसात का
मोरनी की तरह नाचने दो
अब वक्त है बंद पंखों के खुलने का
इसे आसमान में उड़ जाने दो।
पिंजड़े में बंद परी ने कहा .
ओ !दुनिया के जुल्मी लोगो
क्यों बंद रखा है मुझे
इस पिंजड़े में।

कठपुतली

कठपुतली सा उसका जीवन
कितना निर्मम लगता है
क्यों रोज वही रोटी सेके
क्यों रोज चहर दीवारी में बंद रहे
क्यों सभी जिम्मेदारी उठाए
क्यों सभी की चिंता करे
क्यों सभी की जली-कटी सुने
क्यों उसे बोलने से रोके दुनिया
क्यों नहीं ले सकती वह
अपने जीवन के फैसले खुद
क्यों बेगारी करे इस दुनिया की
क्यों कमजोर समझते लोग उसे
इतना सब कुछ करने पर भी।
क्यों तब ही वह
आदर्श स्त्री कहलाती है
जब खुद को आघात पहुंचाती है
क्यों नहीं कह सकती वह अपनी बात
क्यों नहीं कर सकती है
वह थोड़ी सी मनमानी
क्यों वह थोड़ा सा दौड़ी तो
बुरी स्त्री कहलाती है
क्या उसे हक नहीं कि
वह भी जिए इस दुनिया में
क्यों नहीं आने देते
उसे इस संसार में
क्यों  देती है वह थमा
अपने जीवन के धागों को इस संसार को
जो उसे कठपुतली की तरह नचाते हैं
तब उसका जीवन
कठपुतली - सा बन के रह जाता है। 

प्रस्तुति- महेश चंद्र पुनेठा

         रा00का0 देवलथल पिथौरागढ़

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू' की लघुकथाएं-




 
                                                                    पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
                                                                     03/07/1993


संबल
  छाया ने अपने भाई से पूछा-"भइया!क्या बात है?दिन-ब-दिन सूखते चले जा रहे हो।क्या हॉस्टल में खाना मिलना बंद हो गया है?" पंकज ने क्षीण मुस्कान के साथ उत्तर दिया-"बहन!ऐसी कोई बात नहीं है,इन मैं बहुत अपसेट रहता हूँ।" छाया ने गंभीर होकर कहा-"भाई!क्या हुआ?मुझे नहीं बताओगे?" पंकज ने नतानन जवाब-"बहन!बात दरअसल यह है कि मैं लगातार चार बार से प्री-मीँस तो निकाल लेता हूँ पर इंटरव्यू में असफल हो जाता हूँ।लगता है डीएम बनना नसीब में नहीं है।ऐसा लग रहा है आत्महत्या कर लूँ।" छाया ने रुँधे कंठ से बोली-भइया।ऐसी बात दुबारा मुँह से मत निकालना,खासकर मम्मी के सामने।जानते हैं?उन्होंने किस मुसीबत से आपको पढ़ाया।उन्होंने जितने सपने देखें हैं खुली आँखों से,उन सबका संबल आप हो।पापा तो यह काम करके जा चुके हैं।अब और दुख मत देना मम्मी को।" छाया अपने आँसू रोक न सकी और दौड़कर अपने कमरे में घुस गई।पंकज के कानों में
'संबल-संबल'......गूँजने लगा।

प्रसाद

रेखा मंदिर से आई तो उसके हाथ रिक्त थे।माँ ने आश्चर्य से पूछा-"बेटी!तू मंदिर गई थी न?"
"हाँ,माँ मैं मंदिर गई थी।क्यों?"रेखा ने मुस्कुराकर कहा।
माँ ने कहा-"बेटी!तुझे पैसे भी दिए थे लेकिन प्रसाद नहीं लाई?" रेखा ने जवाब दिया-"माँ!जब मंदिर जा रही थी,रास्ते में मोहन काका मिल गए।मैंने नमस्ते किया तो वह बोले बेटी कल से मुझे खाना नहीं मिला।जान निकल रही है। माँ! मैंने उन्हें उन्हीं पैसों से भरपेट भोजन करा दिया।" माँ ने रेखा का माथा चूमकर बोली-"बेटी! आज तूने सच्ची पूजा की है और सच्चा आशीर्वाद का प्रसाद प्राप्त किया है।" रेखा की आँखें छलक पड़ीं।

परिचय-

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
विकलांगता -शत प्रतिशत विकलांग 14माह की अवस्था से
शिक्षा-स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य स्वर्ण पदक सहित),यू.जी.सी.नेट (चार बार)
प्रकाशन-महानगर(कलकत्ता),विकलांग पाथेय(चित्रकूट),गुफ़्तगू(इलाहाबाद),शेषामृत(मथुरा),गुलाल(सीतापुर),अखंड भारत(दिल्ली),शब्द सरिता(अलीगढ़),प्रभात केसरी(राजस्थान,दैनिक पत्र),अभिनव इमरोज(दिल्ली),अन्वेषी(फतेहपुर)।
ई.पत्रिकाओं में रचनाएँ शामिल-प्रयास(कनाडा),प्रवक्ता,स्वर्ग विभा(मुम्बई),आशना,अनुभूति,साहित्य
रागिनी(मनकापुर),वेबदुनिया(ई.पत्र),अक्षय गौरव,हाइकुकोश,मेलेनियम दर्पण(ई.पत्र)
संप्रति-अध्यापनरत जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट में।  
संपर्क- ग्राम-टीसी,पोस्ट-हसवा,जिला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)-212645 मो.-08604112963 ई.मेल-putupiyush@gmail.com

शनिवार, 29 नवंबर 2014

पहाड़ में खुलती एक खिड़की: अकुलाए हुए निकलते शब्द



                                                    आरसी चौहान
                                  मोबा0-08858229760   

         आज हिन्दी साहित्य उस चौराहे पर खड़ा है जहां से सड़कें चकाचौंध कर देने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों , सिनेमा, बाजार और सच्चे-झूठे दावा करने वाले विज्ञापनों की ओर जाता है और इन सड़कों पर आम आदमी आतंकवाद ,उग्रवाद ,भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे धिनौने पहियों के निचे कुचला जाता है। ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत रचनाकारों की आवाज की अवहेलना बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती। इनकी आवाज को सार्थक दिशा देने के लिए राष्ट्रीय स्तर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने एक बड़ा मंच प्रदान किया है।

      वागर्थ, नया ज्ञानोदय, हंस ,कथादेश, युद्धरत आम आदमी ,समसामयिक सृजन ,परिकथा, युवा संवाद ,संवदिया, कृतिओर ,जनपथ और इसी कड़ी को एक कदम आगे बढा़ते हुए “अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक
प्रकाशित करने वाली हिमालयी पत्रिका -हिमतरू का जुलाई-2014 अंक शीतल पवन के झोंके की तरह आया है। यह शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्ताावेज तो है ही ,खासकर दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत युवा रचनाकारों को चिह्नित कर उन्हें उत्प्रेरित करने का एक महायज्ञ भी है। जिसकी खुशबू और आंच देर-सबेर हिन्दी साहित्य के गलियारों में बड़े धमक के साथ सुंघी व महसूस की जाएगी। ऐसा मुझे विश्वास  है।

         हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा । कुल्लू जैसी विषम परिस्थियां ,जहां का धरातल करैले की तरह उबड़-खाबड़ तो है ही अगर कुछ रचनाओं के स्वाद में कसैलापन लगे तो मुंह बिचकाने की जरूरत नहीं है। हिमतरू के इस“अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक”में  देश-विदेश के लगभग अड़सठ रचनाकारों की उनकी विभिन्न रचनाओं को प्रकाशित किया है। किशन श्रीमान के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका के इस अंक का अतिथि सम्पादन युवा कवि गणेश गनी ने किया है। इस अंक में रचनाकारों की वरिष्ठता क्रम को ध्यान में न रखकर उनकी रचनाओं को किसी भी पेज में स्थान दिया गया है। इसी अंक में मेरी एक कविता-

