शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

कहानी : चक्रव्यूह

   

   युवा लेखक विक्रम सिंह की कहानी पढ़ने के बाद इनकी समकालीन कहानियों के प्रति एक ललक पैदा हो जायेगी। इनकी कहानी को पढ़ने के बाद आप निराश नहीं होंगे । ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। 

चक्रव्यूह : विक्रम सिंह  
          
विशाल काय बरगद का हरा भरा पेड़ है लेकिन रात की वजह से पेड़ और पत्ते काले नजर आ रहे हैं। रात चांदनी रात नहीं है। काली रात है। पेड़ के नीचे अंधेरा फैला है। पे़ड के नीचे एक शख्स काली जंजीरों से बंधा हुआ है। वह चिल्ला-चिल्ला कर मदद के लिए आवाज लगा रहा है। आने जाने वाली गाड़ियों की रोशनी उस पर पड़ती है। तब वह नजर आता है। एक शख्स उसे बचाने की कोशिश  करता है। मगर जैसे ही वह जंजीरों को छूता है। उसे जोर का करेंट लगता है। वह चाह कर भी उसकी मदद  नहीं कर पाता है। ’’भाई साहब आप को यह किस चीज की जंजीर बंधी है। जो मैं चाह कर भी आप की मदद  नहीं कर पा रहा हूं।’’ अंत तक वह जाने लगता है। जंजीर से बंधा आदमी उसे रो -रो कर नहीं जाने के लिए कहता है।उसकी नीद टूट जाती है। अच्छा हुआ जो यह सच ना हो स्वप्न था। कैसी जंजीर थी जिसे छुड़ाना ही मुश्किल था।
मोबाइल की घंटी बजने लगती है। वह मोबाइल उठा कर पहले स्क्रीन में नम्बर देखता है। क्योंकि उसे फालतू लोगों का फोन उठाना पसंद नहीं है।  अगर उठा भी ले तो समय नहीं है। बाद में बात करेंगे। यह कह कर फोन काट दिया करता है। मगर यह फोन काम का अर्थात उसके बॉस का है।
 ’’गोपी’’
जी गुडमार्निग सर ’’
’’गुडमार्निग’’ बड़े प्यार से बॉस कहता है।
’’ हॉ, सर कोई बात थी।’’
’’हॉ,बहुत जरूरी बात है।’’
’’जी सर बताईये।’’
’’तुम्हारे मुहल्ले के पास की कालोनी में कोई दास बाबू रिटायर हुए हैं। इसके पहले की और कोई कम्पनी का एजेन्ट उसके पास पहुंच जाये या वह बैंक में पैसे जमा करे। तुम हम लोगों की कम्पनी सुनहेरा ग्रुप के बारे में बता कर हमारी कम्पनी में पॉच आठ लाख रूपये का कम से कम ई.एम.आई कराओ।’’
’’जी सर में आज ही उनके पास जाता हूं।’’
 गोपी मोबाइल काट देता है।
मोबाइल काटते ही दोबारा मोबाइल की घंटी बजने लगती है। स्क्रीन में नम्बर को देखता है। उसके जानने वाले का ही नम्बर है। वह यह समझ रहा है। क्योंकि नम्बर सेव नहीं है। क्योंकि उसके जानने वाले बहुत हैं। और वह किस-किस के नम्बर सेव करेगा। उसके जानने वाले तो उसके ग्राहक हैं जिन लोगों ने उसके चिट फन्ड कम्पनी में पैसे फिक्स किये हैं। वह फोन रिसिव कर लेता है। उधर से आवाज आती है ’’गोपी भाई जगन्नाथ बोल रहा हूं।’’ 
’’हॉ बोलिए जगन्नाथ चाचा जी’’
’’बेटा जो मैंने पैसा जमा फिक्स किया था वह दो महीने बाद मचुरिटी खत्म हो रहा है।’’
’’हॉ तो आप को डबल मिल जाएगा कोई चिंता की बात नहीं है। दो महीना पहले से बात करने की क्या जरूरत है?’’
’’नहीं हम सोचे की एक बार बात कर लेते है।’’
’’ठीक है दो महीने बाद बात करियेगा।’’
गोपी के इस तरह करीब तीन सौ के करीब ग्राहक हैं। महीने दर महीने ,साल दर साल उसके ग्राहक बढ़ते जा रहे थे। मुहले से शुरू होकर धीरे-धीरे अब शहर के कई इलाके में उसके ग्राहक है। इतने ग्राहक बनाने में उसने बहुत कड़ी मेहनत की है। शुरू-शुरू में वह साईकल से घूम-घूम कर पान की गुमटी वालो से लेकर,बर्गर बेचने,गोलगप्पा बेचने के ठेली वालों के पास जाकर अपनी स्कीम समझाता था। जरूरत पड़ने पर वह एक दफा नहीं दस दफा जाता था। आखिर तक वह उन्हें मना लेता था। सही मायने में हर एक ठेली वाला भी कम समय में पैसे दोगुना करना चाहता था। फिर धीरे धीरे उसने बाइक खरीद ली और ठेले चाय-पान की दुकान वालों से उपर वह सरकारी नौकरी करने वालो के पास जाने लगा था। दरअसल कोलियरी में काम करने वाले जो पान सिगरेट की दुकान में बैठ कर गप मारते थे। वही पान-चाय गुमटी वाले उसके ग्राहक थे। गुमटी वाले ही उन सब से मिलाने लगे थे।’’साहब जी एक स्कीम है थोड़ा समझ लीजिए। बहुत फायदे मन्द है।’’ लेकिन सही मायने में उन सब को जैसे सब कुछ पता होता।


 शुरू-शुरू में एक ही  चीटफंड की कम्पनी अक्षरा शहर में आई थी। उस कम्पनी ने अपना ऑफिस शहर के बीचों बीच खोला था। उस वक्त शहर में कई बेरोजगार लड़के नौकरी के लिए घूम रहे थे। चारो तरफ से निराश हो वह घर बैठे थे। उसी वक्त चीटफन्ड कम्पनी में कुछ बेरोजगार लड़के कमीशन एजेन्ड के तौर में लग गये। देखते देखते लगभग सभी बेरोजगार ल़ड़के इस कम्पनी के ऐजेन्ट बन गये थे। सर्वप्रथम तो ऐसे एजन्टों ने अपने घर और रिश्तेदारों को ही अपना ग्राहक बनाया था। कम्पनी की पालिसी  यह थी। ऐसे गरीब व्यक्ति जो मोटी रकम फिक्स नहीं करा सकते थे। ऐसे गरीब व्यक्ति डेलीबेसिस अर्थात प्रतिदिन दस,बीस,तीस जिसकी जो सहूलियत हो  चालू खाता खोल पैसे जमा कर सकता था। फिर एजेन्टों ने ज्यादातर ऐसे गरीब लोगों को ग्राहक बनाना शुरू कर दिया था। देखते ही देखते हर गली, नुक्कड़, मुहल्ले के मजदूर ठेले वाले कम्पनी के ग्राहक बन गये थे। एजेन्ट अपने साइकिलों पर सवार हो शाम को प्रतिदिन ठेले गुमटी वालों से पैसे कलेक्ट करने निकल जाते ठेलेवाले,गुमटी वाले और मजदूर अपने दिन भर की कमाई से दस बीस जिसकी जैसी सहूलियत होती पैसे एजेन्टों के हाथ में थमा देते थे। एजेन्ट अगले दिन कम्पनी के आफिस में जमा कर देते थे। देखते ही देखते कई बेरोजगार ल़ड़कों के लिए अच्छी नौकरी की तरह हो गया था। क्योंकि हर एक को महीने में दस पंद्रह हजार की कमाई होने लगी थी। यह कमाई सीमित नहीं थी जिस एजेन्ट के जितने ग्राहक हांेगे वह उतना ज्यादा पैसे कमा सकता था। इस लालच की वजह से हर एक एजेन्ट सुबह से लेकर शाम तक ग्राहक बनाने के लिए घूमते रहते थे। सभी एजेन्ट के बीच में ही कम्पटिसन रहता था अर्थात वह एक दूसरे के अपना कम्पटिटर मानने लगे थे। ऐसा ही हाल कम्पनी के साथ भी हो गया था। 


शुरूआत में तो पूरे देश  भर में एक ही चीटफन्ड की कम्पनी अक्षरा थी। उसने लोगों के दिल में अपना विश्वास बना लिया था। देखते ही देखते कई चीटफन्ड कम्पनियॉ मार्केट में आ गई थीं। हर एक ने दूसरे एजेन्टों को ज्यादा कमीशन का लालच देकर अपनी कम्पनी का एजेन्ट बनाने लगे थे। गोपी भी पहले अक्षरा चीटफन्ड कम्पनी का एजेंन्ट बना था। गोपी ने सही मायने में अपनी इच्छा से चीटफन्ड कम्पनी में नहीं गया था। उस समय वह चारो तरह से मजबूर हो गया था। गोपी के पिता ट्रक डाइवर थे। अचानक उनके पैरों में दर्द शुरू हो गया था। कई डाक्टरों को दिखाने के बाद भी उनका दर्द सही नहीं हो रहा था। गोपी की मॉ किसी बडे़ अस्पताल में गोपी के पिता को दिखाना चाहती थी। मगर पहले ही वह लोगों से पैसे उधार ले चुकी थी। अब आखिर किससे मदद मांगती। उसने अपने जेवर सब कुछ बेच दिये थे। बड़े अस्पताल में गोपी के पिता को लेकर गई थी। वहां डाक्टरों ने एम.आर.आई करने के बाद यह बताया कि रीड की हड्डी बढ़ने की बजह से एक नस दब गई है। जिसके वजह से पैरों में दर्द हो रहा है। जल्द से जल्द आपरेशन करना पड़ेगा नहीं तो पेरेलाइसिस हो जायेगी।’’

