रविवार, 27 जुलाई 2014

राहुल देव की कहानी : मायापुरी







                               राहुल देव

संक्षिप्त परिचय 

    उ.प्र. के अवध क्षेत्र के महमूदाबाद कस्बे में 20 मार्च 1988 को का जन्म | शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ और बरेली कॉलेज, बरेली से |साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण में रूचि | अभी तक एक कविता संग्रह तथा एक बाल उपन्यास प्रकाशित | पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/ लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि का प्रकाशन | इसके अतिरिक्त समकालीन साहित्यिक वार्षिकी ‘संवेदन’ में सहसंपादक |
 
     वर्ष 2003 में उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री द्वारा हिंदी के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत, वर्ष 2005 में हिंदी सभा, सीतापुर द्वारा युवा कहानी लेखन पुरस्कार से तथा अखिल भारतीय वैचारिक क्रांति मंच, लखनऊ द्वारा वर्ष 2008 में विशिष्ट रचनाधर्मिता हेतु सम्मानित |
सम्प्रति उ.प्र. सरकार के एक विभाग में नौकरी के साथ साथ स्वतंत्र लेखन में प्रवृत्त |


 



राहुल देव की कहानी : मायापुरी

           भीषण गर्मी पड़ रही थी मानो साक्षात सूर्यदेव धरती पर उतर आये हों, सर्वत्र कोलाहल, आते-जाते लोग, फेरी वाले, रिक्शे वाले, सर्वत्र चिल्लपों की आवाज़े मन को आहत करती अशांति का सन्देश दे रहीं थीं | पहली बार मैं मुंबई आया | देश का नंबर वन महानगर मुंबई | अंदेशा न था मेरी आँखें इतनी भीड़ इतनी व्यस्तता देखेंगी | उत्तर-प्रदेश के एक छोटे से शहर सीतापुर से आया हुआ मैं यही सोचता था | कल्पना से अधिक पा आश्चर्य में पडूँ या कि स्वयं को सुरक्षित करने हेतु ठिकाना तलाशूँ |

              वी.टी. स्टेशन से बाहर मैं अपनी स्वाभाविक उत्सुकता लिए चल पड़ा | ताकता हुआ गगनचुम्बी इमारतों को...! पहली बार इतनी ऊँची इमारतें देखी थी | हाँ लखनऊ जरूर गया था | अरे ! अपनी राजधानी, नवाबों की नगरी परन्तु वहां की इमारते यहाँ से आधी ही थीं | ऐसा अनुमान लगाता मैं चल पड़ा | बड़ी दिली इच्छा थी मुंबई घूमने की | लेकिन इतनी बड़ी मुंबई, कैसे संभव होता | निश्चय ही मैं पछताता या कि खुश होता | कई कारण ऐसे भी थे, देश की औद्योगिक राजधानी, भारत के प्रवेश द्वार मुंबई की बड़ी-बड़ी व्यस्त सड़कों पर चलता मैं विचार करता था | यहाँ की सड़कें भी मेरे यहाँ से ज्यादा नहीं तो चार-पांच गुनी चौड़ी तो थी हीं जिन पर छोटी-बड़ी गाड़ियाँ द्रुत गति से फिसल रहीं थी | बड़ी लूटमार होती है यहाँ पर और वो भी दिन दहाड़े, सबकुछ छीन लेते हैं आदि-आदि | कई बातें लोगों के मुख से सुन रक्खी थीं | शुरू से ही मुझमे उठल्लूपन की प्रवृत्ति थी, घुमक्कड़शास्त्र जो पढ़ा था | प्रथम न सही द्वितीय या तृतीय श्रेणी का घुमक्कड़ तो बन ही जाऊंगा | दृढ निश्चय मेरे चेहरे से झलक रहा था | आज वह दिन आ ही गया | यात्रा सफल रही तो क्या ही कहने | मसाला लगा-लगाकर सबको बताऊंगा, लौट करके |

                  मैं बहुत सावधान रहा अपने सफ़र में | थैंक गॉड ! अभी तक कुछ वैसा नहीं हुआ | यात्रा का साधन वही इंडियन होने की पहचान, यात्रियों की शान रेलवे की ढुलमुल व्यवस्था, पैसेंजर ट्रेन | यात्रा के दौरान दो बार तो इंजन फेल हुआ, बमुश्किल किसी तरह यात्रा पूरी कर अपनी गंतव्य तक पहुँच ही गया | भीड़ में सभी इधर-उधर जा रहे थे | मैं एक ओर किनारे पड़ी बेंच पर बैठ गया | थकान थी और फिर इतनी लम्बी यात्रा करने के बाद कौन नहीं थकता | कुल जमा पूँजी पांच हजार रुपये लेकर चला था | एक हज़ार तो कब खर्च हो गये पता ही न चला | अब शेष पैसों से ही सब-कुछ करना है | वापस भी लौटना है, मेरा शरीर विश्राम चाहता था मगर मन सजग था |