जूता

लिखा जाएगा जब भी
जूता का इतिहास
सम्भवतः,उसमें शामिल होगा कीचड़

और कीचड़ में सना पांव
बता पाना मुश्किल होगा
हो सकता किसी ने
रखा हो कीचड़ में पांव
और कीचड़ सूख कर
बन गया हो जूता सा
फिर देखा हो किसी ने कि
बनाया जा सकता है
पांव ढकने का एक पात्र
फिर बन पड़ा हो जूता
और तबसे उसकी मांग
सामाजिक हलकों से लेकर
राजनैतिक सूबे तक में
बनी हुई है लगातार
घर के चौखट से लेकर
युद्ध के मैदान तक
सुनी जा सकती है
उसकी चौकस आवाज
फिर तो उसके ऊपर गढे गये मुहावरे
लिखी गयी ढेर सारी कहानियां
और इब्नबतूता पहन के जूता
भी कम चर्चा में नहीं रही कविता
कितने देशों की यात्राओं में
शामिल रहा है ये
शुभ काम से लेकर
अशुभ कार्यो तक में
विगुल बजाता उठ खड़ा होता रहा है यह
और अब ये कि
वर्षों से पैरों तले दबी पीड़ा
दर्ज कराते ये
जनता के तने हुए हाथों में
तानाशाहों के थोबड़ों पर
अपनी भाषा,बोली और लिपि में
भन्नाते हुए......।

हिमतरू (मासिक) जुलाई-2014, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी
प्रधान सम्पादक-इन्दू पटियाल
इस अकं का मूल्य-101 रूपये
संपर्क सूत्र- 201, कचोट भवन,नजदीक मुख्यडाक घर,ढालपुर,कुल्लू हि0प्र0
मोबा0-09736500069, 09418063231

रविवार, 23 नवंबर 2014

पुस्तक समीक्षा - माफ करना हे पिता



   
            

दिनेश चन्द्र भट्ट गिरीश




         नैनीताल मुद्रण एवं प्रकाशन सहकारी समिति से प्रकाशित शंभु राणा की पुस्तक माफ करना हे पिता’ 36 व्यंग्यों का संग्रह है। संस्मरणात्मकता व्यंग्यों की प्रमुख विशेषता है। बहुत तल्ख अंदाज में सामाजिक विद्रुपताओं पर जबरदस्त ढंग से प्रहार किया गया है। समाज के जो आवरण समाज की सुन्दरता का आभास कराते हैं आवरण मुक्त होने पर स्थिति को घृणास्पद बना देते हैं। छद्म आदर्शों पर लेखक का रोष मुखर हो उठता है-‘‘........युद्ध के वास्तविक कारणों, जो कि अमूमन कुछ लोगों के अपने स्वार्थ होते हैं, पर तर्क संगत बात करें, वह गद्दार है। सामान्य दिनों में देश को अपनी माँ कहकर उसके साथ बलात्कार करने वाले अपनी माँ के खसम उन दिनों खूब भक्ति का दिखावा करते हैं।Þ

            हर युग में व्यवस्था के विरूद्ध अभिव्यक्ति व्यंग्यकार का काम्य है। व्यवस्थाएँ बदलती हैं विद्रूपताएँ नई-नई आकृतियाँ ग्रहण कर समाज को प्रभावित करती हैं। कबीर से लेकर वर्तमान तक व्यवस्थ्काओं पर व्यंग्यकार मुखर रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था जिसे एक संवेदनशील व्यक्ति समाज का आधार बताता आया है लेकिन हमारी व्यवस्था उसे किस ढंग से नेस्तनाबूत करने पर तुली हुई है। मध्याह्न भोजन व्यवस्था जिसके कारण शिक्षण पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है; इसकी बाननी देखिए-‘‘रेत में सर छिपा लेने से तूफान की ताकत कम नहीं होती...........। शिक्षा को तो साँस लेने की तरह स्वाभाविक होनी चाहिए। लानत भेजिए इस व्यवस्था को जहाँ शिक्षा देने और मछली फाँसने में फर्क न हो कि लालच देना पड़े, चारा डालना पड़े। आओ बच्चों, अ आ पढ़ो फिर हम तुम्हें भात देंगे अहा यम-म-म।Þ .................. इस स्यवस्था का तो मतलब हुआ कि बच्चा खा-पीकर संड मुसंड हो जाए, मानसिक विकास की जरूरत नहीं। 
 
            बेरोजगारी का दंश झेल रहे पढ़े लिखे नौजवानों पर लेखक पुनः व्यवस्था की असफलता तथा बेरोजगार नौजवानों की व्यथा को प्रस्तुत करता है। जहाँ भी बेरोजगार जाता है वहीं उसे अनचाही सलाओं का सामना करना पड़ता है। हमारी व्यवस्था के नीति निर्धारक उन्हें नौकरी न कर व्यवसाय करने की सलाह देते रहते हैं। वहीं पारिवारिक सदस्यों का स्वभाव भी उन्हें विचलित करने के लिए कम नहीं है। साथ ही साथ एन0जी00 वालों पर करारा प्रहार किया है कि लोगों को जागरूक करने का जिम्मा आम व्यक्ति का और मलाई खाने का हमारा-‘‘हाय रे सादगी से लिपटा कमीनापन, तू खुद विश्वभ्रमण कर और मैं अपने घर खाकर बाजार में दुकानदारों से मार खाऊँ और लिफाफे बनाऊँ।Þ पिता के रिटायर हो जाने पर बेरोजगार पर क्या असर होता है-‘‘उनकी चुप्पी बोलने से ज्यादा चुभती है......... और आज पिताजी ने अर्थपूर्ण ढंग से अपनी बात भी कह दी एक सूचना के रूप में कि आज से ठीक एक वर्ष बाद मैं रिटायर हो जाऊँगा।Þ जो व्यक्ति भी बोराजगारी के दौर से गुजरा हो वही जानता है कि यह अच्छा समय तो नहीं ही होता-‘‘आज एक लतीफे नुमा कहावत सुनने को मिली कि जब आदमी का समय विपरीत चल रहा हो तो ऊँट की सवारी करते हुए भी कुत्ता काट लेता है।........... हमारी पीढ़ी एक दुर्घटना का नतीजा है..... वर्ना हमारी ऐसी कुकुरगत नहीं होती।Þ

            पुस्तक की प्रतिनिधि व्यंग्य माफ करना हे पिता में पिता की मृत्यु के बाद उन्हें उनके गुणों एवं दोषों सहित याद किया गया है। भावुकता की बिल्कुल गुंजाईश नहीं है। अपने पिता को कहीं भी आदर्श न मानकर अच्छाई और बुराई का सम्मिश्रण ही माना गया। जबकि होता यह है कि मृत्यु के बाद पिता देव-सम ही हो जाते हैं लेकिन लेखक के लिए उनका रोल घटिया अभिनेता की तरह ही है-‘‘लेकिन मैं उन्हें एकदम ही पीता नहीं कहने जा रहा। इसलिये नहीं कि मेरे बाप लगते थे बल्कि इसलिए कि चाहे जो हो आदमी कुल मिलाकर कमीने नहीं थे।Þ पिता के साथ बिताए 36 वर्षों का संस्मरणात्मक व्यंग्य में लेखक के पिता सांख्यकी विभाग में चपरासी थे। संस्मरणों का सिलसिला देहरादून और अल्मोड़ा का है। माता हमेशा बीमार रहने वाली जिस कारण पिता को ही बच्चों का ख्याल रखना पड़ा था। माता की मृत्यु के एक वर्ष बाद पिता द्वारा किए गए पुनः विवाह लेखक के जीवन की एक जबरदस्त फँास थी जिसे वह कभी अपने पिता को क्षमा नहीं कर पाया। ‘‘इसके पीछे सबसे बड़ा कारण मुझे बताया गया कि मेरी देखभाल कौन करेगा!........ कारण शुद्ध रूप से शारीरिक था इतनी समझ मुझमें तब भी थी (बाकी आज भी नहीं)। पिता अपने नीजी, क्षणिक सुख के लिए शादी करना चाह रहे थे। ............ मैं उनकी इस हरकत (शादी) को कभी भी नहीं पचा पाया।Þ विमाता से भी चार सन्तानों का जन्म होता है। ‘‘उन्होंने सन्तति के रूप में अपनी अन्तिम रचना रिटायरमैण्ट के बाद प्रस्तुत की। गोया रिटायर कर दिए जाने से खुश न हो और अपनी रचनात्मक क्षमता साबित कर उन्हें सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया हो।Þ 