गोपी की मॉ ने डाक्टर से आपरेशन का खर्च पूछ,’’आपरेशन में कितना खर्च आ जाएगा।’’
डाक्टरों ने एक लाख रूपये बता दिया था।
गोपी की मॉ को काटो तो जैसे खून नहीं। गोपी की मॉ की रात की नींद उड़ गई। दिन का चैन छिन गया। अगर गोपी के पापा को कुछ हो गया तो कैसे रोजी रोटी चलेगी। और फिर जितने भी व्याह के उसके जेवर थे सब बेच दिया था। गोपी के पापा का आपरेशन करवाया था। लेकन आपरेशन के बाद गोपी के पापा की हालत ऐसी रही ही नहीं की वह टेक चला पाते। क्योंकि पैरों में वह ताकत आपरेशन के बाद आई ही नहीं थी।

घर के सारे जेवर गोपी की मॉ बेच चुकी थी। घर के राशन पानी के लिए भी अब उनके पास कुछ नहीं था।
उस समय गोपी बी.एस.सी फस्ट ईएर में था। गोपी की मॉ ने गोपी से कहा,’’बेटा अब तू कहीं काम पर लग जा। क्योंकि अपने पापा की तो तुम हालत देख ही रहे हो।’’

यूं तो गोपी पढने लिखने में बहुत होशियार था। वह डॉक्टर बनना चाहता था। बारहवीं के बाद वह एम.बी.बी.एस के लिए एन्टरान्स एग्जाम देना चाहता था। मगर गोपी की मॉ ने गोपी को कहा ,’’देख बेटा डाक्टर ,इंजीनियर बनना यह सब बड़े घर के लोगों के लिए रह गया है। हम ठहरे गरीब घर के तुम तो देखते ही हो। तुम्हारे पापा ट्रक लेकर जाते हैं तो दस-पन्द्रह दिन तक घर नहीं आ पाते हैं। जब तक घर नहीं आते तब तक चिंता बनी रहती। बस मैं चाहती हूं तो किसी तरह पढ़ाई पूरी कर के नौकरी में लग जा।’’
गोपी ने उस दिन भी अपने सपनों को स्वाहा कर मॉ की बात मान ली थी। वह जान गया था। गरीब लोगों का कोई स्वप्न नहीं होता है। घर का चूल्हा सबसे पहले होता है। जो कभी नहीं बुझना चाहिए। गोपी ने मॉ की बात फिर मान ली।

नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था। गोपी तमाम अपने आस पास की जूट मिल,सरिया की कम्पनी में काम मागने जाता। पहले पहल तो फैक्टरी के मेनेजर यह पूछते,’’ किस पार्टी की ओर से आये हो।’’
’’ किसी पार्टी से नहीं हूं।’’

देखो भाई यह बंगाल है। यहां या तो टीमसी या सीपीएम करने वालों की नौकरी होगी। ऐसे भी यह दोनों आपस में ल़ड़ जाते हैं। एक कहता है मेरे आदमी को लो, दूसरा कहता है मेरे आदमी को लो। अगर तुमको ले लिया तो साला दोनो पार्टी हंगामा मचा देगी।
गोपी फिर ठेकेदारों के पास गया। ठेकेदार ने गोपी से पूछा,’’क्या जानते हो?’’
’’जी बारहवीं साइन्स साइड से पास हूं।’’
’’नहीं, जानते क्या हो?’’
’’जी बारहवीं की है।’’गोपी ने दोबारा कहा
’’आबे जानते क्या हो। पेन्टर,कारपेन्टर,मैकेनिक,डाइवर क्या काम जानते हो?’’
’’सर जानता तो नहीं हूं। मगर सीख जाउंगा।’’
’’अबे हमने कोई स्कूल थोड़े खोल रखा है। जो तुमको सिखायेंगे।’’
’’सर मौका दीजिए कभी शिकायत नहीं आने देंगे।’’
’’देख हेल्पर में तुम्हें नहीं रख सकते। एकदम दुबला पतला शरीर है। काम बहुत भारी है। अगर कहीं मर मुरा गया तो साला हमारी तो ठेकेदारी चली जाएगी।’’
अब कहीं नौकरी मिल नहीं रही थी। वह निराश  हो गया। उसी वक्त किसी स्कूल के टीचर जो गोपी को अच्छी तरह जानता था। एक दिन गोपी को मिल गया। गोपी ने उसे अपने घर के बारे में सब कुछ बता दिया। उसने गोपी को ट्यूशन पढ़ाने की कही।
गोपी ने मास्टर जी से कहा, ’’अगर सर आप कहीं मुझे ट्यूशन दिला देते तो।’’

मास्टर साहब ने ऐसे जगह उसे टयूशन दिला दिया जहॉ वह खुद नहीं जा सकता था। गोपी को अपने घर से करीब सात-आठ किलोमिटर दूरी पर ट्यूशन मिला था।
गोपी ने ट्यूशन पढाने के लिए अपने घर में पड़ी टूटी सी साइकिल निकाल कर उसकी मरम्मत कराई और चैन में अच्छी तरह तेल डलवा लिया था।

गोपी को तीन दिशा में तीन ट्यूशन मिले। तीनों ट्यूशन पढ़ाने के समय भी लगभग एक ही था। फिर उसी वक्त दो ट्यूशन छोड़कर एक को पढ़ाने लगा था। फिर वही एक ट्यूशन और मिल गई थी। अभी तीन दिन ही ट्यूशन पढ़ाया ही था कि चौथे दिन वह शाम को ट्यूशन पढ़ाने निकला ही था कि जोरों की बारिश  शुरू हो गई। गोपी के पास ना छाता था ना रैनकोट। वह एक पेड़ के निचे छीप गया। दो घंटे  तक लगातार बारिश  होती रही। पेड़ के नीचे भी वह लमसम भीग गया था। भीगा हुआ घर वापस आ गया।
अगले दिन उसे सर्दी जुकाम हो गया था। मगर वह शाम फिर भी ट्यूशन पढ़ाने निकल गया।

रास्ते में अचानक ही टायर पेन्चर हो गई। वह काफी दूर साईकल को पैदल लेकर गया फिर कहीं जाकर एक पेंचर की दुकान मिली। इन सब की वजह से समय ज्यादा हो गया। एक दिन ट्यूशन पढ़ाने गया तो ट्यूशन पढ़ाते समय गोपी को दो तीन बार छींक आ गई। बच्चे की मॉ ने गोपी से आकर कहा,’’भईया आप की तबियत ठीक नहीं है। आप आज आराम कर लीजिये कल पढ़ा दीजियेगा।’’
’’नहीं मैं ठीक हूं। हल्का सा सर्दी जुकाम है।’’
मैडम ने देखा गोपी मान नहीं रहा है। जी इससे बच्चे को वायरल इन्फैक्सन हो जायेगा। तबियत ठीक होने पर आईयेगा।
गोपी टयूश न पढ़ाने दूसरे घर चला गया। दूसरे घर गोपी जैसे ही बैठा था। कि मैडम आ गई ’’भईया आज आप इतने लेट आये हैं। रात के आठ बज रहे हैं।’’
’’नहीं आज आते वक्त मेरी साईकिल पेंचर हो गई थी। आमने सामने कोई पेन्चर वाला मिला नहीं। काफी दूर पैदल आने के बाद पेंचर वाला मिला था।’’
’’आप तो कल भी नहीं आये थे।’’
’’जी कल आते वक्त बारिश  शुरू हो गई थी। भींग गया था।’’
’’जी ऐसा है की आप रहने दें। हम कोई दूसरा ट्यूशन मास्टर देख लेंगे। क्योंकि आप के लिए इतनी दूर से  आकर ट्यूशन पढ़ाना सम्भव नहीं हो पायेगा।’’
गोपी घर वापस चला आया।

गोपी दोबारा उन दो ट्यूशन को पकड़ने गया। जिन्हें समय ना रहने के चलते ना बोल दिया था। किस्मत अच्छी थी कि ट्यूशन मिल गई।
गोपी के एक छात्र के पिता ,एक दिन ट्यूशन पढ़ाते समय गोपी के पास आकर बैठ गया। गोपी ने उसे नमस्कार किया। वह गोपी का हाल चाल पूछते हुए। उनके घर के बारे में पूछने लगे। गोपी ने घर मे मॉ पापा सबके बारे में बता दिया। फिर उसने पूछा,’’ ट्यूशन पढ़ाने के आलावा और क्या करते हो?’’
’’जी बस ट्यूशन ही पढाता हूं।’’

देखो सिर्फ ट्यूशन पढ़ाने से घर बार नहीं चलेगा। इससे तुम अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाओगे। फिर तुम्हारे पिता भी बीमार है। इंसान के जब खर्च बढ़ जाते हैं। तो खर्च से नहीं घबराना चाहिए। आमदनी बढ़ाने की सोचनी चाहिए। बील गेटस ने कहा है गरीब पैदा होना इंसान की गलती नहीं है। मगर गरीबी में मर जाना इंसान की गलती है।’’

गोपी बस उसकी बात सुन कर जी सर, जी सर करता गया।
वह एक बुक लेकर आये। ओर गोपी के सामने खोल कर रख दी । बुक का कवर काफी सुन्दर था। और अंदर के पेज भी चमकदार थे। गोपी बुक को गौर से देखने लगा।’’ मैं नौकरी करने के साथ-साथ इस संस्था से जुडा हुआ हूं। यह दरअसल चैन बिजनेस है। इस कम्पनी को ज्वाइन करने के लिए मात्र 23 सौ रूपये लगते हैं। और उसके बदले में कम्पनी कई सारे प्रोडक्ट देती है। जो आप को मार्केट में बेचना है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि आप अपने अंडर में जितने एजेन्ट बनायेंगे । तुम्हें उतना ज्यादा कमीशन मिलेगा। अब तुम्हारे अंदर के जितने एजेंट अपने एजेंट बनायेंगे। उनका भी पैसा तुम्हंे मिलेगा। इस तरह मार्केट में जितना काम तुम फैला लोगे उतना ज्यादा पैसे तुम कमाओगे।’’
गोपी ने पूरी बात गोर से सुनी। उसे कुछ-कुछ अच्छा भी लगा। मगर इस वक्त तो गोपी के पास जहर खाने के भी पैसे नहीं थे। कम्पनी ज्वाइन करना तो दूर की बात थी।
’’सर इस वक्त मेरी पोजीशन एकदम खराब है। अभी हम कम्पनी ज्वाइन नहीं कर पायेंगे।’’
’’ठीक है कोई बात नहीं तब तक तुम कम्पनी के प्रोडेक्ट को अपने मुहले में बेचना शुरू करो।’’
उसने गोपी को कम्पनी के टूथपेस्ट,ब्रेस,परफयूम,साबुन,तेल इत्यादि सामान झोले में भर कर पकड़ा दिया।
गोपी उस दिन सारे सामान झोले में ले कर घर आ गया। उस रात वह सारे सामान को झोले से निकाल कर देखने लगा। वह टूथपेस्ट के पैकट को देखने लगा। उसकी कीमत  दो सौ रूपये थी। गोपी सोचने लगा बड़े लोग तो सुबह-सुबह दो सौ रूपये दांतो में मल देते है। गोपी खुद गरीब था उसके सभी जानने वाले भी गरीब थे। किसी की भी औकात दो सौ रूपये की टूथपेस्ट से दॉत साफ करने की नहीं थी। वह सब तो सुबह-सुबह नीम के दंतवन खोज कर दांतो में रगड़ लेते हैं।

