रविवार, 4 अक्तूबर 2015

विक्रम सिंह की कहानी : पसंद - नापसंद





     वह सिगरेट का कश लेकर धुएं को छोड़ता जा रहा था। मोबाइल को कई बार उठाता है। फिर रख देता है।'' क्या इतने सालों बाद उसे फोन करना अच्छा होगा।'' आखिर कार उसने नम्बर डायल कर मोबाइल को अपने कानों से लगा लिया था। माथे में पसीने की बूंदे आ गई थीं। मोबाइल की घंटी लगातार बजते जा रही थी। मगर कोई रिसीव नहीं कर रहा था। घंटी पूरी होने के बाद आवाज आई, आप जिससे बात करना चाह रहे हैं अभी फोन नहीं उठा रहा है। फोन काट मोबाइल को दोबारा मेज पर रख देता है। फिर से सिगरेट जला लेता है 'उसे तो अब मेरा नाम भी याद नहीं होगा। लेकिन उसी ने तो मेरा नाम रखा था मिट्ठू। वह हंसा,मिट्ठू। उसे याद आता है वह दिन जब पार्क में बैठी उसकी प्रेमिका उसके चेहरे को गौर से देखते हुए यह कहती है तुम्हारी शक्ल मिथुन चक्रवर्ती से एकदम मिलती है। मैं तुम्हें मिट्ठू कह कर बुलाया करूंगी। आज से तुम्हारा नाम मिट्ठू है। उस दिन वह अभिलाश से मिट्ठू हो गया था। उसने सोच लिया है आज उसे फोन पर भी यही नाम कहूँगा । उसके मोबाइल की घंटी बजने लगी। वह नम्बर देख खुश हो जाता है। झट से रिसीव कर वह अपने कानों में लगा लेता है। उधर आवाज आई,'' जी आपका मिसकॉल आया था।'' 

मैं मिट्ठू बोल रहा हूँ।''
यह सुनते ही उसकी सांसें जोर जोर से चलने लगी थी। जैसे किसी ने उसे डरा दिया हो। ''हाँ बोलो''
''क्या तुमने मुझे पहचान लिया?'
''नाम तो दूर तुम्हारी आवाज से ही पहचान लिया था'''
''कैसी हो तुम''
''मैं ठीक हूँ 'तुम कैसे हो?''
''बस चल रहा है।''
'' क्या चल रहा है?''
''मेरा एक उपन्यास प्रकाशित हुआ है। वह मैं तुम्हें भेजना चाहता हूँ। तुम्हारा घर का पता चाहिये था। ठीक है मैं तुम्हें मैसेज कर दूंगी।''
''ठीक है कर देना''
''अच्छा ठीक है'' कह दोनों ने मोबाइल काट दिया था।
 
फिर कोई मैसेज नहीं आया था। वह इतंजार करता रहा मैसेज का मगर उसका मैसेज नहीं आया। कई मैसेज इस बीच आये भी मगर वह जब भी मैसेज टोन बजने के बाद मोबाइल को देखता मैसेज किसी और का होता था। वह सोचता कही वह भूल तो नहीं गई। या उसका मेरे उपन्यास पर कोई दिलचस्पी नहीं है। रात दस बजे तक वह ना जाने क्या- क्या सोचता जा रहा था। बिस्तर पर लेटा उसका ध्यान बार- बार मोबाइल पर भी चला जा रहा था। उसे कई बार ऐसा लगा जैसे मैसेज टोन बजा है। अभी उसने फोन हाथ पर रखा ही था कि मोबाइल की घंटी बज उठी थी। वह खुश हो जल्द से रिसीव करता है। कहता है,तुम्हारा मैसेज नहीं मिला अभी तक''
''सुनो तुम मुझे अपनी किताब मत भेजना। क्योंकि मैंने तुम्हारे बारे मैं अपने पति को सब कुछ बता दिया था। अगर उसने तुम्हारी किताब देख लिया तो वह बहुत गुस्से में आ जायेंगे। वह सोचेंगे मैं अभी भी तुमसे बात करती हूँ।'' 