        रिटायरमैण्ट के बाद उन्हें लॉटरी के चस्के तथा लॉटरी का ज्ञाता होने का दर्प पिता हँसी के पात्र ही ज्यादा नजर आते हैं। रचना यत्र-तत्र हँस-हँसकर लोटपोट कर देने के साथ ही लेखक की आन्तरिक व्यथा, उसके एकाकीपन तथा अपने मित्रों पर बोझ बन जाने वाली स्थिति लेखक के प्रति संवेदना जगाती है। स्वप्न विश्लेषण के आधार पर नंबर बताने की सिद्धहस्तता की बानगी देखिए-‘‘सपने में अगर शादीशुदा औरत दिखे तो मतलब है कि आज जीरो खुलेगा, क्योंकि औरतें बिन्दी लगाती है। कुँवारी लड़की का नम्बर अलग बनता था और अगर प्रश्नकर्ता सपने में महिला के साथ कुछ ऐसी-वैसी हरकरत कर रहा हो उससे कुछ और नम्बर निकलता था।Þ
 
            सभी गुणों (कर्मठता, हुनरमंद, खिलाने-पिलाने के शौकीन आदि) एवं अवगुणों का समुच्चय माफ करना हे पिताव्यंग्य रचना लेखक के अनुसार-पिता जैसे थे मैंने ठीक वैसे ही कलम से पेंट कर दिए। न मैंने उनका मेकअप किया, न उनपर कीचड़ उछाला’- अक्षरशः सही साबित होता है।

            विवाह नामक संस्कार को भी बारीकी से देखने की जुर्रत लो साहब गुजर गये शादियों के भी दिन नामक व्यंग्य में की गई है। बाराती बनकर किया गया छिछोरापन परिणामस्वरूप पिटाई हो या दुल्हन की विदाई के समय रूलाई और उसी वीडियो को देखकर हँस-हँस कर दोहरी हो जाना या बैण्ड बाजे के साथ झुनझुना बजाने वाले की बेचारगी हो- ये सभी शादी के विविध रंग हैं जिनका चित्रण लेखक की पैनी नजर से कैसे बच सकते हैं। शादी के समय दुल्हा किसी संस्थान में अच्छे ओहदे पर स्थापित तथा लड़की कान्वेण्ट एजुकेटेड ही नजर आते हैं। समय बीतते-बीतते दूल्हा बेरोजगार तथा दुल्हन भी वैसी पढ़ी लिखी नहीं होती जैसे उसे बताया गया था। ‘‘तो साहब कुल मिलाकर आज तक न तो किसी को अपने ख्वाबों का हूबहू शहजादा मिला न शहजादी। ............. वैसे भी रील लाईफ और रियल लाईफ में धरती आसमान का अन्तर होता है ............ तो लड़कियाँ रोती हैं विदाई के समय तो ठीक ही रोती हैं और बाद में शादी की वीडियो की रिकार्डिंग देखते हुए हँसती हैं तो क्या बुरा करती हैं? Þ

     दो इकम दो ........ में अपने स्कूली दिनों की स्मृतियों से लबालब है कि किस प्रकार पढ़ाई की प्रक्रिया में यांत्रिकता तथा कतिपय शिक्षक-शिक्षिकाओं की फूहड़ता का संस्मरणात्मक चित्रण की बानगी देखए-‘‘एक दिन हेड टीचर जी ने दरवाजे से क्लास में झांका। अरे शीला सुन तो। शीला जी उनके पास गई-हाँ दीदी? हेड टीचर कहने लगी-हाय राम, मैं पेटीकोट उल्टा पहन लाई हूँ रे आज। क्या करूँ बतातो, सीधा पहन लूँ? शीला जी ने कहा-रहने दो दीदी कौन देख रहा है, घर जाकर पहन लेना। उन्हें बात पसंद आई, उल्टे से ही काम चला दिया।Þअध्ययन और अध्यापन का यथोचित सम्बन्ध सृजनात्मकता से है, जहाँ खानापूर्ति ही एक मात्र कार्य रह जाता है वहाँ यांत्रिकता और कृतिमता का आना स्वाभाविक है। तब शिक्षण सुचारू बनाने के लिए शारीरिक दंड ही अपनाये जाते रहे हैं। इस कारण शिक्षण प्रक्रिया एक बोझ बनकर ही रह जाती है। मार से बचने की नई-नई तकनीकें विद्यार्थी विकसित कर लेता है। ‘‘दिया हुआ काम बच्चे अगर न कर पाये तो उसे बिच्छू घास का जायका लेना पड़ता था या एक बड़ा सा पत्थर सर पर रखकर पीरियड भर धूप में खड़े रहना पड़ता था। ............... हमनें आत्मरक्षा के कुछ तरीके खोज लिए थे। मसलन वे गाल पकड़कर खींचे तो मुंह का सारा थूक खीचे जा रहे गाल की ओर शिफ्ट कर दो।Þ

            मनुष्य की आदम इच्छा रही है कि वह पूर्ण मर्द कहलाए। इसी लालसा को भड़काने और समग्रतः परितुष्ट कराने का दावा करने वाले दवा विक्रेता सड़क के किनारे मजमा लगाए हुए एक तथाकथित मर्द को हमेशा से आकर्षित करते आए हैं। मदारियों-दवाफरोशों का जमाना शीर्षक के अन्तर्गत लेखक ने दवा विक्रेताओं की विक्रय-शैली को व्यक्त किया है कि दवा से अधिक उनके डायलाग किस प्रकार आकर्षण के केन्द्र होते हैं। ‘‘बकौल उनके अक्सर भालू घास-लकड़ी को जंगल गयी महिलाओं पर क्यों झपटता है, क्योंकि वह शिलाजीत खाता है। कुछ मिलाकर वह चीज इतनी गर्म थी कि ग्रीन पीस वाले उन्हें बोलना सुन लेते तो पर्यावरण के नाम पर जरूर मुकदमा कर बैठते।Þ एक ही लक्ष्य और साधन कि किसी भी प्रकार स्वयं को सन्तुष्ट करने की अदम्य कामना का ईलाज-‘‘सभी दवाफरोशों की बातों का एक ही सार होता मानो औरत कोई अवैध निर्माण हो और पुरूष को चाहिए कि उसे ढहा दें।Þ सभी जानते हैं कि - दवाविक्रेता लोगों को ठग रहे हैं लेकिन आज उदारीकरण के नाम पर देश के करोड़ों का चूना लगाने वालों का तमाशा देखने के लिए देश अभिशाप है। करोड़ों का बजट अश्ली तमाशों में लिप्त हाइटैक तमाशागीर कब देश देश की छाती पर मॅूग दलते रहेंगे। ‘‘ इन बड़े मदारी जादूगरों का तमाशा, इस देश की जनता ने न जाने कब तक झेलने को अभिशाप है, जबकि इन छोटे सड़क छाप मदारियों की अब सिर्फ यादे ही बाकी रह गई हैÞ