               लोग इधर-उधर टहल रहे थे | गर्मी से निजात पाने के लिए या फिर सेहत के लिए ! हमेशा ऐसा करते हों ये मुझे पता नहीं | अर्धनग्न लोगों को देखकर मुझे शर्म आती थी | शायद ये इनकी आदत हो, खैर मुझे क्या | हंसी आती, ठहर जाती | पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव यहाँ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता था |


                           मैं आराम से एक खाली पड़ी बेंच पर पसर गया | सोचा, थोड़ा विश्राम कर लूँ फिर देखा जायेगा | ज्यादा समय नही हुआ था मुझे ऐसा लगा कि जैसे कोई मेरे पैरों के पास बैठा है | मैंने अचकचाकर तुरंत अपनी आँखें खोलीं और उठ बैठा | वे निर्लिप्त भाव से मुझे देखने लगे और मैं उन्हें | मौनता भंग हुई | वे बोले-“क्या नए हो? कैसे कपड़े पहने हो, वो भी ऐसी गर्मी में, कहाँ से आये हो ?” आदि-आदि |


            मुझे हीनता सी लगी | अपनी लघुता को छिपाकर उनसे कहा-“ठीक समझा आपने, मैं बाहरी व्यक्ति हूँ बस यात्रा का खुमार उतार रहा था |”


                        वे मुझे सज्जन लगे इसलिए उन्हें पूरी कहानी बता दी | लगभग 40-45 साल के उन सज्जन की बातों में मुझे बहुत मानवीयता,भावनात्मकता दिखाई दी | उन्होंने कहा,”बेटा ! ये मुंबई है, बहुत संभलकर रहना क्योंकि यहाँ अच्छे कम बुरे लोग ज्यादा हैं |”
मैंने जोश में आकर कहा,”अरे ! आप चिंता न करें, मैं इतना मूर्ख भी नहीं हूँ | ये देखिये, पैसे मैंने अपने मोजों में छिपाकर रखे हैं और एक छोटा सा झोला जिसमे कुछ कपड़े-लत्ते व अन्य सामान है, अब कौन जानेगा कि इस समय मेरे पास चार हज़ार नकद होंगे |”


                      वे बोले, ”बेटा ! तुम बहुत भोले मालूम होते हो | अरे यहाँ के लोग तो शक्ल देखते ही पहचान लेते हैं कि कौन बाहरी है और कौन यहीं का | मेरी सलाह मानो तो किसी सुरक्षित स्थान कोई कमरा, होटल वगैरह में ठहर जाओ या कोई परिचित हो तो.....|”
उनकी निश्चल वाणी में जैसे जादू था |
“आप जैसा मित्र पाकर मैं अकेला कहाँ रहा ?”, भावावेश में मैं यह कह बैठा |
                   वे बोले,”कोई बात नहीं, यहीं पास में मेरे एक मित्र रहते हैं, मैं तुम्हे कुछ दिन के लिए वहीँ ठहरा दूंगा | कोई चिंता न करना ईश्वर तुम्हारी मदद करेगा |”
                 उन्होंने फिर कहा,”अच्छा, तुम बहुत भूखे भी होगे |”


“नहीं-नहीं मैंने तो भोजन ट्रेन में ही कर लिया था बस मैं थोड़ा विश्राम करने के बाद घूमना चाहता था | लेकिन कोई पथप्रदर्शक भी तो होना चाहिए नहीं तो क्या पता कि मैं कहाँ पहुँच जाऊं |” मैंने उनसे कहा |
कुछ ही मिनटों में मै उनसे गहराई से जुड़ गया था | आखिर ऐसी भीड़ में कौन होता जो मेरी मदद करता | वो मुझे बड़े सहृदय व्यक्ति लगे और मैं आश्चर्यजनक रूप से उनसे भावनात्मक दोस्ती गाँठ बैठा | उनकी बातचीत में पता नहीं ऐसा क्या था जिसका स्पर्शमात्र मुझको आनंदित कर गया और मैं उन्हें अपना सच्चा हितैषी समझ बैठा | वे मुझे टहलाने के लिए इधर-उधर ले गये | उन्होंने मुझे गेटवे ऑफ़ इंडिया दिखाया | मैं आह्लादित था भारत के इस गौरव पर ! कुछ शांति मिली ह्रदय को | यहाँ पर पर्यटकों का जमावड़ा था | मेरे पास कैमरा न था फिर भी स्थानीय फोटोग्राफर से एक फोटो खिंचवायी और आगे चल पड़ा |


