09 अक्टूबर 1964 जांजगीर छत्तीसगढ़
दो उपन्यास, तीन कथा संग्रह और एक कविता संग्रह प्रकाशित
संकेत नामक लघुपत्रिका का सम्पादन
कोल इण्डिया लिमिटेड की एक भूमिगत खदान में
वरिष्ठ खान प्रबंधक
अनवर सुहैल की कविताएं
1.
घटनाएं
हो किसी और जगह
कुछ भी गड़बड़
हमें तनाव नहीं होता
बल्कि हम ये तक कह देते हैं
कि सरकार और मीडिया
दोनों बोल रहे झूठ
मरने वालों के आंकड़े
क्या इतने कम होंगे?
यदि ऐसा ही कुछ घटे
अपने साथ
या अपनों के साथ
तब समझ आता
आटे-दाल का भाव!
2.
स्मार्ट बच्चे
हमें कुंद बच्चे पसंद नहीं
हमें चाहिए स्मार्ट बच्चे
जो हों सिर्फ अपने घर में
बाकी सारे बच्चे हों भांेदू
बच्चों को बना दिया हमने
अंक जुटाने की मशीन
सौ में सौ पाने के लिए
जुटे रहते हैं बच्चे
मां-बाप के अधूरे सपनों को
पूरा करने के चक्कर में
बच्चे कहां रह पाते हैं बच्चे!
वज़नदार किताबों के
दस प्वाइंट के अक्षरों से जूझते बच्चों को
इसीलिए लग जाता चश्मा
होता अक्सर सिर-दर्द!
बच्चे नहीं जानते
उन्हें क्या बनना है
मां-बाप, रिश्तेदार और पड़ोसी
दो ही विकल्प तो देते हैं
इंजीनियर या डॉक्टर
बच्चा सोचता है
सभी बन जाएंगे इंजीनियर और डॉक्टर
तो फिर कौन बनेगा शिक्षक,
गायक, चित्रकार या वैज्ञानिक
बच्चे चाहते ऊधम मचाना
लस्त हो जाने तक खेलना
चाहते कार्टून देखना
या फिर सुबह देर तक सोना
बच्चे नहीं चाहते जाना स्कूल
नहीं चाहते पढ़ना ट्यूशन
नहीं चाहते होमवर्क करना
तथाकथित स्मार्ट बच्चों ने
नहाया नहीं कभी झरने के नीचे
( इसमें रिस्क जो है )
तालाब किनारे कीचड़ में
लोटे नहीं स्मार्ट बच्चे
अमरूद चोरी कर खाने का
इन्हें अनुभव नहीं
स्मार्ट बच्चे सिर्फ पढ़ा करते हैं
स्मार्ट बच्चे गली-मुहल्ले में नहीं दिखा करते
स्मार्ट बच्चे टीचरों के दुलारे होते हैं
स्मार्ट बच्चों पर सभी गर्व करते हैं
शिक्षक, माता-पिता और नगरवासी!
बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती स्मार्ट बच्चों को
वही बच्चे जब बनते ओहदेदार
ओढ़ लेते लबादा देवत्व का
नहीं रह पाते आम आदमी
इस बाज़ारू-समाज में भला
कौन आम-आदमी बनने का विकल्प चुने?
कौन असुविधाओं को गले लगाए?
3.
बाज़ार
बाज़ार अब वहां नहीं होता
जहां सजती हैं दुकानें
रहते हैं क्रेता-विक्रेता
आज घर-घर सजी दुकानें
फेरीवालों, अख़बारों के
टीवी, इंटरनेट के
मोबाईल फोन के ज़रिए
बाज़ार घुसा चला आया
सबके दिलो-दिमाग़ में भी!
4.
अनुपयोगी
जिस तरह स्टोर में पड़ा
वाल्व वाला भारी-भरकम रेडियो
श्वेत-श्याम पोर्टेबल टीवी
उसी तरह आज बुजु़र्ग
हमारे घरों से
हो गए ग़ायब
क्या हम भी नहीं
हो जाएंगे एक दिन
उपेक्षित, अनुपयोगी, बेकार
कैसा लगा मेरे यार!!
5.
अम्मा
अच्छा हुआ अम्मा
तुमने ली आंखें मूंद
वरना बुजुर्गों के प्रति बढ़ती लापरवाही से
तुम्हें कितनी तकलीफ़ होती
अच्छा हुआ अम्मा
तुमने आंखें मूंद लीं
वरना बीवी के गुलाम
और बाल-बच्चों में मगन
अपने बेटों का हश्र देख
तुम बहुत दुखी होतीं
अच्छा हुआ अम्मा
तुमने ली आंखें मूंद
धर्म-ग्रंथों में छपे शब्द
अब कोई नहीं बांचता
कि मां के पैरों के
नीचे होती है जन्नत
कि जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है
अच्छा हुआ अम्मा
तुमने ली आंखें मूंद
वरना तुम्हें अक्सर
सोना पड़ता भूखे पेट
क्योंकि सुन्न हुए हाथों से
तुम बना नहीं पाती रोटियां
या घड़ी-घड़ी चाय
अच्छा हुआ अम्मा
तुमने ली आंखें मूंद
वरना बुजुर्गों की देखभाल के लिए
सरकारों को बनाना पड़ रहा कानून
कि उनकी एक शिकायत पर
बच्चों को हो सकती है जेल
क्या तुम बच्चों की लापरवाहियों की शिकायत
थाना-कचहरी में करतीं अम्मा?
नहीं न!
अच्छा हुआ अम्मा
तुमने ली आंखें मूंद...
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