      व्यंग्य संग्रह माफ करना है पिता लेखक की व्यावहारिक सोच का परिणाम है कि कथनी और करनी के बीच का फासला है उसी की उपज है यह व्यंग्य रचना। व्यंग्य रचना कागद लेखी से ज्यादा ऑखन देखि का परिणाम है। भाषा में चुटीलापन है जिस भाषा की अभिव्यक्ति में संकोच हो सकता है उसे बेखौफ होकर व्यक्त किया गया है। वही भाषा जो आम जन के बीच व्यवह्त होती है अगर सहन करना मुश्किल हो जाता है तो वह स्वाभाविक तौर पर फट पड़ती है। उदाहरणार्थ- ‘‘तो यार कभी -कभार किसी न किसी बहाने साम्प्रयादिक फसाद कर लिया करो। बहाने बहुतेरे हैं। भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच ही सही। क्योंकि हमें अपने बाप के मरने का उतना अफसोस नहीं होता जितना सचिन के 99 पर आउट हो जाने पर होता है। तो यारो दंगा-संगा टाइप का कुछ न कुछ होता रहना चाहिये शहर में ।Þ

          ‘‘इस देश के अधिकांश बुद्धिजीवियों की कोई भी समस्या तब तक टच नहीं करती जब तक खुद उनकी छाती पर घूंसा न पड़े। गीदड़ों के दरवार में फर्जी सलाम करने वाले शेर हैं ये सब।Þ नये-नये मुहावरों के प्रयोग जो लिखित स्वरूप में नहीं ही होते उनका उपयोग लेखक ने शिद्द्त से किया है- यथा खुला खेल फरूखाबादी, गोली देना आदि। स्थानीय शब्दों (चुतिया के, कुकुरगत्त, लौंडे लफाड़े, शिबौशिब आदि ) का प्रयोग करके भाषा की स्वाभाविकता को बड़ा दिया है व्यंग्य संग्रह की पठनीयता जबर्दस्त है। अन्ततः कहा जा सकता है कि रचना पठनीय एवं संग्रहणीय है।


रविवार, 16 नवंबर 2014

राहुल देव की कहानी:अनाहत



                                                                      राहुल देव
 संक्षिप्त परिचय

उ.प्र. के अवध क्षेत्र के महमूदाबाद कस्बे में 20 मार्च 1988 को का जन्म | शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ और बरेली कॉलेज, बरेली से |
साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण में रूचि | अभी तक एक कविता संग्रह तथा एक बाल उपन्यास प्रकाशित | पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/ लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि का प्रकाशन | इसके अतिरिक्त समकालीन साहित्यिक वार्षिकी ‘संवेदन’ में सहसंपादक | एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन |
वर्ष 2003 में उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री द्वारा हिंदी के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत, वर्ष 2005 में हिंदी सभा, सीतापुर द्वारा युवा कहानी लेखन पुरस्कार से तथा अखिल भारतीय वैचारिक क्रांति मंच, लखनऊ द्वारा वर्ष 2008 में विशिष्ट रचनाधर्मिता हेतु सम्मानित |
सम्प्रति उ.प्र. सरकार के एक विभाग में नौकरी के साथ साथ स्वतंत्र लेखन में प्रवृत्त |

कहानी:अनाहत

 
          “प्रशांत जी आपको मैनेजर साहब अपने कमरे में बुला रहे हैं |” चपरासी ने प्रशांत के केबिन का डोर खोलते हुए उससे कहा |
“क्यों ?”, प्रशांत ने न चाहते हुए भी पूछ लिया |
“पता नहीं”, चपरासी ने मुंह बिचकाकर कहा |
“ठीक है तुम चलो मैं आता हूँ |”, प्रशांत बोला |

           प्रशांत पिछले डेढ़ साल से शहर के इस निजी बैंक में सेल्स ऑफिसर की हैसियत से काम कर रहा था | काम ठीक-ठाक चल रहा था मगर अचानक आयी वैश्विक मंदी व बाज़ार में आयी गिरावट की वजह से पिछले तीन महीनों से उसके क्लाइंट्स उससे छूटते जा रहे थे | वह अपना टारगेट पूरा नहीं कर पा रहा था | चारों तरफ बेरोज़गारी का आलम था, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगातार अपने कर्मचारियों की छंटनी कर रहीं थीं | सामाजिक और आर्थिक संतुलन बिगड़ रहा था और ऐसे में लोगों की जेब से पैसे निकलवाना बहुत ही टेढ़ी खीर था |
          प्रशांत भी पिछले तीन महीनों से इन्हीं दबावों का सामना कर रहा था | प्रशांत जान रहा था कि हमेशा की तरह आज भी उसे बॉस की डांट का एक लम्बा डोज़ मिलने वाला है | हालाँकि वह यह भी जानता था कि उसका बॉस चीजों को समझने वाला एक अच्छा आदमी है | वह उसे तभी डांटता है जब खुद उसके ऊपर के अधिकारी उसके डंडा करते हैं | यों सोचते हुए थोड़ी देर बाद प्रशांत ब्राँच मैनेजर के केबिन में पहुंचा | जैसा कि उसने सोचा था ठीक वैसा ही था | मैनेजर का पारा गरम था | केबिन में घुसते ही वह प्रशांत पर बरस पड़ा-
          “मैं कई दिनों से तुम्हें देख रहा हूँ प्रशांत कि तुम्हारा ध्यान काम पर नहीं है | कहीं और ही खोए रहते हो तुम | याद है पिछले तीन महीनों से तुमने अपना टारगेट अचीव नहीं किया है !”
“सर....”, प्रशांत के कांपते हलक से सिर्फ इतना ही निकला |
“क्या सर-सर लगा रक्खा है यार, मैं कब तक तुम्हें बचाता रहूँगा | तुम्हीं बताओ पिछले तीन महीनों का तुम्हारा क्या आउटपुट है ? आखिर मुझे भी ऊपर जवाब देना पड़ता है |”, बॉस ने पानी का ग्लास हाथ में लेते हुए कहा, “जवाब दो मुझे मैं तुमसे पूछ रहा हूँ मिस्टर प्रशांत !”
“सॉरी सर मैं तीन महीनों का टारगेट इस महीने के आखिर तक पूरा करके दे दूंगा |”, प्रशांत ने एक साँस में कह दिया |  उसने क्या कह दिया है इस पर गौर करने के लिए उसके पास समय नहीं था | उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था शायद !
“ओके, ठीक है जाओ और अपने काम पर ध्यान दो |”, बॉस ने नार्मल होते हुए कहा |
            बॉस की डांट सुनने के बाद प्रशांत वापस अपने केबिन में आकर कुर्सी में धंस गया | वह अपने हाथों को अपनी बंद आँखों पर रखकर सोचने लगा | हालांकि मैनेजर के सामने उसने कह तो दिया था लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपना टारगेट कैसे पूरा करेगा ! उसकी नौकरी पर संकट के बादल मंडरा रहे थे | चारों ओर से लगातार बढ़ते जा रहे दबाव, चिंता और बेचैनी के बीच उसे अपना बीते हुए दिन याद आ रहे थे.....