''तुमने मेरे बारे में उसे बताया क्यों था?''
''लड़की जात हूँ ना बात पेट में पची नहीं।''
मिट्ठू मुस्कुराता है।'' सुनो मैं अपनी किताब पोस्ट तुम्हारे घर तुम्हारे भईया के नाम से भेज दूंगा। फिर तुम उसे छुपा कर रख लेना जब मौका लगे पढ़ना।''
''अच्छा ठीक है जब मैं कहूँगी तब भेजना ठीक है। क्योंकि वह तो बनारस में रहते हैं। बीच बीच में आते रहते हैं।''
''तुम बनारस में अपने पति के साथ क्यों नहीं रहतीं हो?''
वह कहते हैं तुम पापा मम्मी के साथ रहो।''
''तुम्हारा मन लगता है।''
''मन लगाना पड़ता है।''
''तुमने कभी नहीं कहा कि मैं आप के साथ रहूँगी।''
''क्या बताउॅ? घर में मुझे बारह लोगों का खाना बनाना पड़ता है।''
''कौन-कौन है घर में।''
''दरअसल क्या है मेरी ननद और उसके तीन बच्चे हैं। और दो ननद भी हैं। देवर है। पापा मम्मी हैं।''
''यह तो कुल मिलाकर दस लोग हुए।''
''मगर खाते तो बारह लोगों के बराबर हैं।''
मिट्ठू को हँसी आई मगर उसने हंसी को रोक लिया। ''बना लेती हो इतने लोगों का खाना।''
''जब मैं नई- नई आई थी तो मेरी सासू माँ मेरा बना हुआ खाना फेंक दिया करती थीं। फिर दोबारा बनाती थीं।''
''वह क्यों?''
''क्या है यह लोग बहुत मसाले दार खाना पसंद करते हैं। तुम्हें तो पता ही है। हम लोग मसाला कितना कम खाते थे। इसलिए मेरी आदत थी मसाला कम डालने की, तो इस वजह से इन लोगों को मेरा खाना पसंद नहीं आता था।''
''तुमने अपने पति को यह सब बाते नहीं बताई थीं।'' 

''बताई थी और खूब झगड़ी भी थी कि शादी कर के मुझे यहां लाकर पटक दिये हैं। मुझे अपने साथ क्यों नहीं रखते हो। वह मुझसे कहते हैं कि मैं तो काम पर निकल जाता हूँ। तुम घर पर अकेली कैसे रहोगी। फिर आज का जमाना भी तो ठीक नहीं हैं। तुम तो देखती हो कि क्राइम पेटोªल में सब कुछ। मैं फिर भी नहीं मानी तो बाप रे उसने मुझे इतनी जोर का चाटा लगा दिया। इतने गुस्से में आ गया कि क्या कहूँ। उस दिन के बाद से मैंने फिर कभी नहीं कहा। क्या है ना मेरी सासू माँने इन सब को यह सिखाया है कि पत्नी को कभी अकेले लेकर नहीं रहना चाहिए नहीं तो किसी से भी चक्कर चला लेंगी। अब तुम ही बताओ यह कोई मेरी उम्र रह गई्र है यह सब करने की''


''कभी बनारस घुमाने भी नहीं लेकर गये।''
''नहीं, कभी नहीं लेकर गये।''
''शादी को तो चार साल हो गये और चार साल में एक बार भी नहीं लेकर गये तुम्हें बनारस।''
वह चुप रही। फिर बोली,''बाद मैं कई बार फिर बोलने लगे ठीक है अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो चलो मैं तुम्हें वही लेकर चलता हूँ। मगर मैंने मना कर दिया था। क्योंकि जब मैं मायके गई थी माँ  पापा को यहॉं की सारी बात बताई थी तो उन सब ने मुझसे यही कहां बेटा अब जैसा भी है समय काटो,अपने आप सब ठीक हो जाएगा। 