                  रास्ते में हम दोनों बतियाते रहे | परिचय हो चुका था | उनका नाम था श्याम नारायण दूबे | वास्तव में मुझे हार्दिक खुशी थी | सोचा शायद अपना देश ऐसे ही कुछ व्यक्तियों से महान है | लगभग एक घंटे बाद हमने टैक्सी की और एक शानदार पार्क में पहुँच गये | दूबे जी के साथ मैं उतरा लेकिन जब टैक्सी का किराया उन्होंने चुकता किया तो मुझे उनकी सहृदयता तथा विशालता का परिचय पूर्णरूप से मिल गया | वरना इस युग में सभी अपनी-अपनी जेबों की चिंता करते हैं | मैंने बहुत आग्रह किया लेकिन वे न माने | मैंने सोचा कि कहीं वे मुझे एकदम टंच न समझ लें इसलिए खुद आगे बढ़कर पार्क का प्रवेश टोकन लिया | वे मुझे देखते रहे अपलक | मुझे उनमें एक अपनापन सा नज़र आया |


              उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि वे देहरादून के मूल निवासी थे | बच्चे यहाँ शिफ्ट हो गये तो सोचा वे भी यहीं आ जाएँ | लेकिन यहाँ की भागमभाग उफ़..!! दूबे जी शायद अपने एकाकी जीवन से कुछ परेशान से थे, उनकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो चुका था | मैंने उन्हें सांत्वना दी |
यूं चलते-चलते हम पार्क की मखमली हरी घास पर बैठ गये | दूबे जी ने माहौल बदलते हुए कहा-“अरे भई, यूँ ही बातें करते रहेंगे या कुछ खायेंगे,पियेंगे भी | बड़ी भूख लग आई है मुझे तो | क्या आपको नहीं लगी ?”
मैंने कहा,”हाँ लगी तो है मगर कुछ ख़ास नहीं |”


दूबे जी हँसते हुए उठ बैठे, तुम बस दो मिनट ठहरो | मैं अभी आया | वे ऊँगली दिखाकर एक तरफ चले गये | मैं मुस्कुराया और इधर-उधर के नज़ारे लेने लगा, अपने उद्देश्य के बारे मैं सोचने लगा |
लगभग दस मिनट बाद दूबे जी प्रगट हुए | उनके दोनों हाथ भरे हुए थे | मैं बोला,”आप मेरे लिए इतना कष्ट क्यों उठाते हैं, कहा होता तो मैं भी साथ चलता |”


                 दूबे जी मुस्कुराते हुए बोल उठे, ”खैर छोड़ो चलो उधर एकांत में चलकर आराम से खाते-पीते हैं | फिर मैं आपको यहाँ के समुद्री तट पर ले चलूँगा |”


              उनका सरल स्वभाव उनके चेहरे से परिलक्षित होता था | मैं सहज भाव से उनके साथ चल दिया, एकांत में | दोने खोले गये, बढ़िया खाना था | मैं संकोच कर रहा था तो बिगड़ पड़े वे-“अरे यार ! अब झिझक छोड़ो भी |” यह कहकर उन्होंने मेरे पात्र में बहुत सारा खाना उड़ेल दिया | भूख तो लगी ही थी सो जम के खाया | फिर मैं पास के नल से पानी पीने चला गया | लौट के आया तो देखा दो कप गर्मागर्म कॉफ़ी भी दूबे जी पता नहीं कहाँ से ले आये थे | हमने चाय तो बहुत पी थी मगर कॉफ़ी कभी-कभार शादी-वादी में ही पी पाते थे | कॉफ़ी पीने के मोह को मैं छोड़ न सका, उन्होंने एक कप मुझे थमाया और दूसरे से खुद पीने लगे | खान-पान से निवृत्त हो हम कुछ देर वहीँ बैठे रहे | सांझ ढल रही थी, मंद-मंद बयार चल रही थी |