           यहाँ-वहाँ पड़े हुए बगैर ढक्कन के पेन, पेंसिल की छिली हुई कतरनें और मेज पर बेतरतीब फैली हुई ढेरों किताबों और कापियों के बीच बैठा हुआ प्रशांत ज्योमेट्री के सवाल लगाने में व्यस्त था | उसे एक प्रश्न कुछ कठिन लग रहा था, वह बार-बार उस प्रश्न को हल करने की कोशिश करता पर उत्तर नहीं आ रहा था | तभी उसकी बहन बबली उसके लिए चाय लेकर आयी |
‘लो भईया गरमागरम चाय पियो’, बबली ने कहा |
‘नहीं बबली पहले मैं यह सवाल लगा लूँ तब चाय पियूँगा | तुम पी लो और अम्मा को भी दे दो’, प्रशांत ने शांत भाव से कहा |
             यह कहानी 20 मार्च 1999 की है जब प्रशांत इंटरमीडिएट का विद्यार्थी था | हाईस्कूल उसने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया था | उसके पिताजी एक कंपनी में साधारण वर्कर थे | लखनऊ में उनका अपना मकान था | परिवार में वह, उसकी एक बहन व उसके माता-पिता थे | प्रशांत शुरुआत से ही पढ़ने में बहुत होशियार था | हर बार परीक्षा में उसके सबसे अच्छे अंक आते थे | हाईस्कूल की परीक्षा उसने विज्ञान वर्ग से उत्तीर्ण की थी और आगे चलकर वह किसी नामी कंपनी में अधिकारी बनना चाहता था |
          प्रशांत के पिता बहुत कट्टर और सिद्धांतवादी थे | उनकी मर्ज़ी के खिलाफ घर में कोई काम नहीं होता था | उनकी इस आदत से घर के सभी सदस्य परेशान थे पर बेचारे मरते क्या न करते | उन्होंने जो भी तुगलकी फरमान एक बार सुना दिया वो सुना दिया फिर चाहे वह सही हो या गलत |
आज प्रशांत सुबह जल्दी ही नहा धोकर फ्रेश हो रहा था | बबली ने जब भाई को जल्दी तैयार होते देखा तो बोली, ‘भैया आज कहाँ जाने का इरादा है ? वैसे तो तुम जाड़े के दिनों में कभी इतनी जल्दी नहीं उठते फिर आज कैसे ? जरुर कोई बात है !’
‘नहीं बबली ऐसी कोई बात नहीं है |’
‘तो बात क्या हैं भैया कुछ बताओगे भी !’
‘दरअसल आज मेरे दोस्त के घर में न्यू इयर की पार्टी है इसलिए मुझे वहाँ जल्दी पहुंचना है |’
‘दोस्त या दोस्तिन’
‘ऐसा कुछ नहीं है बबली’
‘ओहो अब मैं समझी वैसे तो आप हफ़्तों नहीं नहाते थे और आज आपको ठंडे-ठंडे पानी से नहाते जाड़ा नहीं लगा ?’, बबली हँसते हुए बोली |
‘चुप कर कहीं अम्मा ने सुन लिया तो हजामत बना देगी |’, यूँ कहकर प्रशांत बाहर चला गया |
            प्रशांत के पेपर सिर पर थे इसलिए अब वह हर समय पढ़ाई में व्यस्त रहता था | उसकी बहन उसकी पढ़ाई में बहुत सहायता करती थी क्योंकि वह अपने भाई को बहुत प्यार करती थी | वह चाहती थी कि उसका भाई पढ़-लिखकर एक दिन बड़ा आदमी बने | वह प्रशांत के स्वास्थ्य का भी पूरा ख़याल रखती थी |
          कुछ दिनों बाद प्रशांत के पेपर प्रारंभ हो गए | पहला पेपर हिंदी का था | प्रशांत जल्दी-जल्दी तैयार होकर घर से निकला | पेपर सुबह की मीटिंग में था | प्रशांत रात भर पढ़ता रहा था इसलिए सुबह उसकी आँखें काफी सूजी हुई और लाल थीं |
          प्रशांत परीक्षा केंद्र पहुंचा | क्लासरूम खुल जाने पर सभी छात्र अपना-अपना रोल नंबर देखकर कक्षाओं में जाने लगे कि तभी चार-पांच लड़कियां डिस्प्ले बोर्ड की ओर आयीं और अपना-अपना रोल नंबर ढूँढने लगीं | शायद बहुत देर से उन्हें अपना रोल नंबर नहीं मिल रहा था | तभी पीछे से एक लड़की ने प्रशांत को पुकारा, ‘एक्सक्यूज मी ज़रा सुनिए !’
प्रशांत ने पीछे मुड़कर देखा | उस लड़की ने घबराते हुए जल्दी में कहा, ‘मेरा नाम अनुषा है ज़रा मेरा रोल नंबर ढूँढने में मेरी मदद करेंगे | मुझे मिल नहीं रहा है और पेपर शुरू होने में सिर्फ पांच मिनट शेष रह गए हैं |
प्रशांत ने उसे देखा, उसके चेहरे पर पसीने की बूँदें स्पष्ट रूप से झलक रहीं थीं | वह सफ़ेद रंग का सलवार सूट पहने हुए थी जिस पर पड़ा हुआ काला दुपट्टा उसके रूप की शोभा को और भी बढ़ा रहा था | उसने अपने घने काले बालों को कसकर चोटी बनाकर उसमे एक गुलाबी रंग का रिबन बांध रखा था |
           ‘प्लीज ज़रा जल्दी करिए’, अनुषा ने कहा |
शायद वह डर रही थी कि कहीं उसका पर्चा छूट न जाये | प्रशांत ने अपने होश सँभालते हुए उसके कांपते हाथों से उसका प्रवेश पत्र लिया और डिस्प्ले बोर्ड पर चस्पा लिस्ट में उसका नाम ढूँढने लगा | उसका रोल नंबर प्रशांत के रोल नंबर से कुछ ही अंक ज्यादा था | दोनों का रोल नंबर स्कूल के द्वितीय तल के कमरा नंबर 19 में था | अनुषा की सीट प्रशांत से तीसरे नंबर की लाइन में थी | वह चुपचाप जाकर अपनी सीट पर बैठ गयी | नियत समय पर बेल बजी और पेपर बंटने लगे पर प्रशांत की आँखों में वही सूरत याद आ रही थी हालाँकि अनुषा प्रशांत से पीछे की सीटों पर बैठी हुई थी परन्तु मुड़कर उसे दुबारा  देखने की सामर्थ्य प्रशांत में नहीं थी | उसे ऐसा लगा कि जैसे अनुषा मन ही मन उसे थैंक्स कह रही है |
             उस दिन प्रशांत ने जैसे-तैसे पेपर तो कर डाला था लेकिन घर आकर बार-बार उस लड़की की सूरत उसकी आँखों में आ जाती थी | वह सोच रहा था कि वह उसका नाम भी नहीं पूछ सका | शायद वह भूल गया था कि उसने अपना नाम उसके बगैर पूछे ही बता दिया था | प्रशांत सोच रहा था कि वह कौन है,कहाँ रहती है वगैरह वगैरह पर थोड़े ही दिनों बाद अपने कैरिअर का खयाल करके उसने उस लड़की के बारे में सोचना ही बंद कर दिया |
              समय बीतता गया और इन्टर का रिजल्ट भी निकल आया | प्रशांत ने पेपर में अपना रिजल्ट देखा तो वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था | वह आज बहुत खुश था और इस समय उसे अनायास ही वह लड़की याद आयी जो उसे पेपर के समय मिली थी | प्रशांत सोच रहा था कि पता नहीं वह पास हुई या नहीं, वह उसका रोल नंबर याद करने की कोशिश करने लगा | उसे उसका रोल नंबर याद आया, देखा तो वह भी पास थी | यह देखकर पता नहीं क्यों प्रशांत को बहुत आत्मिक संतोष का अनुभव हुआ |
              प्रशांत ने अब बीएससी में एडमिशन ले लिया था | अब वह यूनिवर्सिटी का छात्र था | इतने समय बाद भी प्रशांत के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था | उसके ज्यादा दोस्त नहीं थे, वह अब भी उसी सादगी के साथ रहता था और अपनी पढ़ाई में मन लगाता था | उसे अपने माता-पिता और अपने सपनों को साकार करना था और खासकर अपनी बहन जो कि उसे दिलोजान से चाहती थी | प्रशांत अपनी पढ़ाई पूरी करके जल्द से जल्द नौकरी पाना चाहता था और सोचता था कि वह अपनी बहन की शादी किसी अच्छे घर-परिवार में कर दे जहाँ उसकी बहन सुखी रहे |
धीरे-धीरे बीएससी प्रीवियस व सेकंड इयर पास करके वह फाइनल इयर में आ गया था, इस वर्ष प्रशांत काफी मेहनत कर रहा था |
              एक दिन प्रशांत कॉलेज के लॉन में बैठा हुआ कुछ सोच रहा था कि तभी उसकी नज़र सामने से आती हुई एक लड़की पर पड़ी | प्रशांत ने उसे देखा तो फिर देखता ही रह गया उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही लड़की है जो उसे इन्टर का पेपर देते समय मिली थी | प्रशांत को एक पल के लिए अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन वह अनुषा ही थी | आज वह हलके आसमानी रंग का सलवार सूट पहने हुई थी तथा उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में काजल की एक पतली सी रेखा थी जो कि उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रही थी | अब वह प्रशांत के और पास आती जा रही थी |
प्रशांत सोच रहा था कि इतने लम्बे अन्तराल के बाद क्या वह उसे पहचान पायेगी या नहीं पर उसका शक गलत था वह प्रशांत को पहचान गयी थी |
‘सर बीए प्रीवियस की क्लास कौन सी है’, उसने पूछा |
              उसके मुहं से सर शब्द सुनते ही प्रशांत भौचक्का रह गया उसने मन ही मन सोचा कि क्या यह भी यहीं पढ़ती है, पर इससे पहले तो इसे यहाँ पर कभी नहीं देखा | हड़बड़ी में कुछ संभलते हुए वह बोला, ‘नमस्ते...बैठिये !’
             वह वहीं पड़ी बेंच पर एक तरफ बैठ गयी | थोड़ी देर तक दोनों चुप बैठे रहे फिर अनुषा ने बात शुरू की- ‘सर आपका नाम प्रशांत है न ! मैं तो इस कैंपस में पहली बार आयीं हूँ | वैसे मुझे लगता है कि आप यहाँ पर बहुत फेमस हैं आज कई सहेलियों से आपकी काफी तारीफ सुनी |’
प्रशांत सोच रहा था कि काफी बातूनी लड़की है |
‘माफ़ करिए क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ’, उसने बात आगे बढ़ाने के लिहाज से पूछा |
‘मेरा नाम अनुषा है, मैंने आपको बताया था |’ अनुषा ने जवाब दिया |
‘हाँ शायद मैं भूल गया था | आपको याद है आप मेरे साथ दो साल पहले इन्टर का इग्जाम दे रहीं थीं |’, प्रशांत ने कहा |
‘हाँ अच्छी तरह याद है कि आपने ही उस दिन मेरा रोल नंबर ढूँढा था | नहीं तो मेरा पेपर छूट जाता और मैं फेल हो जाती |’ अनुषा ने कहा |
‘तो फिर आज आप यहाँ कैसे ?’ प्रशांत ने पूछा |
‘बहुत लम्बी कहानी है छोड़ो फिर कभी बताऊँगी’, उसने कहा |
प्रशांत के बार-बार जोर डालने पर अनुषा ने एक गहरी साँस ली और बताने लगी-
             ‘दरअसल मेरा इन्टर का पेपर हो जाने के बाद मैं छुट्टियों में अपने घर इलाहाबाद चली गयी थी | रिजल्ट निकला तो मैं पास थी | इसके बाद पापा ने मेरी पढ़ाई बंद करवा दी | हालांकि मैं और आगे पढ़ना चाहती थी पर पापा कहते कि पढ़-लिखकर क्या अफसर बनना है | उन्होंने कहा कि वह मेरी शादी कर देने वाले हैं फिर ससुराल में जो मन आये वो करना और फिर कौन सी लम्बी कमाई है हमारी | इन्टर तक पढ़ा दिया यही बहुत है |’
प्रशांत ध्यान से अनुषा की बातों को सुन रहा था | अनुषा ने आगे बताया-
‘मम्मी मुझे और पढ़ाना चाहती थी | इसी बीच मेरे लिए एक रिश्ता आ गया और मेरी शादी तय कर दी गयी | मैं इतनी छोटी उम्र में शादी नहीं करना चाहती थी लेकिन सिर्फ चाहने से ही हर चीज़ कहाँ होती है | देखते-देखते मेरी शादी की तारीख भी पक्की हो गयी और मेरी शादी हो गयी | कुछ दिनों बाद पता चला वह लड़का किसी और लड़की को चाहता था | यह शादी उसकी मर्ज़ी के खिलाफ हुई थी | धीरे-धीरे हम दोनों के बीच अक्सर छोटी-छोटी बातों को लेकर लड़ाईयां होने लगीं | मेरा पति मुझे रोज ताने मारता था और एक दिन....!’
बताते-बताते अनुषा चुप हो गयी |
‘आगे बताओ अनुषा’, प्रशांत ने सहानुभूति के साथ कहा |
‘और एक दिन उसने मुझे तलाक दे दिया | मैं अपने मायके चली आयी | अब मैं घर में किसी से नहीं बोलती थी | बस पूरा दिन चुपचाप अपने कमरे में गुमसुम सी बैठी रहती | मम्मी से मेरी यह हालत देखी नहीं गयी उन्होंने पापा से जिद करके मुझे मामा के यहाँ लखनऊ भेज दिया | मामा के यहाँ आकर मुझे कुछ अच्छा लगा और मैं धीरे-धीरे सब कुछ भूलने की कोशिश करने लगी | फिर मम्मी ने मेरी इच्छा को देखते हुए मेरा एडमिशन यहाँ करवा दिया | मैं अब मन लगाकर पढ़ना चाहती हूँ ताकि आगे अपने पैरों पर खड़ी हो सकूँ |’
इतना कहकर अनुषा चुप हो गयी |
‘बीए में कौन से विषय है आपके’, प्रशांत ने पूछा |
‘हिंदी, राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र’, अनुषा ने कहा |