''खैर छोड़ो तुम्हारी बीबी कहाँ है।''
''वह लुधियाना अपनी बहन के घर गई है।''
''तुम नहीं गये साथ में।''
''नहीं मैं नहीं गया कम्पनी में कुछ काम था।''
''तुम्हें मेरा नम्बर कहाँ से मिला''
''मैं कुछ दिन पहले ही रानीगंज गया था। वहां मैंने यह नम्बर तुम्हारी सहेली बीना से लिया था।''
''मेरी तो खुद तुमसे बात करने की बहुत इच्छा थी। मैं खुद तुम्हारा नम्बर खोज रही थी।'
तुम एक बार बीना से कह रही थीं, देख सब लड़के एक जैसे होते हैं। शादी के बाद मुझे मिटठू भूल गया।''
''और नहीं तो क्या?''
''मगर देखो मैंने तुम्हें फोन किया ना।''
''अच्छा सुनो तुम मुझे फोन मत करना जब मैं तुम्हें मिसकाल या फोन करूं तब तुम मुझे फोन करना। और दोपहर के दो बजे मेरा सारा काम खत्म हो जाता है। रात दस बजे के बाद मैं फ्री हो जाती हूँ। और कभी मेरा सप्ताह- पन्द्रह दिन अगर फोन नहीं आया तो यह नहीं की तुम फोन कर देना। बस तुम इंतजार करना मैं जरूर करूंगी। '' 


और सुनो अगर कभी तुम्हारा फोन आये और मैं ना उठाउं तो समझ जाना मेरी पत्नी मेरे साथ है। अभी हम रात में ही बात करेंगे। क्योंकि मेरी डयूटी अभी जरनल शिफ्ट चल रही है। तो हम अभी रात में ही बात करेंगे।
''अच्छा ठीक है अब मैं रखती हूँ।''
अगले दिन रात दस बजे बिस्तर पर लेटा हुआ मिट्ठू फिर से फोन का इंतजार करने लगा था। आज फिर उसे नींद नहीं आ रही थी। खैर मोबाइल में शेयरिंग होने लगी। मिट्ठू ने झट-पट मोबाइल रिसीवर कानों में लगा लिया था। हाँ हेलो,
''कैसे हो?'
मैं ठीक हूँ काम हो गया क्या?
''हाँ, अभी बाबू को सुला कर' हटी हूँ''
''खाना खा लिया तुमने''
''हाँ खा लिया। और तुमने क्या बनाया था आज?'
''टमाटर की चटनी,गोभी की सब्जी,रायता,रोटी''
''अच्छा,बहुत कुछ बनाया था। सब मसालेदार था।''
वह हॅंस पड़ी
''नहीं मैं जानता हूँ तुम अच्छा खाना बनाती हो। मैंने तुम्हारे हाथ का बना मछली चावल खाया है। बहुत अच्छा बनाती हो।''
मैंने सुना है तुम्हारी बीबी भी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती है। मुझे बीना ने बताया था।''
'हाँ अच्छा बनाती है।''
''तुम अपनी शादी से खुश हो।''
''क्या तुम अपनी शादी से खुश हो।''
''अब खुश होने के सिवा चारा भी क्या है।''
''क्योंकि तुम्हारा पति सरकारी नौकरी करता है?'' 

''मेरे मन मैं कभी ऐसा नहीं था। कि मैं नौकरी वाले लड़के से शादी करना चाहती थी। तुम एक जगह स्थिर नहीं थे।''
''क्या करता कही अच्छी नौकरी नहीं मिल रही थी। जब मैकेनिकल डिप्लोमा कर के निकला तो पता चला साला भारत देश में पढ़े लिखे बेरोजगार लड़कों की कमी नहीं है। उसमें एक में भी शामिल हो गया हूँ। फिर ना जाने मैं दिल्ली,मुम्बई,राजस्थान,गुड़गॉव ना जाने कितने इंडस्टियल शहर में घूमता रहा इस बीच कितनी नौकरी पकड़ी फिर छोड़ दी। क्योंकि मैं अपना शोषण नहीं करवाना चाहता था। और होने भी क्यों देता। जानती हूँ कम्पनी के बड़े बड़े उद्योगपति खुद तो करोडों रूपये की गाड़ी में घूमते हैं। आलीशान बंगलों में रहते है। हमें महीने में चार हजार रूपये की तनख्वाह पर काम करवाते है। और फिर मैं यह चाहता था मुझे ऐसी नौकरी मिले जहाँ तनख्वाह अच्छी हो। ताकि मैं तुमसे शादी कर संकू।'' 