लेकिन गोपी फिर भी प्रोडेक्ट को बेचने की कोशिस करने लगा। वह अपने सभी जानने वाले ठेले चाय-पान दुकान वालों के पास गया। एक चाय दुकान वाले ने कहा,’’अभी यह तो बडे लोगों के लिए है। अब हम परफ्यूम ला कर क्या करेंगे। और अपना दांत तो दंतवने से ही ठीक रहता है। हम काहेला इतना मेहंगा टूटपेस्ट इस्तेमाल करेगा।’’ 

एक लड़का कमर में काला बैग लटकाये हुए आया और अपने बैग से रसीद कॉपी निकाल कहा,’’दे दीजियेगा।’’
ठेले वाले ने बीस रूपये देते हुए कहा,’’ थोड़ा यह प्रोडेक्ट देख लीजियेगा।’’ गोपी की तरफ मुंह कर कहा,’’गोपी इन्हें भी अपना प्रोडेक्ट दिखा दो।’’

गोपी ने जैसे ही एक साबुन का पैकेट निकाल कर दिखाने लगा। कि वह ल़ड़का मुंह विदका कर कहने लगा,’’ हई विदेशियॉ कुल हम सब भारतियन के उल्लू समझे ला। कहीं हमार साबुन से नहॉ ला फिर उकर पानी से गांड़ धो ला। उकर बाद उहे पानी के अपन पेड़ पौधा में डाल दा खाद के तरह काम करी।’’
ठेले वाला और आस-पास के लोग हंस पडे। गोपी का सिर शर्म से झुक गया। गोपी की तरफ मुंह कर के पूछा,’’आप इस कम्पनी में कितना पैसा इनबेस्ट किये हैं।’’
’’नहीं किसी ने बेचने के लिए कहा है।’’
’’तेा एक काम कर जाकर यह सारा सामान उसके कपार पर मार कर आ।तुम करते क्या हो?
’’जी काम की तलाश  में हूं।’’
’’तो तुम एक काम करो। अक्षरा कम्पनी ज्वाइन कर लो।’’
फिर गोपी को कम्पनी में काम करने के तौर तरीके बताता रहा। गोपी को यह काम अच्छा लगा। क्योंकि इसमें एक रूपये भी नहीं लगाना था। ना ही कोई प्रोडेक्ट बेचना था। बस लोगों से पैसे वसूलने थे और कम्पनी में जमा करने थे।

गोपी अक्षरा कम्पनी में एजेन्ट बन गया। देखते ही देखते उसने हर गुमटी वाले से लेकर ठेले वालों को अपना ग्राहक बना लिया था। अपने अन्डर तीस से भी ज्यादा एजेंन्ट बना लिये थे। गोपी ने अपनी कमाई से एक मोटर साईकिल खरीद ली। गोपी ने अपनी पुरानी साईकिल को पोछ पाछ कर रख ली। क्योंकि गोपी मानता था अच्छे दिन आने पर बुरे दिन को कभी नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि उसने अक्षरा कम्पनी के मालिक की कहानी यह सुनी थी। वह भी कभी साईकल से कलैक्शन करने जाते थे। लेकिन अरबपति बनने के बाद भी आज भी उस साईकल को सभाल कर रखा है।
एक दिन वह इसी तरह वह कलैक्शन के लिए निकला था। एक दुकान में से सुनहरा कम्पनी के मैनेजर से मुलाकात हो गई। गोपी को अपनी कम्पनी के बारे में बता उसे अपना आई कार्ड दे ऑफिस में आने के लिए कहा।  गोपी को उसकी बात पर कुछ वजन लगा।
गोपी उसके ऑफिस में एक दिन चला गया।  गोपी को चाय नाश्ता सामने परोस वह समझाने लगा।’’ गोपी जी आप को हमारी कम्पनी का नाम तो पता ही है। हमारी कम्पनी सिर्फ  फिक्स डिपोजिट करती है। एक हजार रूपये से फिक्स डिपोजिट शुरू होती है। दूसरा ईम.आ.ई भी करती है। ई.एम.आई पचास हजार से शुरू हो जाता है। एक लाख का सुनहरा कम्पनी एक हजार रूपये देती है। मार्केट में कोई भी इतना पैसा नहीं देती है। आप को इ.एम.आई में  आप को एक लाख का पॉच हजार रूपये मिलेगा। फिक्स में एक लाख का बीस हजार रूपये मिलेगा।’’

उसने और भी कई सारी बातें विस्तार से गोपी को बता दी थी। गोपी उस दिन के बाद से अक्षरा और सुनहेरा दोनों कम्पनी का एजेन्ट बन गया था। ठेलेवालों और कमजोर लोगों के पैसे वह अक्षरा में डालता उन्हीं लोगों के पास आने वाले नौकरी करने वालों के पैसे सुनहेरा में फिक्स करवाता था। चूंकि गोपी ने अक्षरा में काम कर अपना विश्वास लोगों में बना ही रखा था। इसलिये उसे सुनहरा में ग्राहक मिलने में कोई दिक्कत नहीं आई। मोटी रकम फिक्स और एम.आई. करवाने के लिए कुछ कोयला के दो नम्बर से लेकर लोहा के दो नम्बर कारोबार करने वालो के पास भी गया। क्योंकि उसे लगा दो नम्बर का काम करने वालों को पैसे को एक नम्बर बनाने का यह अच्छा साधन है। और इन दो नम्बर काम करने वालों के पास पैसे की कमी नहीं होती। 
वह कईयों से मिला सबने यह कहा,’’पैसा तो हम ही डबल कर देंगे। कहीं फिक्स करने की क्या जरूरत है।’’
’’साहब बात डबल की नहीं है। अगर आप अभी किसी बैंक में पैसा जमा करने जायेंगे तो पचास रकम के सवाल जबाब होंगे। कहां से पैसा आया। साला आधा तो टैक्स में चला जायेगा। चलिये सब बात छोड़िये काम में कुछ उच्च नीच हो गई तो कम से कम कुछ इ.एम. आई रहेगा तो पैसे आते रहेंगे। चलिए वह भी छोड़िये कुछ हमारे लिए ही जमा कर दीजिए।’’

 मगर बात बनी नहीं। मगर गोपी यह जानता था कि एक मुलाकात में काम नहीं होता है। सौ मुलाकात में एक काम होता है। गोपी का जब मन करता इन लोगों के पास चला जाता। करीब पच्चीस दफा जाने के बाद गोपी को एक ने लाख रूपये की इ.एम.आई दे दी। महीने बाद ही जब उसे  इ.एम.आई आना शुरू हो गया। कुछ लोगों को अच्छा लगा और कईयों ने इ.एम.आई करवा ली किसी ने पॉच लाख का,किसी ने छःलाख और किसी ने दस का ई.एम.आई करवा ली। और उसने अच्छी खासी कमीशन कमाई। 
  
 मोटर साईकिल निकाल कर गोपी आज फिर बास के फोन आने पर दास बाबू के घर निकल गया।
दास बाबू को अपनी कम्पनी के बारे में सब कुछ समझा दिया। दास बाबू को पैसे तो ई.एम.आई करना ही था।  उन्होने कहा,’’देखिए कुछ पैसा तो हम बैंक में कर दिये हैं। एक लाख आप की सुनहरा में कर देते हैं।’’
गोपी ने कहा,’’बैंक से तो ज्यादा पैसा देती है सुनहरा कम्पनी।’’
’’मगर विश्वास तो गर्वमेंट बैंक देती है।’’
’’अंकल मगर सुनहरा कम्पनी में तो कई लोगों ने पैसे जमा किये हैं। लोगों का कम्पनी में विश्वास  है।’’

दास बाबू मुस्कुराये और कहा,’’कोई कम्पनी के विश्वास  पर पैसे नहीं देता है। सब आप का चेहरा देख कर देते है। तुम पर सब विश्वास  करते हैं कि तुम किसी का पैसा गलत जगह नहीं फंसाओगे। मैं भी तुम्हारे विश्वास  पर एक लाख जमा कर रहा हूं। समझ जाओ एक लाख का जुआ खेल रहा हूं। फिर हर एक को ज्यादा पैसा कमाने की लालच होती है। मुझमे भी है पर अधिक लालच करना भी ठीक नहीं होता है।
’’भगवान करे की आप इस जुऐ में ज्यादा जीत पाये।’’
दास बाबू ने एक लाख रूपये का ई.एम.आई सुनहरा में करवा लिया।
मगर दास बाबू की एक बात ने उसे सोचने में मजबूर कर दिया। अब तक उसने जितने भी पैसे जमा करवाये हैं। सबने मेरे उपर विश्वास  किया है। मैं क्या इतना बड़ा आदमी हूं। ऐसा होता तो मैं खुद की कम्पनी नहीं खोल लेता। वह मन ही मन मुस्कुराया साला दास बाबू ने तो एकदम से खोपड़ी घुमा दी।
एक रात ग्यारह बजे उसके एक एजेन्ट का फोन आया।’’गोपी भाई सुनने में कुछ आया है।’’
’’क्या?’
’’कलकत्ता का हेड आफिस एक सप्ताह से खुला नहीं है।’’
’’हमारे इलाका का आफिस खुला है ना’’
’’गोपी भाई हेड आफिस का बंद होना यह साफ बता रहा है। कम्पनी बंद हो गई है।’’
’’अरे नहीं यार।’’
’’क्या पता कहीं यह भी बंद ना कर दे।’’
’’कुछ नहीं होगा तुम सो जाओ।’’