            घर आकर प्रशांत ने अनुषा के विषय में सोचना प्रारंभ कर दिया | वह सोच रहा था कि कैसे माँ-बाप होते हैं जो अपने बच्चों का ज़रा भी ध्यान नहीं रखते उनके भविष्य के बारे में नहीं सोचते | अगर आज अनुषा ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली होती तो वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी | वह अनुषा के विषय में और भी बहुत कुछ जानना चाहता था क्योंकि अनुषा उसे बहुत अच्छी लगी थी और पहली बार उसने किसी लड़की से इतनी देर तक अन्तरंग बातें की थीं | धीरे-धीरे प्रशांत अनुषा के नजदीक आने लगा था और उसने अनुषा को अपने परिवार के बारे में भी काफी कुछ बता दिया था | अनुषा ने अब प्रशांत को सर कहना भी छोड़ दिया था | जब कभी भी अनुषा के मुहं से सर निकल जाता तो प्रशांत नाराज़ होकर चला जाता था |
               यूनिवर्सिटी कैंपस में वे दोनों बातें करते रहते, घूमते, पढ़ते और हँसते थे | शायद प्रशांत ने अनुषा के सारे ग़मों को भुला दिया था | यद्यपि प्रशांत और अनुषा की मंजिलें अलग-अलग थीं | कहाँ वह साइंस का छात्र और कहाँ वह कला वर्ग की छात्रा, लेकिन दोनों के विचार आपस में बहुत मिलते थे | प्रशांत और अनुषा की दोस्ती वक़्त के साथ और भी गहरी होती चली गयी |
          प्रशांत अनुषा को मन ही मन बहुत चाहने लगा था | अनुषा भी उसे पसंद करती थी लेकिन अभी तक उसने अनुषा से अपने दिल की बात नहीं कही थी | शाम को प्रशांत अपनी मेज पर पढ़ने बैठा तो उसके सामने अनुषा का मुस्कुराता हुआ चेहरा घूमने लगा | वह पढ़ाई छोड़ बिस्तर पर आ लेटा और करवटें बदलने लगा, उसे नींद भी नहीं आ रही थी क्योंकि अगले दिन कॉलेज में फेयरवेल पार्टी थी उसे डर था कि उसके बाद वह और अनुषा....! आखिरकार बड़ी हिम्मत कर उसने अनुषा के नाम एक प्रेमपत्र लिखने का निश्चय किया |
            अगले दिन कैंपस में फेयर वेल की पार्टी थी | सभी लड़के एवं लड़कियां आ जा रहे थे एवं कुछ तैयारी कर रहे थे पर प्रशांत आज उदास था | वह सोच रहा था कि जब पेपर हो जायेंगे तब वह और अनुषा कहाँ मिलेंगे | यही सब सोचकर प्रशांत का चेहरा मुरझाया हुआ था | तब तक पार्टी शुरू हो चुकी थी | फ्रेंड्स की रिक्वेस्ट पर अनुषा ने एक बड़ा सुन्दर सा गीत भी गाया....
‘करुँ सजदा एक खुदा को
पढूँ कलमा या मैं दुआ दूँ ,
दोनों हैं एक
खुदा और मुहब्बत !.... ‘
               उसकी मीठी आवाज़ में यह गीत सुनकर प्रशांत भाव विह्वल हो उठा | इसके बाद क्रम से सभी लोगों ने कुछ न कुछ परफॉर्म किया मगर प्रशांत के दिमाग में  केवल अनुषा के द्वारा गाये गए गाने की पंक्तियाँ ही गूँज रहीं थीं |
             पार्टी समाप्त होने के बाद प्रशांत और अनुषा घूमने निकल गए | प्रशांत सोच रहा था कि वह अनुषा से अपने दिल की बात डायरेक्ट कह दे | वह डर भी रहा था कि कहीं अनुषा उसे गलत न समझ बैठे | उसे लगा कि शायद अनुषा उसे अपना एक अच्छा दोस्त समझती है और कुछ नहीं | कहीं ऐसा न हो कि उसके प्रपोज करने पर वह शॉक्ड न हो जाए और फिर फलस्वरूप वह दुबारा टूट जाए | प्रशांत इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था कि अनुषा ने उससे कहा,
‘काफ़ी ?’
           प्रशांत ने स्वीकृति में अपना सिर हिलाया और वे दोनों एक रेस्तरां में बैठकर काफी पीने लगे | काफी देर तक दोनों शांत से बैठे रहे, कुछ देर बाद प्रशांत ने कहा,
‘कुछ बोलोगी...’
‘क्या बोलूं’, अनुषा ने मुस्कुराते हुए कहा |
‘अच्छा सुनो अनुषा आज हम दोनों के साथ का आखिरी दिन है फिर पेपर्स शुरू हो जायेंगे और फिर पता नहीं तुम कहाँ और मैं कहाँ |’
अनुषा उसकी बातें ध्यान से सुन रही थी |
‘अनुषा एक बात कहूँ बुरा तो नहीं मानोगी’, प्रशांत ने कहा
‘कहो’, अनुषा बोली
प्रशांत ने अपने आप को नियंत्रित करते हुए कहा-
‘अगले साल तुम्हे कॉलेज में कैसा लगेगा ?’
‘पता नहीं..’, मानो अनुषा ने आधे मन से कहा हो |
                    दरअसल प्रशांत कहना कुछ और चाहता था पर अपने संकोच और शर्मीले स्वभाव के कारण वह कुछ कह नहीं पाया | अनुषा ने प्रशांत को दो मिनट रुकने का इशारा किया और रेस्त्रा के काउंटर की तरफ चली गयी | उसकी कुर्सी पर उसका बैग पड़ा हुआ था | प्रशांत को पता नहीं अचानक क्या हुआ और उसने धड़कते दिल से रात में लिखा हुआ लवलेटर निकाला और जल्दी से अनुषा के बैग में से उसकी डायरी निकालकर उसमे रख दिया | कुछ देर बाद अनुषा वहाँ आ गयी, उसके हाथ में दो आइसक्रीम्स थीं | उसने एक आइसक्रीम प्रशांत को दी और दोनों आइसक्रीम खाने लगे | आइसक्रीम खा चुकने के बाद प्रशांत अनुषा को ऊँगली दिखाकर वाशरूम की तरफ चला गया |
              अनुषा कुछ सोच रही थी, मन ही मन वह भी उसे पसंद करती थी | दोनों को शायद एक दूसरे के इजहारे इश्क की पहल का इंतज़ार था | अचानक अनुषा को कुछ याद आया और उसने एक गुलाब का फूल अपने बैग से निकालकर प्रशांत के बैग से उसकी डायरी निकालकर उसमे रख दिया | थोड़ी देर में प्रशांत वापस आ गया और दोनों थोड़ी देर और टहलने के बाद अपने-अपने घर चले गए |
                जीवन का अर्थ उन्नति है उन्नति का मतलब हृदय का विस्तार है और हृदय का विस्तार तथा प्रेम एक ही वस्तु है अतएव प्रेम ही जीवन हुआ और वही एकमात्र जीवन गति का नियामक है | स्वार्थपरता ही मृत्यु है, जीवन रहने पर भी प्राणी को यह मृत्यु घेर लेती है और देहांत हो जाने पर यही स्वार्थपरता वास्तव में मृत्यु है | सामान्य प्रेमकथाओं में असामान्य भावनाओं का उद्रेग होता है | तमाम सामाजिक और पारिवारिक वर्जनाओं के नीचे अनुषा व प्रशांत के प्यार की भावनाएं आज दबी रह गयीं थीं |
              अनुषा पेपर्स होने के बाद अपने घर इलाहाबाद चली गयी थी और उधर प्रशांत भी अपने एक्जाम्स के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लग गया था | वह सोचता था कि हो सकता है कभी शायद अनुषा से उसकी मुलाकात हो जाए क्योंकि वह जानता था कि अनुषा कम से कम यहाँ बीए तक तो पढ़ेगी ही और वह कॉलेज जाकर उससे मिल लिया करेगा | वह यह भी सोचता कि क्या अनुषा ने उसका प्रेमपत्र पढ़ा होगा ?