वह रो कर कहने लगी,मुझे पता था जल्द से जल्द कामयाब हो मुझसे शादी करना चाहते थे। क्योंकि तुम हमेशा डरते थे कही मेरी शादी ना हो जाये।''
''सब कुछ जानते हुए भी तुमने मुझसे शादी से इनकार कर दिया था।''
''क्योंकि मैं डरती थी कही शादी के बाद तुम्हारा कैरियर ना खराब हो जाये। क्योंकि उस वक्त तुम अपना कैरियर बनाने के लिये संघर्ष कर रहे थे ''
''जानती हो संगीता जब तुम मेरे साथ पार्क में बैठी होती थीं। तो मुझे लगता था मेरे पास सब कुछ है। मुझे किसी चीज की कमी नहीं महसूस होती थी जैसे पूरा ब्रम्हांड जीत लिया हो। पर मुझे क्या पता था उसे ही पाने के लिये एक छोटी सी नौकरी पाने की जरूरत है। इसलिए फिर मैंने एक कम्पनी में नौकरी करनी शुरू कर दी थी। आज जब मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी कर रहा हूँ फ्लैट में रह रहा हूँ' गाड़ी से घूम रहा हूँ। मगर ना जाने मुझे ऐसा लगता है मेरे पास कुछ नहीं है।

'जानते हो मिट्ठू जब तुमने मुझे भाग कर शादी करने के लिए कहा था। मैंने तुम्हें हाँ भी कर दिया था। मगर मैं जब अपनी मां का चेहरा देखती कि मेरे जाने के बाद उसके साथ क्या होगा। कहीं पापा उसे जान से न मार दें। फिर मैं पापा का चेहरा देखती तो मुझे लगता था कहीं पापा इस बदनामी से आत्म हत्या ना कर ले। जब मैं भाइयों को देखती तो सोचती कही मेरे ऐसा करने से यह शर्म से कालेज जाना ना छोड़ दे। बस यह सब सोच मैं डरती थी। एक तरफ तुम थे मेरा प्यार जो मुझे दिलो जान से चाहता है और दूसरी तरफ मेरे माँ  पापा जिन्होंने मुझे पाल पोस कर इतना बड़ा किया था। कुछ समझ नहीं आता था ऐसा लगता था आत्म हत्या कर लो पर उसमें भी मैं रूक जाती थी। क्योंकि मेरी आत्म हत्या करने से भी लोगों के बीच कई तरह के सवाल होते लोग कहते जरूर प्रेगनेन्ट होगी किसी से चक्कर होगा तभी आत्म हत्या कर ली। फिर पुलिस वाले भी सवाल जवाब करते क्या हुआ था लड़की ने क्यों आत्म हत्या की। इसलिए आत्म हत्या भी नहीं कर पाई। घुटन भरी जिन्दगी जीने लगी। सोचती थी माँ से तुम्हारे बारे में बताओ मगर मैं जानती थी माँ  पिताजी के पास इस रिश्ते का खुलासे का मतलब था यह रिश्ता हमेशा के लिए खत्म'' 

''पर तुमने तो मिलना तो दूर मुझसे बात करना भी छोड़ दिया था। फिर बाद में तुम्हारी शादी का निमंत्रण कार्ड अपने घर में देखा ।''
''हाँ क्योंकि मैं तुम्हें भुलाने कि कोशिश करने लगी थी। मैं सोचती थी अपने आप तुम भी मुझे भूल जाओगे। क्या तुम मुझे माफ कर दोगे?'' 

''अच्छा तुमने अपना पता मैसेज नहीं किया'' बात पलटते हुए कहा।
''हाँ कर देती हूँ। कब पोस्ट करोगे?''
''जब तुम कहो''
'' अभी ही भेज दो वह घर पर नहीं है।''
''कल ही पोस्ट कर देता हूँ।''
''अब समय भी बहुत हो गया है तुम सो जाओ। कल बात करेंगे।''
अगले दिन सुबह मिट्ठू ने अपने उपन्यास को संगीता को पोस्ट कर दिया था।
रात के दस बजते ही मिट्ठू का मोबाइल बजने लगा। उसने मोबाइल को झट रिसीव कर लिया था। मोबाइल रिसीव करते ही मिट्ठू ने कहा,'' हाँ मैंने अपनी किताब आज पोस्ट कर दी है।''
''ठीक है।' उसने बड़े धीमे से कहा था।
''क्या हुआ उदास लग रही हो?''
''एक बात बोलूं बुरा तो नहीं मानोगे।''
''नहीं बताओ''
''आज मैं तुमसे आखिरी बार बात करूंगी।''
''वह क्यों?' 