कहते हैं कि एक दिन अचानक हर न्यूज चैनल में ब्रेकिंग न्यूज की खबर दिखाई जाने लगी। सुनहरा चीटफंड कम्पनी बीस हजार करोड़ का पैसा लेकर फरार। सुनहरा कम्पनी के बिल्डिंग के दरवाजे में ताला लटका हुआ दिखाया जा रहा था। बिल्डिंग के बाहर करीब हजारों की संख्या में लोगों को दिखा रहे थे। एक संवाददाता हाथों में माइक लिए कह रहा था,’’करीब करोडों रूपयो का घोटाला कर चीटफंड कम्पनी सुनहरा फरार हो चुकी है। आप देख सकते हैं हजारों की सख्या में लोग यहा खड़े हैं। जिन्होंने सुनहरा कम्पनी में अपने पैसे फिक्स किये थे। हर एक के ऑखो में आंसू हैं। दिल में दर्द है। चेहरे पर गुस्सा साफ झलक रहा है।’’मैं राकेश  तीवारी केमरा मेन राजू के साथ, आज तक।

गोपी किसी को कम्पनी की स्कीम समझा रहा था। कि उसका मोबाइल घनघनाने लगा। ’’बोल यार क्या हुआ?’’
’’गोपी भाई बहुत बुरी खबर है।’’
’’ क्यों क्या हुआ है?’’
’’न्यूज चेनल में  खबर आ रही है कि सुनहरा कम्पनी लोगों का पैसा लेकर फरार हो गई है।’’
’’क्या कह रहे हो?’’

मैंने तो घर से निकल कर मुम्बई की ट्रेन पकड़ ली है। अब वही मौसा जी के पास रह कर किसी कम्पनी मे काम करूंगा।’’
’’तू भी अपने घर से निकल जा वरना लोग तुझे भी खोजते हुए तेरे घर आ रहे होंगे। कई एजेन्टों को पब्लिक पीट रही है।’’
गोपी ने झट अपनी बाईक स्टार्ट की और वहां से अपने लोकल ऑफिस की तरफ भागा उसने दूर से देखा आफिस के बाहर कई लोगों की भीड़ लगी है। वह नहीं देख पाया की आफिस में ताला लगा हुआ है या नहीं। वहॉ से बाईक निकाल वह भाग खड़ा हुआ।
गोपी के घर के बाहर कई लोगों की भीड़ लगी हुई थी। गोपी की मॉ दरवाजे के पास बैठी लोगों से कह रही थी। ’’देखिये गोपी तो वहॉ काम करता था। अगर आप लोग अपना पैसा लेने आये हैं। तो घर का जो भी सामान है ले जाकर बेच कर पैसा ले लीजिए।
गोपी अपने घर की तरफ आया तो यंहॉ भी उसे दूर से ही भी़ड देखा। उसे समझ नहीं आया की वह कहां जाये। वह शहर से दूर भागाने लगा। 

बाइक पर सवार वह भागता जा रहा है। बाइक चलाता-चलाता उसकी कमर में दर्द आ गया। रास्ते में एक जंलग में अपनी बाईक को लेकर चला गया। एक पेड़ के नीचे बाईक खड़ी कर उस पेड के निचे बैठ गया। थकान के चलते उसे वहीं पर नीद आ गई।
जब उसकी ऑख खुली तो अंधेरा छा चुका था। वह आसमान के ऊपर सिर उठा कर देखता है। वह बरगद के विशालकाय पेड़ के निचे बैठा है। उसे ऐसा महसूस होने लगता है। वह चारो तरफ से जंजीरों से जकड चुका है। येसी जंजीरें हैं। जिसे कोई नहीं खोल सकता है। उसे अपना स्वप्न सच होता नजर आ रहा था।
अगले दिन की सुबह पेड़ पर गोपी की लाश  लटक रही थी। पेड़ के पास कई लोगों की भीड़ लगी हुई थी। अब जितने मुंह उतनी ही बातें । कुछ लोगों का कहना था,गोपी ने लोगों के डर से आत्म हत्या कर ली है। कुछ का कहना था, जिनके चीटफंड में पैसे फंसे थे उन लोगों ने गोपी को मौत के घाट उतार दिया है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना था कि गोपी को चोरों ने पैसो की खातिर मार दिया है।  
 
पुलीस तहकिकात में लगी थी कि गोपी की हत्या हुई थी या गोपी ने आत्म हत्या की थी।और आखिर इसकी मौत का जिम्मेदार कौन है?                                                                                                                                                                                                                                                      
परीकथा 2015 के नवलेखन अंक से साभार   

सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत

सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039
           
                           

सोमवार, 20 जुलाई 2015

एक नई पहल करते समर्पित शिक्षक - हरीश चन्द्र पाण्डे

       

       वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे से आज कई मुद्दों पर मेरी बात हुई। बड़े भाई व कवि मित्र महेश पुनेठा द्वारा संचालित दीवार पत्रिकाकी बात हो या गढ़वाल से मेरे एवं कुछ साथियो द्वारा शिक्षा वृक्ष आंदोलन पर किये गये कार्यों पर की गयी बात हो। आज शैक्षिक दखल  पत्रिका पर उनका एक खुला पत्र। आगे और भी उनके पत्र हमें पढ़ने को मिलेंगे।

एक नई पहल करते समर्पित शिक्षक
 - हरीश चन्द्र पाण्डे

        हम बने बनाये सामान व व्यक्तित्वों को देखने के आदी हो गए हैं। चमचमाते भव्य पैकेटिंग से बाजार के बाजार अटे पड़े हैं और ऐसे ही रंग-रोगन किए करिश्माई  व्यक्तित्व भी। ऐसा राजनीति, शिक्षा, साहित्य, खेल हर जगह हैं। हमें बने बनाये गांधी, राधाकृष्णन, टैगोर, ध्यानचंद, प्रेमचंद, पंत, निराला चाहिए। यानि शीर्श से कम कुछ नहीं देखना हमें। बनता हुआ नहीं देखना है, बना हुआ देखना है। हमें एक तैयार नाटक से मतलब है, उसके मंच व मंच पीछे की तैयारियों से कोई मतलब नहीं,उसकी रिहर्सल से कोई मतलब नहीं। हमें उस सौवें चोट से मतलब है, जिस पर एक पेड़ गिरा है, उन निन्यानवे चोटों से कोई मतलब नहीं जिन्होंने पेड़ गिराने की पूरी आधार भूमि तैयार की। यह पिसे-पिसाए आटे के रंगीन बैगों का समय है, गेहूं के दानों व उनमें खुदे किसानों के चेहरों का नहीं और न ही मिल में काम करने वाले मजदूरों का। यानि यह तृणमूलता की उपेक्षा का समय है। ऐसे चकाचौंध भरे समय में कहीं किसी कोने में किसी भावी सपने के बीज रोपे जा रहे हों तो, धारा के विपरीत तैरने का सा अहसास होता है।

     मैं यहां अपने रूप,साज-सज्जा में साधारण सी दिखती एक पत्रिका  शैक्षिक दखलके प्रकाशन की बात कर रहा हूं। युवा साहित्यकार महेश पुनेठा और दिनेश कर्नाटक के संपादन में उत्तराखंड से निकल रही इस पत्रिका के पीछे समर्पित शिक्षकों की एक टोली है। मुखपृष्ठ पर लिखी इबारत शैक्षिक सरोकारों को समर्पित शिक्षकों तथा नागरिकों का साझा मंचइसके सरोकारों का संकेत दे देती है। क्या हैं ये शैक्षिक सरोकार? इसका उत्तर यह पत्रिका है। इसकी विषय सामग्री है और इसकी संपादकीय चिंताएं हैं। क्या शिक्षा की परंपरागत नीति व शिक्षकों का परंपरागत व्यवहार नईं सामाजिक संरचना के अनुरूप अपने को बदल पाया है? अगर पूर्व पद्धति में कुछ ऐसा है जो ठीक नहीं तो उसका विकल्प क्या है? मैं सोचता हूं, यह पत्रिका इस पर विचार ही नहीं करती उसे अध्यापकों के माध्यम से व्यवहृत भी कराती है। एक तरह से यह अध्यापकों की भी पाठशाला है, जिसमें छात्रों में भयमुक्त वातावरण पैदा कर उन्हें पठन-पाठन यात्रा में सहयात्री बनने का एहसास भरना है। यह पत्रिका गमलों में सैद्धांतिक विचारों की पौध उगाने की बजाय जमीन पर पौधारोपण कर रही है। इधर हमारे समाज में नैतिकता का सर्वमुखी क्षरण हुआ है उसमें शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र अग्रणी हैं। गुरुऔर डॉक्टरजिन्हें मानव के लिए ईश्वरत्व के सबसे निकट माना गया, सर्वाधिक प्रभावित है। ऐसे में किसी एक कारण को उत्तरदायी न मानते हुए यह पत्रिका एक नई पहल करती है, जिसमें अध्यापक, छात्र व आम नागरिक की खुली सहभागिता है। पत्रिका ने फेसबुक पर शैक्षणिक बातचीत चलाकर इसका बहुत ही सकारात्मक पक्ष उजागर किया है, जबकि फेसबुक इस बीच नकारात्मक व कीचड़ उछालू प्रवृत्तियों का भडांस गवाक्ष भी बन गया है। ये कुछ लोग हैं छात्रों-शिक्षकों के बीच के संबंधों को पुनर्व्याख्यायित करते हुए एक नये नैतिक मनुष्य की कल्पना में आज को देख रहे हैं। ये दीवार पत्रिकाके माध्यम से बच्चों में आत्मविश्वास और कल्पनाशीलता जगा रहे हैं। अगर पढ़ाई में फिसड्डी समझा जाने वाला एक छात्र अपने घर की गरीबी के अनुभव को कागज पर सबसे प्रामाणिक निबंध के रूप में उकेर देता है तो यह बदली हुई विचार पद्धति ही है जो उसके छुपे हुए कौशल को पहचान कर उसके मानसिक रुद्ध द्वार खोलती है। उसमें आत्मविष्वास का बीज बोती है। अध्यापकों व छात्रों की पारस्परिकता की जिस दुनिया को यह पत्रिका उठाती है, वह पूरे भारतवर्श पर लागू होती है अतः इसके कथ्य की जरूरत केवल हिंदी क्षेत्रों को नहीं है। मैं इस पत्रिका में एक बडे़ भूगोल की नैतिक आहटें सुन रहा हूं। इसने शिक्षा पद्धति की नींव को छूने की कोशिश की है और बडे़ ही विनत भाव से। शिक्षक-छात्र इसमें किसी आदेश के तहत नहीं वरन खुले अंतःकरण से शामिल हो रहे हैं। कुछ विचारशील लोग अपनी लो प्रोफाइल मुद्रा में एक सपने को आकार दे रहे हैं, इसके लिए मैं संपादक मंडल व शैक्षिक दखल टीम को हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं।           .                                                                        
 -हरीश चन्द्र पाण्डे 
अ/114,गोविंदपुर,इलाहाबाद 