धीरे-धीरे छुट्टियों के बाद कॉलेज भी खुल गए | प्रशांत अक्सर अनुषा से मिलने के लिए कॉलेज जाता था पर उसे कहीं भी अनुषा दिखाई नहीं देती थी | प्रशांत अपने मन को यह समझाकर संतोष कर लेता कि हो सकता है कि वह अभी घर से न आई हो | इसी तरह करते करते दिन, महीने, साल बीतते चले गए | कितनी बार पतझड़ हुआ और पेड़ों में नयी-नयी कोपलें मुस्कुरायीं, बौर फूला और झड़ गया | इसी बीच प्रशांत को एक ठीक-ठाक नौकरी भी मिल गयी | वह दिन भर ऑफिस में व्यस्त रहता और शाम को घर आकर सो जाता | इसी बीच अपनी उसने बहन की शादी भी कर दी थी | दिन भर की भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में वह तो जैसे अनुषा को भूल ही गया था | घर में प्रशांत के पिता चाहते थे कि वह जल्दी से जल्दी शादी कर ले ताकि उसकी माँ को कुछ आराम मिले |
              दूसरी तरफ अनुषा का जीवन था | वह अपने घर इलाहाबाद लौट गयी थी | उसके पिता ने उसकी दूसरी शादी तय कर दी थी | उसके मन में भी प्रशांत के प्रति प्रेम था परन्तु इन भावनाओं को समय पर व्यक्त करने में उसने स्वयं को असमर्थ पाया था |
             एक दिन अनुषा घर की साफ़-सफाई कर रही थी कि तभी अलमारी में उसकी नज़र अपनी डायरी से बाहर निकले हुए कागज़ पर पड़ी | उसके कागज़ को डायरी से बाहर निकालकर देखा तो वह प्रशांत का प्रेमपत्र था | उसने वह पत्र पढ़ना शुरू किया-
‘प्रिय अनुषा ! कैसी हो ?
             मैंने इससे पहले किसी को प्रेमपत्र नहीं लिखा इसलिए समझ में नहीं आ रहा है कि कहाँ से शुरू करूँ | आई लव यू वैरी मच ! शायद जब तुम मेरा पत्र पढ़ रही होगी तब तक हम दोनों बहुत दूर होंगे | क्या तुम्हे याद है कि सबसे पहले हम दोनों कैसे मिले थे ? मैंने तो जब तुम्हे पहली बार देखा तभी से पागलों की तरह तुम्हे देखता ही रह गया | यू अरे लुकिंग सो ब्यूटीफुल एट देट टाइम ! सचमुच मुझे तुमसे पहली नज़र में ही प्यार हो गया था |
             मैंने तब तुम्हे बड़ी गहराई से नोटिस किया था लेकिन मैं यह भी सोचता था कि क्या तुमने भी मुझे नोटिस किया होगा | कॉलेज में तुम जब मुझे देखकर मुस्कुराती थी तो मेरा मन मचलने लगता था | मैं उस समय तक काफी अंतर्मुखी स्वभाव का था इसीलिए लड़कियों से बातचीत करने में असहजता महसूस करता था | फिर उस समय इश्क, मोहब्बत जैसी बातें आई मीन टू से किसी को प्रपोज करना देटस लाइक वैरी अनकमफ़रटेबल एंड बिग थिंग फॉर मी ! तुम्हारे इशारे तो मैं ठीक-ठीक समझ भी न पाता था और मुझे इशारा करना भी नहीं आता था | यानी कि पूरी कहानी वनसाइडेड सी थी | उस समय की मेरी स्थिति मैं तुम्हे क्या बताऊँ मेरी रातों की नींद उड़ गयी थी क्योंकि सपनों में तुम होतीं थी पढ़ाई में मन कम लगता था क्योंकि किताबों में तुम होती थी, चीज़ें इधर-उधर रखकर भूल जाता था क्योंकि खयालों में तुम होती थीं, यानी की बस हर जगह तुम ही तुम | किसी शायर ने क्या खूब कहा है-
‘जहाँ के जर्रे-जर्रे में वो ही नज़र आये तुमको,
हकीकत में अगर तुमको किसी से प्यार हो जाए !’
           अनुषा हो सके तो लिखना कि उस समय तुम मेरे बारे में क्या सोचती थीं | शायद तुम्हे मेरी पहल का इंतज़ार था और मैं इस आस में था कि पहल तुम करोगी | इस उम्मीद में काफी दिन गुजर गए |
अनुषा क्या तुम अपनी दोस्ती के दिनों के इस विस्तृत वर्णन से बोर तो नहीं हो रही हो...ओके अनुषा, तुम्हे याद है जब मुझे कॉलेज में देखकर तुम हैरान हुई थीं और मैं खुश ! समय बीतता गया और पता ही न चला कि कब हमारी तुम्हारी दोस्ती हो गयी |
                 अनुषा मैं तुम्हे सच्चा प्यार करता था, करता हूँ और करता रहूँगा | (मैं जानता हूँ कि ये बहुत घिसीपिटी लाइनें हैं जिन्हें पढ़कर तुम्हे मेरे ऊपर हंसी आ रही होगी...) सचमुच प्यार के ये अंदाज़ कैसे निराले होते हैं न | आई थिंक लव इज ए डिवाइन थिंग, जीवन में जिसने प्यार नहीं किया उसने कुछ नहीं किया | प्यार शरीर का नहीं प्यार तप आत्मा का होता है और जब आत्मा से आत्मा का मिलन हो जाता है तो शरीर की भूमिका उसमें नगण्य हो जाती है |
            अनुषा ! तुम तो मुझे जानती हो, मैं बहुत बोलता हूँ न, लेकिन मैं क्या करूँ | तुमसे बातें शुरू करता हूँ तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेतीं | मैं अपने कॉलेज के दिनों को बहुत मिस करूँगा | समाज की कुछ घिसीपिटी विडम्बनाएँ ही शायद मेरे और तुम्हारे डर का कारण हैं | संस्कृति और सभ्यता का झूठा आवरण मुझसे अब और नहीं ओढ़ा जाता, मेरा तो दम घुटता है इस माहौल में !
              अनुषा, लोग कहते हैं कि प्यार में बड़ी ताकत होती है | अगर हम दोनों का प्यार सच्चा है तो वह अपनी मंजिलें खुद तलाश लेगा |
अनुषा शायद मैं भावनाओं में कुछ ज्यादा ही बह रहा हूँ पर मेरे कारण तुम बिलकुल भी परेशान मत होना | सच बात तो यह है कि मुझे लव लैटर लिखना ही नहीं आता | बात कहाँ पर शुरू की थी और कहाँ पर ख़त्म कर रहा हूँ | हो सके तो तुम जवाब जरूर देना, शायद मैं तुमसे कुछ सीख सकूँ और हाँ मेरी एक बात हमेशा याद रखना | ऑलवेज थिंक पॉजिटिव ! मंजिलें और भी हैं रास्ते भी हैं कारवां छूटा तो क्या राही, हम अपने दम पे नया कारवां बनायेंगे, जलने वाले जलते रहेंगे और प्यार करने वाले हमेशा प्यार करते जायेंगे | फिलहाल इतना ही शेष फिर कभी, तुम्हारा- प्रशांत’
पत्र ख़त्म हो चुका था | अनुषा की आँखें आंसुओं से भीगी हुई थीं उसे यह अंदाज़ा न था कि प्रशांत उसे इस कदर प्यार करता था | उसे प्रशांत पर गुस्सा आ रहा था कि उसने समय रहते उससे अपने मन की बात क्यों नहीं कही | साथ ही उसे अपने आप पर भी क्रोध आ रहा था कि उसने इतने समय बाद अपनी डायरी खोलकर क्यों देखी जिसमे प्रशांत का प्रेमपत्र रखा हुआ था |
        और दूसरी तरफ प्रशांत था जो अपने जीवन की आपाधापी में कहीं खो गया था |