            मुझे मेरे गाँव की याद आ रही थी | लोगों की संख्या भी धीरे-धीरे कम हो रही थी | मुझे हलकी सी मदहोशी सी महसूस हुई | मैंने उनसे चलने को कहा तो वे बोले, ”यहाँ दिन और रात में कोई फर्क नहीं है फिर घर पास में ही है | थोड़ी देर बाद चलते हैं |”


                       मैं ज्यादा जोर न दे सका | नींद मुझपर बहुत तेजी से हावी होती जा रही थी | ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं किसी बासित उपवन में विचरण कर रहा होऊं | मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था | विश्रांत मस्तिष्क किसी शांति भवन में टिकने के लिए व्यग्र था | हृदय बोझिल हो रहा था | मेरा सम्पूर्ण शरीर सुप्तावस्था के आगोश में न चाहते हुए भी चला गया | मुझे कुछ पता ही न चला, मैं अचेत हो गया |

                      अगले दिन मैंने खुद को एक अस्पताल में पाया | मैं ठगा रह गया | मैंने हड़बड़ाहट में अपनी जेबें टटोलीं | अरे ! यह क्या, मेरे पैसे ! उफ़ लूट लिया गया मैं | दूबे जी !! मेरा माथा ठनका | हाँ वे दूबे जी ही थे | यह कैसा प्रलम्भन ! मेरे पास तो वापस लौटने के लिए टिकट भर के पैसे भी न थे | पैसे तो पैसे मेरा झोला तक नहीं था | मैं परेशान हो गया, पछता रहा था अपनी मूढ़ता पर कि क्यों और कैसे मैंने उनसे दोस्ती की | हाय ! उनके जाल में फंस ही गया | लोग सच ही कहते थे कि यह मुंबई है |


               मैंने पूरी बात डॉक्टर्स को बताई तो उन्होंने किसी तरह मेरे किराये की व्यवस्था की और मैं चल पड़ा | वी.टी. स्टेशन के बाहर फिर से खड़ा, मैं सोचता था- वाह रे मुंबई ! तेरा जवाब नहीं | तुझे पहचान गया, यही अनुभव सही |


                    मैं दूबे जी के द्वारा भावनात्मक और आर्थिक दोनों रूप से ठगा गया था | कॉफ़ी मेरे लिए काफी सिद्ध हुई और शायद उसी बीच महाशय अपना काम कर गये | सरल चेहरे के भीतर बैठी चालाकी को मैं भांप न सका | ये मेरी अनुभवहीनता या कहें मूढ़ता ही थी | मैं पहले से ज्यादा थका महसूस कर रहा था | बार-बार दूबे जी का चेहरा भीड़ में तलाशता, अगर मिल जाते तो मैं उन्हें कच्चा चबा जाता | पुलिस में रिपोर्ट करने से भी कोई फायदा होने से रहा और तमाम तरह के पचड़े | मेरा मन खिन्न था | आखिरकार मैंने लौटने की ठानी |


       बड़े जतन से मुंबई आया था और कैसी विडंबना बड़े जतन से जाता हूँ | यह तिक्त अनुभव मुझे जीवनपर्यंत याद रहेगा | यहाँ के लोग भी कितने विचित्र हैं, जीवन आगे कैसे बढ़ता होगा | बड़ी जीवटता है यहाँ, मैंने सोचा, लेकिन जीवन चलता जा रहा था | समय का तूर्य बज चुका था | मेरी धारणा बदल चुकी थी, मैं संतुष्ट हो गया था | एक प्रतीक लेकर लौट रहा था अपने देश, अपने उत्सृष्ट कस्बे को | कोई शिकन नहीं, एक चोट सालती/ टालती, कोई चिन्ह भी नहीं !


           मानस पटल पर परिदृश्य घूम जाता, चित्त में अनवरत द्वंद चलता | आदमी का ऐसा छद्म रूप मैंने पहली बार देखा | साक्षात महसूस किया था | छोड़ यार ! मैंने बहाना बनाते हुए करवट ली, उठ बैठा | ट्रेन द्रुत गति से भागती चली ज़ा रही थी | मैंने खिड़की से बाहर झाँका, विस्तृत भूमि भारत के विस्तार का जयगान करती मुस्कुरा रही थी | अभी मैं महाराष्ट्र की सीमा में ही था | कोई हौंस शेष नहीं रही | मैंने देखा प्रतिदिन एक नयी प्रत्यूषा की वाहक मायानगरी मुंबई अपने उसी वेग से गतिशील थी | अनायास दिखी मुझे अपने आप में विलीन वही भीड़, वही कोलाहल, वही चिल्लपों...!!


-राहुल देव
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र.) 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

5 टिप्‍पणियां:

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