शनिवार, 18 जुलाई 2015

तुम हिंदी भवन में ही पड़े रहो : हयात सिंह







उत्तराखण्ड के अति दुर्गम क्षेत्र  डुंगरालेटी ,चम्पावत में 1986 में जन्में हयात सिंह ने अभी हाल ही में लेखन की शुरूआत की है। इनकी रचनाएं कई प्रतिष्ठित पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। किसी ब्लाग में पहली बार प्रकाशन। स्वागत है इस युवा कवि का। आप सुधीजनों के विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।


 

 पेंटिंग-जहीन,हिमाचल प्रदेश

हयात सिंह की कविताएं-

तुम हिंदी भवन में ही पड़े रहो


जरुरत तो बहुत है उन्हें तुम्हारी
और वो भी टकटकी लगाये
 राह निहार रहे होते हैं रोज
शायद तुम इसलिए नहीं जाते वहाँ
कि सूरज नादानों की जिद पर
ग़र जमीं पर उतर आया तो जाने क्या हो जायेगा
जब सैकड़ों प्रकाश वर्ष की दूरी से
 गर्मी और तपन का
 ये हाल है
लेकिन इधर इसमें कुछ असमंजस भी है
सूरज तो एक है
नादानों को क्या मालूम 
 आकाशगंगा में कई और भी हैं सूरज
बस उनकी दूरी सैकड़ों नहीं हजारों प्रकाशवर्ष की है
अरे मैं बात कर रहा हूँ
उन बस्तियों की
उन गलियों की
जहाँ कुछ असहाय और मजलूम रहते हैं
जिनकी खातिर तुम
 रोज कलम उठाते हो
और गढ़ देते हो 
कवितायेँ कहानियाँ
दिल्ली का हिंदी भवन हो या
शिमला का गेटी थियेटर
तुम वातानुकूलित भवनों के भीतर
 माइक के सामने
बड़ी जोर से चिल्लाते हो
कि किसान मजदूर को उसका हक़ मिलना चाहिए
फिर इक-दूजे के कहे-लिखे पर
दिनों, महीनों, वर्षों तक ढोल बजाये फिरते हो
मगर किसान-मजदूरों के बीच में 
न जाने का तुम्हारा फैसला उचित ही है
वरना वो भी तुम जैसे नाकारा हो गए तो
क्या होगा इस देश का
इस दुनिया का
कौन करेगा मेहनत
 होगा कैसे तब नवनिर्माण 
पहली बार तुम्हारा कोई फैसला सही साबित हुआ
तुम हिंदी-भवन में ही पड़े रहो
तुम हिंदी भवन में ही पड़े रहो
तुम शिमला ,जयपुर भले कहीं भी जाते रहो
मगर किसान और मजदूरों के बीच।


प्रलय से बचना तुम जानते तो हो ना

उजाड़ दो
खेत-खलिहान
काट डालो जंगलों को
पहाड़ों को खोद डालो
आख़िर सभ्यता का प्रतीक 
 शहर जो बसाना है तुमको
सूख जाने दो
नदियों को
हो जाने दो भूस्खलन
मिटा दो गाँवों का नामोनिशान
आखिर विज्ञान का चमत्कार दिखाना जो है तुमको
खरीद ही लोगे खुद के लिये
जरुरत पड़ने पर ऑक्सीजन
दौलत का भंडार
जमा जो कर लिये हो
तुम्हें क्या जरुरत
अब और इंसानों की
रोबोट बना तो लिये हो
तुम खुद ही बुला नहीं लेते क्यों
फिर एक आपदा
आखिर तुम्हारे ये अणु-परमाणु
कब काम आयेंगे तुम्हारे
बुला लो प्रलय
कर दो इस युग का अंत
आयेगा नया युग
जहाँ मुझ जैसे कोसने वाले न होंगे
कविताओं में
टोकने वाले न होगें
कोई नहीं
हाँ जी कोई नहीं
बस सिर्फ तुम सिर्फ तुम
तुम प्रलय से खुद को बचाना
जानते तो हो ना।

कलम चलाने वाले

चिनी चिनाई
दीवारों की
लीपा-पोती करने वाले
टूटी
दीवारों की दर से
तांका-झाँकी करने वाले।
बस अपने ही
घर की छत से
टोका-टाकी करने वाले।
लाखों हैं
ऐसी कवितायेँ
और
हजारों करने वाले
इसीलिये तो
बनकर सांड
छुट्टे घूम रहे हैं 
  सत्ता के मद वाले
पिछले एक दशक से
देख रहा हूँ
गिनती के भी नहीं दिखते
सत्ता को सबक़ सिखाने वाले
इसकी कविता
उसकी कविता
कविता को शान समझने वाले
मूक-बधिर सी
कविता की ख़ातिर
बस आपस में लड़ने वाले।
दुःख और स्वयं
बढ़ता ही रहा
जब देखते रहते कलम चलाने वाले।

संपर्क-
हयात सिंह
डुंगरालेटी ,चम्पावत
उत्तराखण्ड 262524
मोबा0-09560716916


सोमवार, 13 जुलाई 2015

पुस्तक समीक्षा-बर्फ़ सी गर्मी

                                  
                            
       इस निर्दयस्त समय में जहाँ स्वार्थ और लोलुपता की आंधी चल रही हो, जहाँ गलाकाट स्पर्धाएं चल रही हों, सिर्फ़ धन बटॊरने के लिए नित नए फ़ंडॆ ईजाद किए जा रहे हों, जहाँ आचार-विचार और परंपराओं की धज्जियां उडाई जा रही हों, जहाँ आदमी के संवेदना-जगत को क्षत-विक्षत करते हुए उसे खण्डहर में तब्दील किया जा रहा हो,जहाँ खुदगर्जी, फ़रेब और औपचारिकता ही आदमी की पहचान बनती जा रही हो, जहाँ आदमी के जीवन के शाश्वत मूल्यों की जमीन लगातार छॊटी होती जा रही हो. शब्द-रूप,रस तथा गंध के संवेदनों, भावभूमि के मूल्यवर्ती अहसासों और क्रिया-कलापॊं से वह लगातार अजनवी बनता जा रहा हो. ऎसे कठिन समय में  राज हीरामन का कथा-संग्रह बर्फ़ सी गर्मी का आना शुभ संकेत तो है ही,साथ ही यह आशा भी बंधती है कि वे विलुप्त होती जा रही मानवता को बचाने के लिए जद्दोजहद करते  देखे जा सकते है. उनकी कहानियों को पढकर राहत मिलती है. वे एक नयी चेतना और ऊर्जा के साथ उन तमाम तरह के मकडजालों को काट फ़ेंकने में समर्थ दिखाई देते हैं. उनकी लेखनी में एक प्रकार की विकलता और छटपटाहट स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.

            मारीशस में जन्में कवि-कथाकार से मेरी मुलाकात  उन्हीं के देश मारीशस में हुई थी. आपके अब तक दस कविता संग्रह, तीन कहानी संग्रह, एक साक्षात्कार संग्रह, एक आलेख संग्रह प्रकाशित हुए है. अनेकानेक सम्मानॊ से सम्मानित होने के अलावा आपने चार किताबों का संपादन भी किया है. वर्तमान में आप महात्मा गांधी संस्थान के सृजनात्मक एवं लेखन विभाग में रिमझिम तथा वसंत पत्रिका के वरिष्ठ उप-संपादक हैं

            बर्फ़ सी गर्मी  में दस कहानियां हैं. बर्फ़ सी गर्मी तथा लेट अस ब्रेक कहानियां विदेशी पृष्ठ-भूमि पर लिखी गई कहानियाँ हैं. माँ-दाई-माँ, घर वह बडा, मर गया पर जिंदा था, मानवाधिर, साहिल, प्रेरणा, खेत सुमन के हो गए और धनराज. इन कहानियों  के किरदार, किरदारों की दशा-मनोव्यथा,आदि कहानियों की अपनी जमीन  मारीशस की है. 

            बर्फ़ सी गर्मी शीर्षक चौंकाता है. सहज ही मन में प्रश्नाकुलता पैदा होती है कि भला बर्फ़ में गर्मी कैसे हो सकती है.?. लेकिन जैसे-जैसे आप कहानी के भीतर उतरते हैं, तो पता चल  जाता है कि आखिर वह गर्मी किस प्रकार की थी. 

            उत्तरी व्हेल्स के एक छॊटे से शहर की कहानी है यह. इसमें एक अविवाहित पात्रा है,जिसका नाम मारगारेट है. उसका एक भाई है, जिसका नाम आंद्रे है. वह जानलेवा बीमारी में  ग्रसित एक अस्पताल में भरती है. वह रोज उससे मिलने जाती है. आंद्रे के दो बेटे मारिस और जान रील हैं,जो कुछ ही दूरी पर मानचेस्टर शहर में रहते हैं. पर अपने पिता को न कभी  शामारैल लोल्ड होम केयर में देखने आए और ना ही अस्पताल में. उसकी एक बेटी भी है मारिया. मारिया इसी शहर के दूसरे छॊर पर रहती है,कभी-कभी अपने बाप को देखने और   पूछताछ करने आ जाती है.