             “सर घर जाइए ऑफिस बंद करना है |”, चपरासी की आवाज़ सुनकर प्रशांत ने अपनी आँखें खोलीं तो देखा ऑफिस बंद होने का टाइम हो चुका था | उसने अपने आपको व्यवस्थित करते हुए अपना बैग उठाया और बोझिल क़दमों से घर की ओर चल पड़ा | इधर पिछले तीन महीनों से पता नहीं उसे क्या हो गया था | क्लाइंट्स छूटते चले जाने की वजह से वह अपने तयशुदा टारगेट से बहुत पीछे चल रहा था और जिसकी वजह से आज ऑफिस में उसके बॉस ने उसे डांटा था | घर आकर उसने चुपचाप खाना खाया और सो गया |
               सुबह प्रशांत ने कुछ जरूरी कागज़ात निकालने के लिए अपनी अलमारी खोली | अचानक उसकी वही डायरी जमीन पर गिर गयी जिसने अनुषा ने गुलाब का फूल रखा था और उसकी सारी पंखुडियां जमीन पर बिखर गयीं | प्रशांत ने नीचे देखा तो उसे लगा कि जैसे एक पल के लिए उसकी वही पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं हों | वही अनुषा, वही कॉलेज लाइफ, घूमना, हँसना सब कुछ उसे याद आने लगा | अनुषा की यादों ने प्रशांत के हृदय को झकझोर डाला | उसके मस्तिष्क में फिर से कई प्रश्न उभरने लगे- कहाँ होगी अनुषा ? किस हाल में होगी वह ?? क्या उसकी दुबारा शादी हो गयी होगी या वह उसका इंतज़ार कर रही होगी ???
                  एक क्षण के लिए वह समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करे ! प्रशांत ने धीरे से डायरी उठाई और फूलों की पंखुड़ियों को बीनकर डायरी के उस पृष्ठ को खोला जिसमे वह फूल रखा था | उसकी आँखें नम थीं | वह आज अपने आप में पछता रहा था | वह सोच रहा था कि काश अगर उसने अपने प्यार का इज़हार कर दिया होता तो अनुषा आज उसकी होती | अनुषा को उसके जीवन के सफ़र में उसने अकेला ही छोड़ दिया | आखिर किस के सहारे जी रही होगी वह ? जीवन में उसे एक ही तो सच्चा साथी मिला था अगर वह उसके भी काम न आ सका तो उसका जीवन व्यर्थ है |
प्रशांत को ऑफिस की देर हो रही थी इसका उसे पता न था | वह तो अपनी बीती यादों में गम हुआ जा रहा था | एक प्रश्न बार-बार उसके मस्तिष्क में गूँज रहा था कि क्या अनुषा वापस लौट आएगी उसकी दुनिया में ! शायद उसे आज भी उसका इंतज़ार था | उसकी ज़िन्दगी के ख्वाब भी गुलाब की पंखुड़ियों की तरह बिखर गए थे |




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