            वह दिन भी शीघ्र ही आ जाता है जब आंद्रे की मृत्यु हो जाती है. खबर मिलते ही मोरिस   और जान अपनी-अपनी पत्नियों और दो-दो युवा पुत्रों और पुत्र वधुओं के साथ आ पहुंचते हैं. जैसा कि वहाँ ईसाई धर्म प्रचलित है. उस धर्म के मुताबिक उसकी अंत्येष्टि की जाती है. बनाये गए  गढ्ढे में शव को उतारकर मिट्टी डाली जाती है. मिट्टी तब तक डाली जाती है,जब तक जमीन को समतल नहीं बना दिया जाता. इसके बाद धन्यवाद भाषण देने का रिवाज है. मारगारेट आंग्रे के बेटॊं से दो शब्द अपने पिता के बारे में कहने का आग्रह करती है. लेकिन वे हिम्मत नहीं जुटा  पाते. कहते भी तो क्या कहते? कहने के लिए कुछ भी तो नहीं था दोनो के पास. क्या वे यह कहते कि अपने पिता के जिंदा रहते हुए उन्होंने कभी उसकी परवाह नहीं की और न ही कभी  उससे मिलने आए?

            दोनो को आगे न बढता देख, मारगारेट जान के बेटे आनथनी को आगे करती है. आनथनी विश्वविद्यालय में जेनेटिक इंजिनियरिंग का छात्र था. बोलने में माहिर, निर्भिक, और न हीं किसी प्रकार की कोई झिझक थी उसमें. शब्दों का भण्डार था उसके पास. काफ़ी कुछ कहते  हुए और अंत में सभी के प्रति धन्यवाद देते हुए उसने कहा-एक गया पर सबको इकठ्ठा कर   गया. यही हमारे जीवन की शुरुआत है. अतः मृत्यु के बाद भी जीवन है इसके बाद सभी  बारी-बारी से गले मिलते हैं. मिलने से एक ऊर्जा उत्पन्न होती है और मन पर बरसों-बरस से जमी बर्फ़ पिघल-पिघल  कर आँखों के माध्यम से आँसू बन कर बहने लगती है.

      लेट अस ब्रेक इस कहानी की पृष्ठभूमि इंग्लैण्ड की है. डानियल अरबों-खरबों का मालिक है. पति बदलने में माहिर सुजन उसके जीवन में आती है. पांच साल तक वैवाहिक जीवन बीता चुकने के बाद एक दिन वह डानियल से कहती है=लेट अस ब्रेक.और वह उसे छॊडकर चली जाती है. घर में बरसों से काम कर रही मेरी का अचानक उसके जीवन में प्रवेश हो जाता है. इंगलैण्ड में किस तरह जीवन जिया जाता है, उसको उजागर करती चलती है यह कहानी.

      माँ-दाई-माँ... एक खुद्दार महिला के इर्दगिर्द घूमती कहानी है यह. व्यस्ततम जीवन यापन कर रहे एक वकील,जिसकी पत्नी का देहान्त हो गया है. सारे संस्कारों को निपटा चुकने के बाद जब वकील साहब अपने घर में बरसों से काम कर रही दाई को साडियाँ और पैसे देना चाहते हैं, तो वह दसियों साडियों में से केवल एक साडी और नोटॊं के पुलंदे में से एक नोट निकाल कर यह कहते हुए चल देती है -नहीं साहब ! मैं इस सबके लिए बहुत छॊटी हूँ

      मनोविज्ञानिक तरीके से आगे बढती कहानी मर गया पर जिन्दा था,दुखों से भयाक्रांत हो उठने वाले माला और गुलशन किस तरह से बागी हो उठते हैं मानवाधिकार, रागिनी की कमनीय काया से प्रभावित अभयानंद उसे अपनी कम्पनी में बडॆ-बडॆ अवसर उपलब्ध करवाता है, लेकिन जब वह उसे छॊड देता है, तो सहसा रागिनी किस तरह उसके लिए प्रेरणा बन जाती है अपने नाटकीय अंदाज से बढती कहानी आपको बांधे रखती है. हरिदेव और सुमन के अद्भुत चरित्र को आप कहानीखेत सुमन के हो गए में देख सकते हैं. एक पेन्शनर बाप धनराज खुद भूखों मरने पर विवश है, जबकि उसकी बेटी उसके पैसों पर मजे उडाती है,मार्मिक कहानी बन पडी है. कलम के धनी हीरामनजी ने भाषागत मुहावरों और लोकोक्तियों के माध्यम से कहानियों को प्रभावशाली बनाने में कोई कसर नहीं छॊडी है.

            अंत में मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ  इंदौर के डा. राकेश त्रिपाठीजी को, जिन्होंने श्री राज हीरामनजी के अनुरोध पर मुझे यह कहानी संग्रह बर्फ़ सी जमी गर्मी और काव्य संग्रह नमि आँखें मेरीसमीक्षार्थ भिजवाईं.

            मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में आपके अनेकानेक संग्रह प्रकाशित होंगे. निश्चित ही आपकी साहित्यिक यात्रा मारीशस और भारत को जोडॆ रखने में सेतुकी भूमिका का निर्वहन करेगी.
            एक सार्थक कहानी संग्रह मुझ तक भिजवाने के लिए पुनः आपका हार्दिक आभार.


समीक्ष्य पुस्तक - ‘  बर्फ़ सी गर्मी
लेखक - राज हीरामन                                           
संपर्क -                                     
 गोवर्धन यादव       
 103, कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.)480001                      
  (संयोजक म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति)                       
  09424356400

सोमवार, 6 जुलाई 2015

देखो अबुआ राज में : विनोद सागर



            03 जनवरी 1989 को जपला झारखंड में जन्में विनोद सागर जीविकोपार्जन हेतु फोटोग्राफी का काम करते हुए  कविता,कहानी, गीत, ग़ज़ल, हाइकु, क्षणिका आदि में सृजनरत हैं।  अब तक इनके दो कविता संग्रह गंगा और मुखौटा प्रकाशित हो चुके हैं। इस नये स्वर का पुरवाई ब्लाग में  स्वागत है।
सम्मान -दुष्यंत कुमार सम्मान 2014
                 सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान 2015


विनोद सागर की कविता

  

देखो अबुआ राज में
 
चोर-डकैतों की भरमार, देखो अबुआ राज में।
हैं सैकड़ों बेरोजगार, देखो अबुआ राज में।

राज्य का विभाजन सौभाग्य था या दुर्भाग्य अपना,
अस्थिर बनी रही सरकार, देखो अबुआ राज में।

जिन-जिन काबिल हाथों को किताबों की दरकार थीं,
हैं उन हाथों में हथियार, देखो अबुआ राज में।

गूंजती थी जिस जंगल में चिड़ियों की किलकारि
यां,
 है वहां बारुदी अंगार, देखो अबुआ राज में।

देखो सत्ता की लोभ में बेच कर ईमान अपने,
नेता बने ईमानदार, देखो अबुआ राज में।

ना भीतर सुरक्षित और ना बाहर सुरक्षित लड़कियां
खुलकर हो रहा बलात्कार, देखो अबुआ राज में।

सभी नदियां जा-जाकर मिल रहीं अपने ‘सागर’ से,
ऐसे खो रहा जनाधार, देखो अबुआ राज में।


                                                                     साभार- दैनिक भास्कर के साहित्यिक कॉलम में प्रकाशित



सम्पर्क   -   मुहल्ला
- पो0 - जपला 
                       पलामू, झारखंड -822116.
                       मोबा0- 09905566775
                       ई-मेल -vinodsagarwriter@gmail.com

मंगलवार, 30 जून 2015

लोक का आलोक- पहाड़ से : चिन्तामणि जोशी


एक

साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका पर चिन्तन-मनन एवं समकालीन कविता, कहानी एवं आलोचना पर गम्भीर चर्चा-परिचर्चा के उद्देश्य से देश के विभिन्न हिस्सों से प्रतिष्ठित कवियों, कथाकारों, आलोचकों व चित्रकारों का एक सप्ताह के लिए निजी संसाधनों से पिथौरागढ़ में जुटना, ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर पहाड़ की लोक संस्कृति और जीवन संघर्ष से अवगत होना और लोक जीवन तथा संस्कृति में आ रहे परिवर्तनों का अध्ययन करना सीमान्त पिथौरागढ़ के लिए तो एक ऐतिहासिक अवसर था ही, साहित्यकारों की लोक प्रतिबद्धता का भी अनूठा उदाहरण था। स्थानीय साहित्यकारों के ‘उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच, पिथौरागढ़’ की इस आयोजन के साथ उक्त से इतर भी एक सोच थी कि स्थानीय प्रतिभाओं को राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों से संवाद का अवसर मिलेगा, विभिन्न हिस्सों से आए साहित्यकार यहां के अनुभवों को लेकर लौटेंगे तो उन्हें अपनी रचनाओं में दर्ज करेंगे जिससे हमारे अंचल की नैसर्गिक सुषमा एवं सांस्कृतिक सम्पन्नता को पर्यटन के मानचित्र में एक नई पहचान मिल पाएगी और स्थानीय साहित्यकार संगठित होकर भविष्य में जनपद में बेहतर साहित्यिक वातावरण सृजित कर सकेंगे। सुखद है कि आयोजन की सफलता के साथ ही इस सोच की सार्थकता भी दिखाई देने लगी है।

08 जून 2015 को ठीेक 11.00 बजे पहाड़ी स्थापत्य कला में निर्मित ‘बाखली’ के वृहद् कक्ष में सात दिनी लोक-विमर्श शिविर का आरंभ 17,000 से अधिक चित्रों को अपनी तूलिका से सजा चुके चर्चित चित्रकार कुंवर रवीन्द्र की एकल चित्र एवं कविता-पोस्टर प्रदर्शनी के साथ होना अपने आप में एक रोमांचित करने वाला अनुभव था। उद्घाटन अवसर पर जैसे ही स्थानीय किसान श्री मोहन चन्द्र उप्रेती के हाथ में रिबन काटने के लिए कैंची दी गई और स्थानीय चित्रकार श्री ललित कापड़ी ने किसान के हाथ को सहारा दिया तो लोक-विमर्श लिखे लिफाफे का मजमून सबके लिए खुलता चला गया।

      ‘बाखली’ में 60 चित्रों से सजी जगमगाती चित्र वीथिका साहित्यकारों के साथ ही नगरवासियों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र बनी रही। 08 से 13 जून तक इसे देखने के लिए भीड़ जुटी रही। कला-साहित्य प्रेमियों, प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथियों के साथ ही माध्यमिक विद्यालयों के विद्यार्थी समूहों एवं महाविद्यालय के विद्यार्थियों ने भी प्रदर्शनी का अवलोकन किया। धूमिल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, शील, मान बहादुर सिंह, केशव तिवारी, नवनीत पांडे, महेश पुनेठा, रेखा चमोली सहित हिन्दी के तमाम कवियों के कैनवास पर जीवन के विविध रंग बिखेरते शब्दों की तपिश सभी के अंतस तक पहुँच रही थी। शील की कविता ‘फिरंगी चले गए’ का पोस्टर हो या मान बहादुर सिंह की पंक्तियां- उनकी जिद वेद है/बाइबिल और कुरान है/उनकी जिद गोला और बारूद है; महेश पुनेठा कह रहे हों- ‘जिस वक्त में/कुचले जा रहे हैं फूल/मसली जा रही हैं कलियां/उजाड़े जा रहे हैं वन कानन/वे विमर्श कर रहे हैं/फूलों के रंग- रूप पर’ या फिर धूमिल की ‘अंतर’ हो-‘कोई पहाड़/संगीन की नोक से बड़ा नहीं है/और कोई आंख छोटी नहीं है समुद्र से/यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है/जो कभी हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है’-सहज ही दिल-दिमाग-दृष्टि पकड़ रहे थे। लोग बरबस ठहर रहे थे। सोच रहे थे। चित्रों में प्रदर्शित स्याह-धूसर रंग पर बातें कर रहे थे। इनमें उन्हें जीवन का संघर्ष दिख रहा था सो ये चित्र लोगों को उदास कतई नहीं कर रहे थे।

      बाद में डॉ0 जीवन सिंह ने कुछ चित्रों की काली पृष्ठभूमि को उद्धृत करते हुये अपने ब्याख्यान में कहा कि हमारे जीवन में अंदर तक पुत चुका काला रंग वास्तव में चिन्ता का विषय बन चुका है। फतेहपुर से आये साहित्यकार प्रेमनन्दन का कहना था कि कुंवर रवीन्द्र के कविता-पोस्टर, कविता की प्रभावशीलता को बहुगुणित कर देते हैं। शब्दों में निहित ताप जब कैनवास पर रंगों को तपाता है तो मानो कविता में बिम्ब खिल-खिल उठते हैं और उनकी तपिश महसूस की जा सकती है।

      चित्र प्रदर्शनी ने स्थानीय मीडिया का ध्यान भी बखूबी आकृष्ट किया। जहां एक ओर इलेक्ट्रानिक मीडिया के विजयवर्धन, मंकेश पंत आदि रवीन्द्र जी से संवाद करते देखे गये तो अमर उजाला ने लिखा- यह प्रदर्शनी कला और कविता को जोड़ने का प्रयास है जो लोगों को सच्चाई का बोध कराती है। दैनिक जागरण के अनुसार प्रदर्शनी कलात्मक एवं सृजनात्मक दोनों पक्षों को आवाज देने में सफल रही और दैनिक हिन्दुस्तान ने इस प्रदर्शनी को साहित्य के विद्यार्थियों के लिए बेहद उपयोगी बताया।
      

वरिष्ठ श्रमजीवी पत्रकार श्री बद्री दत्त कसनियाल की अध्यक्षता एवं स्थानीय कवि चिन्तामणि जोशी के संचालन में सम्पन्न द्वितीय सत्र में कवि-आलोचक महेश चन्द्र पुनेठा ने शिविर में प्रतिभाग कर रहे साहित्यकारों का साहित्यिक परिचय देते हुए शिविर की रूपरेखा प्रस्तुत की। हमीरपुर से आये युवा कवि-समीक्षक अनिल अविश्रान्त ने महानगर केन्द्रित छद्म साहित्यिक गतिविधियों एवं साहित्यकारों के नैतिक अवमूल्यन को साहित्य द्वारा परिवर्तनकारी भूमिका न निभा सकने का कारण बताया। इस अवसर पर मुख्य वक्ता अलवर से आये वरिष्ठ आलोचक डॉ0 जीवन सिंह का ‘‘साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका’’ पर लगभग सवा घंटे का व्याख्यान बहुत उपयोगी एवं जानकारीपरक रहा। उन्होंने कहा- सत्ता(राजा) के प्रभाव में रचे गए साहित्य ने सदैव साहित्यकार को ही नहीं समाज को भी पीछे धकेला है। इससे समाज स्वजीवी के वजाय परोपजीवी बना है। जो साहित्यकार जीवन के जितना पास रहेगा, जिन्दगी की जितनी अधिक चिन्ता करेगा, वह उतना ही बड़ा साहित्यकार बनेगा। मुक्तिबोध को याद करते हुए उन्होंने कहा कि हमारी कविता को फैलना जरूरी है। कबीर और तुलसी के सृजन से उन्होंने  साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका के विविध स्वरूपों को स्पष्ट किया। साहित्यकारों एवं मसिजीवियों से उन्होंने अपेक्षा की कि उन्हें अपने प्रति निरंतर असुविधाजनक प्रश्न उठाने चाहिए। पढ़ा-लिखा वर्ग परिवर्तनकारी भूमिका में हो न कि लुटेरी। संवाद प्रक्रिया में वरिष्ठ आलोचक ने युवा रचनाकारों दिनेश चन्द्र भट्ट, आशा सौन, विनोद उप्रेती आदि की शंकाओं का समाधान करते हुए कहा कि यदि सामाजिक समानता, स्वतंत्रता एवं मूल्यों को केन्द्र में रखकर साहित्य सृजन किया जाय तो वह परिवर्तनकारी भूमिका निभा सकता है।

      अध्यक्षीय संबोधन में श्री बद्री दत्त कसनियाल ने आदमी और आदमी के बीच भेद पैदा करने वाली सृजन धारा की कठोर निन्दा की। उन्होंने कहा कि जिन साहित्यकारों को हमारी भावी पीढ़ी अपने पाठ्यक्रम में पढ़ती-समझती है उन्हें अचानक अपने मूल्य परिवर्तित कर सत्ता से बड़े-बड़े पुरस्कार प्राप्त करते देखना बहुत दुखद होता है। रचनाकार का जीवन एवं रचनाकर्म ऐसा हो कि अध्येता उसे लीक से हटकर देखें।
लोक-विमर्श में कुंवर रवीन्द्र और उनके कविता-पोस्टरों ने जहां  शिविर को एक विशिष्ट ऊंचाई प्रदान की वहीं डॉ0जीवन सिंह और श्री कसनियाल के उद्बोधन ने एक संतुलित गहराई का अहसास कराया। कहा जा सकता है कि एक अच्छे आरंभ ने पहले ही दिन कार्यक्रम को एक बेहतरीन दिशा प्रदान की।

दो
9 जून को प्रातः विभिन्न प्रांतों से आए 19 साहित्यकारों के दल का राजकीय इण्टर कालेज देवलथल पहुँचने पर बाराबीसी उत्थान समिति, स्थानीय जनता तथा विद्यार्थियों द्वारा उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया। परिचयादि संक्षिप्त औपचारिकताओं के पश्चात् साहित्यकारों ने रचना प्रक्रिया पर बच्चों के साथ विस्तार से चर्चा-परिचर्चा की एवं उनकी जिज्ञासाओं को शांत किया। भोजन के उपरांत साहित्यकारों ने आस-पास के गाँवों का भ्रमण कर ग्रामीणों से संवाद किया। इस दौरान उन्होंने ग्राम्य जीवन, रहन-सहन, खान-पान, संस्कृति-परंपरा आदि को नजदीक से जानने-समझने का प्रयास किया। एक विवाह समारोह में पारंपरिक छलिया लोक नृत्य का आनन्द लिया। हल-बैल, खेत-बटिया, हिसालू-किरमोड़ा, धारा-नौला-डिग्गी से साक्षात्कार किया।

तीन
10 जून को आचार्य उमाशंकर सिंह परमार ने लोक के आलोक में प्रथम सत्र की भूमिका प्रस्तुत की और ‘‘साहित्य की लोकधर्मी चेतना’’ पर डॉ0 जीवन सिंह का व्याख्यान हुआ। श्री सिंह ने स्पष्ट किया कि लोकधर्मी चेतना के साथ सृजित साहित्य जीवन के बहुत बड़े और विस्तृत फलक पर अंकित साहित्य है। रीति कविता एक सिमटी-सिकुड़ी दुनियां की कविता है जबकि उससे ठीक पहले की भक्ति कविता में केवल राजा का ही नहीं प्रजा का जीवन भी उतनी ही महिमा और महत्व के साथ चित्रित है। श्री सिंह ने संस्कृति को संवारने में पहाड़ों की भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा कि पहाड़ ही नदियों के जनक हैं और नदियों के परितः ही साहित्य, संस्कृति व सभ्यता विकसित हुई है। 

द्वितीय सत्र में श्री रमेश भट्ट की अध्यक्षता एवं मृदुला शुक्ला के संचालन में केशव तिवारी, महेश पुनेठा, प्रेम नंदन, चिन्तामणि जोशी, मृदुला शुक्ला, रश्मि भारद्वाज, कुंवर रवीन्द्र, अनिल अविश्रांत, जनार्दन उप्रेती, नवनीत पांडे, आशा सौन, जयमाला देवलाल एवं प्रकाश जोशी ने अपनी पांच-पांच कविताओं का पाठ किया।

राजकुमार राकेश की अध्यक्षता में तृतीय सत्र में कविताओं की समीक्षा की गई। डॉ0 जीवन सिंह ने समीक्षा सत्र का प्रारंभ करते हुए कहा कि ज्यादातर कविताएं सामान्य जमीन पर लिखीं गईं हैं। कवि की अपनी विशिष्ट जमीन होनी चाहिए। आलोचक आपकी कविता में जिन्दगी को तौलता है। आज के कवि कविता के डिक्शन पर कम मेहनत करते हैं। निराला का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि जिसको कवित्त छंद का अभ्यास होगा वह ही मुक्त छंद में रचना कर सकता है।

अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर परमार एवं संदीप मील ने भी पढ़ी गई कविताओं की अलग-अलग समीक्षा प्रस्तुत की। अजीत प्रियदर्शी का मत था-आज कविता एक खास तरह के फॉर्मेट में जकड़ गई है। लगभग एक जैसी भाषा एक जैसा शिल्प उस पर विषय की एकरूपता सब कुछ एक कर देती है। यही कारण है कि हर कविता पहले की कविता का दोहराव नजर आती है। संभावनाशील कवियों के लिए यह सत्र महत्वपूर्ण साबित हुआ।

चार
11 जून का प्रथम सत्र वरिष्ठ कथाकार राजकुमार राकेश की अध्यक्षता में कथा साहित्य पर चर्चा-परिचर्चा का रहा। आउटलुक पत्रिका के श्री भूपेन सिंह इस सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे।  राजकुमार राकेश के उपन्यास कन्दील पर चर्चा की गई। अजीत प्रियदर्शी ने कहा- कन्दील आजाद हिन्दुस्तान की दर्दनाक गाथा है। शिवेन्द्र और संदीप मील ने बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी-अपनी कहानियों का पाठ किया। संवादों के माध्यम से कहानी के पात्रों का लोक जीवन एक बारगी शिविर में सजीव हो उठा। अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर परमार एवं राजकुमार राकेश ने पढ़ी गई कहानियों पर परिचर्चा की। अजीत प्रियदर्शी ने कहा-संदीप मील की कहानियां डायलैक्टिक नजरिए से व्यवस्था का मूल्यांकन हैं। ये फिरकापरस्ती के खिलाफ संदेश देती हैं। राजकुमार राकेश ने कहा- संदीप मील की कहानियों को आवारा पूंजी व सत्ता के गठजोड़ से तथा साम्प्रदायिक एजेण्डे से जोड़कर देखा जाना चाहिए।

द्वितीय सत्र में महेश पुनेठा के संचालन में दीवार पत्रिका अभियान पर चर्चा हुई। श्री पुनेठा ने बच्चों की रचनात्मकता को मंच देने एवं उनकी भाषायी दक्षता बढ़ाने के उद्देश्य से विद्यालयों में प्रारंभ किए गए नवाचारी दीवार पत्रिका अभियान की जानकारी साहित्यकारों को दी। असिस्टेंट प्रोफेसर विधांशु कुमार के साथ साहित्यकारों ने विद्यार्थियों द्वारा तैयार दीवार पत्रिकाओं का अवलोकन किया। दीवार पत्रिका पर साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं अभियान को ऊर्जा प्रदान करने वाली हैं। बांदा से आए नारायण दास ने कहा- दीवार पत्रिका में अपने क्षेत्र की संस्कृति पर बच्चों का लेखन बहुत प्रभावित करता है। दिल्ली की रश्मि भारद्वाज ने इसे रचनात्मकता के विकास के लिए बेहतरीन प्रयास बताया तो फतेहपुर से पधारे प्रेमनंदन ने लिखा- दीवार पत्रिका बच्चों को सृजनशील, संवेदनशील, कर्मठ एवं जिम्मेदार बनाने का एक सार्थक प्रयास है। हमीरपुर डिग्री कालेज के असिस्टेंट प्रोफेसर अनिल अविश्रांत अपनी प्रतिक्रिया में लिखते हैं कि यह कार्य विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम से इतर भी बहुत कुछ पढ़ने-समझने का अवसर प्रदान करता है। बीकानेर के नवनीत पांडे ने दीवार पत्रिका अभियान को आज के कठिन समय में बहुत जरूरी और प्रासंगिक बताया। उल्लेखनीय है कि विद्यालयों में दीवार पत्रिका के नवाचार को वर्ष 2013 में  पिथौरागढ़ जनपद के नवाचारी शिक्षकों चिन्तामणि जोशी, राजीव जोशी, योगेश पांडेय ने शिक्षक एवं ‘शैक्षिक दखल’ के संपादक महेश चन्द्र पुनेठा के मार्ग निर्देशन में एक अभियान के रूप में प्रारंभ किया था। वर्तमान में यह अभियान सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में प्रसार पाते हुए देश के विविध हिस्सों से होते हुए मलेशिया तक जा पहुँचा है। प्रशिक्षण संस्थानों, महाविद्यालयों सहित लगभग 500 विद्यालयों से नियमित दीवार पत्रिकाएं निकल रहीं हैं। महेश चन्द्र पुनेठा द्वारा लिखित एवं लेखक मंच प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक ‘‘दीवार पत्रिका एवं रचनात्मकता’’ के आने के बाद इस अभियान में सहज ग्राह्यता एवं गतिशीलता आई है। इस शिविर के माध्यम से चूंकि साहित्यकार भी इस अभियान में शामिल हो रहे हैं। आशा की जा सकती है दीवारें साहित्यकारों की नई पीढी को तैयार करेंगी।

पांच
11 जून की रात भोजनोपरांत 11.00 बजे बाद साहित्यकार साथियों द्वारा रंगमंच से जुड़े कवि नवनीत की कविताओं पर परिचर्चा शायद उस सपने की तरह थी जिसे हम नींद में तो नहीं देखते, पर जो हमें सोने भी नहीं देता। बहरहाल 12 जून को प्रातः तड़के ही साहित्यकारों का दल शैक्षिक दखल के साथी श्री राजीव जोशी के मार्गदर्शन में मुनस्यारी की ओर रवाना हो गया। इस यात्रा में जहां एक ओर साहित्यकारों को हर मोड़ पर पहाड़ के समृद्ध प्राकृतिक सौन्दर्य से दो-चार होने का अवसर मिला वहीं मुनस्यारी पहुँचने पर उन्हें स्थानीय लोक कलाकारों से संवाद एवं लोक गीतों का आनन्द उठाने का अवसर भी प्राप्त हुआ। मुन्स्यारी में साहित्यकारों  ने श्री शेर सिंह पांगती के ट्रायबल हैरीटेज म्यूजियम पहुँचकर जोहार-मुनस्यार की लोक संस्कृति पर विस्तृत जानकारी एकत्र की एवं सायंकालीन सत्र में  जोहार लोक कला एवं भाषा पर परिचर्चा की।

छः
शिविर के समापन दिवस 13 जून को साहित्यकारों ने मुनस्यारी से पिथौरागढ़ पहुँचकर स्थानीय मिशन इण्टर कॉलेज में दोपहर 1.00 बजे से 3.00 बजे तक अपने श्वििर अनुभवों पर आधारित दीवार पत्रिकाएं लोक-विमर्श - 1 , 2 एवं 3 तैयार कीं जो कि लोक-विमर्श: 1 के महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में संरक्षित की जाएंगी।

लोक-विमर्श: 1 का समापन सत्र सायं 4.00 बजे से स्थानीय जिला पंचायत सभागार में सम्पन्न हुआ। जनकवि जनार्दन उप्रेती एवं उमाशंकर परमार के संचालन में रात्रि 9.00 बजे तक चली काव्य संध्या में 30 कवियों ने कविताओं के माध्यम से अपने-अपने लोक के रंग बिखेर कर श्रोताओं को आनन्दित किया। कवियों ने तमाम सामाजिक विसंगतियों एवं कुरीतियों पर भी तंज कसे। वरिष्ठ कवियों केशव तिवारी, नवनीत पांडे, महेश पुनेठा के साथ कुंवर रवीन्द्र, मृदुला शुक्ला, रश्मि भारद्वाज प्रेम नन्दन, प्रद्युम्न कुमार, चिन्तामणि जोशी, गिरीश पांडेय ‘प्रतीक’ आशा सौन, अनिल कार्की,प्रमोद श्रोत्रिय, प्रकाश जोशी ‘शूल’, विक्रम नेगी ने हिन्दी कविताएं पढ़ीं तो जनार्दन उप्रेती ‘जन्नू दा’ व प्रकाश चन्द्र पुनेठा ने कुमांऊनी कविताओं एवं नवीन गुमनाम, प्रो0 आशुतोष, बी0 एल0 रोशन ने गजल से समां बांधा। समापन सत्र के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कहानीकार राजकुमार राकेश ने लोक-विमर्श शिविर को सफल बताते हुए उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच पिथौरागढ़ का आभार ज्ञापित करते हुए कहा कि यह लोक-विमर्श यात्रा रचनाकारों एवं समाज के लिए भविष्य में मील का पत्थर साबित होगी। मंच के संयोजक जनार्दन उप्रेती ने शिविर की सफलता में सहयोग के लिए नगर के साहित्य प्रेमी नागरिकों, मीडिया तथा सभी सहयोगियों के प्रति आभार ज्ञापित किया। अध्यक्षीय संबोधन में वरिष्ठ कवयित्री डॉ0 आनन्दी जोशी ने अतिथि साहित्यकारों के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए कहा कि कवि महेश पुनेठा के समन्वयन में सभी के सहयोग से सृजन यात्रा चल पड़ी है जो अनवरत चलती रहेगी और वरिष्ठ साहित्यकारों के सान्निध्य में नवोदित रचनाकारों का शिल्प और उनकी कला भी विकसित होती रहेगी। संवाद बनाये रखने एवं पुनः मिलने के संकल्प के साथ यह एक शुरूआत थी - उस यात्रा की - जिसमें अनवरत तलाशा जाएगा- लोक का आलोक.....

                               : चिन्तामणि जोशी:
                                  संयोजक सचिव
               उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच, पिथौरागढ

                             संपर्कः ‘देवगंगा’ जगदम्बा कॉलोनी,
                                     पिथौरागढ़-262501
                              संपर्क सूत्र - 9410739499