क्योंकि कल जब तुम्हारी पत्नी को यह सब पता चलेगा तो मैं उसकी नजरों में गिर जाउॅगी। और अगर मैं तुमसे इसी तरह बात करती रहूँगी तो मेरा काम मैं यहाँ मन नहीं लगेगा। फिर तुम्हारा भी वही हाल होगा। इसलिये हमें एक दूसरे को भुला देना चाहिए।''
''हम दोनो अच्छे दोस्त की तरह भी तो बात कर सकते हैं।''
''वह हम और तुम मान सकते हैं। मगर समाज इसे नजायज रिश्ता ही कहेगा।'' 

''क्यों हर बार तुम दूसरों के लिए मुझे त्याग देती हो कभी मेरे बारे में क्यों नहीं सोचती। क्यों नहीं मेरे लिए दूसरों को त्याग देती हो।''
''अपने लिए जीना कोई जीना नहीं होता जो दूसरों के लिए जीता है वही जीना हुआ। फिर जब प्यार के लिए त्याग करते हैं वही सच्चा प्यार है।'' इतना कह उसने फोन काट दिया था।
पॉच दिन बाद संगीता को मिट्ठू का पोस्ट मिला था। उसने किताब को देखा उसे अपने अटैची में छुपाकर रख दिया था।
मिट्ठू सोचता है संगीता को जब भी मेरी याद आती होगी तो वह मेरी किताब जरूर पढ़ती होगी। कभी ना कभी वह मुझे फोन पर मेरी किताब के विषय में कहेगी।
 
संगीता ने किताब को कभी अटैची से नहीं निकाला था। वह हमेशा डरती रही थी कही मेरे पति इस किताब को देख ना ले। वह पेपर बेचने वाले का इंतजार कर रही थी जब कभी भी वह आयेगा तो पेपर के साथ इस किताब को भी दे दूंगी। मगर सप्ताह भर बीत गया था। पेपर वाला नहीं आया था। उसने सोच लिया किताब को जला दूंगी
 
इसी बीच संगीता का पति राकेश आ गया था। तीन दिन रहने के बाद वापस चला गया था।
अगले दिन पेपर वाला आ गया था। संगीता पेपर को वजन करने को देकर अंदर कमरे में अटैची से किताब लेने चली गई थी। वह अटैची में देखती है वह किताब नहीं है। वह पूरी अटैची के कपड़े उलट देती है। मगर किताब नहीं मिलती है। संगीता को काटो तो खून नहीं। कुछ ऐसी स्थिति हो गई थी। वह घर का पूरा कोना- कोना छान मारती है पर किताब नहीं मिलती है। वह सोच में पड़ जाती है आखिर किताब गई कहा। हालत ऐसी की वह किसी से पूछ भी नहीं सकती थी। सो चुप हो गई थी।
पेपर वाला वजन के हिसाब से पैसे देकर चला जाता है।
 
वह उस दिन बार -बार याद करती है कि किताब तो मैंने अटैची में ही रखी थी। ऐसा तो नहीं किसी ने किताब को अटैची से निकाल लिया है। पर मेरी अटैची को मेरे सिवा कोई हाथ नहीं लगाता है।
करीब पन्द्रह दिनों बाद संगीता के पति दोबारा वापस आते है। रात के भोजन के वक्त कहते है,मैंने वह किताब पढी बहुत अच्छा उपन्यास था।'' इतना सुनते ही संगीता दंग रह गई। उसकी इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि वह पूछती आप किताब को कब लेकर चले गये। वह चुप रही। वह किताब की तारीफ करते जा रहे थे। वह संगीता को कहने लगे इस किताब को तुम भी पढना,एक लड़की जो एक लड़के से बेहद प्यार करती है मगर अपने मां-पिता से कुछ नहीं कह पाती है। और मां-बाप की एक ऐसे पसंद के लड़के से शादी करती है जिसे वह जानती नहीं और कभी देखा नहीं। उसे अपनी पूरी जिंदगी सौंप देती है। जैसे लड़के लड़की की अपनी कोई पसंद ना पसंद होती ही नहीं है। मां-बाप जिसके साथ हाथ बांध दे उसके साथ जिंदगी बितानी पड़ती है। आज भी हमारा समाज कितनी पुरानी सोच रखता है।

सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत
सम्पर्क- बी ब्लाँक-11,टिहरी विस्थापित कालोनी,ज्वालापुर,न्यू शिवालिकनगर,हरिव्दार,उत्तराखण्ड,249407
मोबा0- 9012275039
           
                            

 

सोमवार, 28 सितंबर 2015

समीक्षा - नमि मेरी आँखें : गोवर्धन यादव

         



      स्टार पब्लिकेशंन प्रा.लि. से प्रकाशित कविता संग्रह नमि मेरी आँखेंमारीशस के यशस्वी कवि राज हीरामन का यह दसवाँ कविता संग्रह अभी हाल में ही प्रकाशित होकर आया है. इससे पूर्व आपके नौ कविता संग्रह (1) कविताएं जो छप न सकीं (2)छपकर रहीं कविताएं (3) चुभते फ़ूल(4) हंसते कांटॆ (5)अंधेरे का उजाला (6) उजाले का अंधेरा (7) धरती तले अंधेरा (8) एक जमीन आसमान पर (9) नेहा की निधि प्रकाशित हो चुकी हैं. नमि मेरी आँखें. सद्यः प्रकाशित है..


इस कविता संग्रह में कुल 43 कविताएँ प्रकाशित है, जिसमें अधिकांश कविताएं वियोग को लेकर लिखी गई हैं. कवि ने संग्रह को जो शीर्षक दिया है तथा अपने वक्तव्य में इस बात का उल्लेख भी किया है कि ये कविताएं उनकी दिवंगत पत्नि श्रीमती नमि की विरह पीडा में  लिखी गई हैं. उन्हें केन्द्र में रखकर कवि ने अपने जज्बातों को उजागर करने का उपक्रम किया है. जिन्हें मैंने काव्य-भाषा, काव्य-अवधारणा, आदि को लेकर अपने विवेक के आधार पर कुछ वर्गों में बांटने का उपक्रम किया है. यथा-(i)स्वप्न बुनती कविताएँ और उसकी छायाओं को लेकर लिखी गईं कविताएं –आज, आए मौसम जाए मौसम, साथ संग, याद आती हो, रे तकिया, अमरत्व, शांति दूत, तमाम परिवर्तन और उतार-चढाव, तथा पेबंद पे पेबंद

(ii) रागात्मक संबंधों को लेकर बुनी कविताओं में –कर ले श्रृंगार सखी, सपने में आई थीं तुम, कहीं, टूटा पर झुका नहीं. हौले-हौले, अर्सों का प्यार

(iii) वियोग को लेकर कविताओं में-  ख्वाब बुने, साधना, कुछ आंसू, जख्मों पर पैबंद, कितना अच्छा था, सखी कहकर जाती, दर्दे घाव का फ़ूल, के लिए, आ जाओ तुम ,अलविदा, बोलती लाशें, मेरा दर्द, अलग रास्ते

(iv) प्रेम में डूबे मन को लेकर लिखी गईं कविताओं में- मत पूछ. एक गीत गा रहा हूँ. शब्द आदि

( v) बादल को उमडता-धुमडता देखकर लिखी कविताएं- जा रे बारिश, आ रे बादल, बादल बन के आउंगा, रूठकर आया हूँ, बादल घोडा, बारिश की रात

(vi) अन्य में- बिकाऊ है देश, किसमें कितना दम है, दुनिया गोल है, गुरु के दोहे, दिया हूँ मैं, हां मैं दर्द बेचता हूँ, आ रे पंछी, रॊटी और वोट, दिन शाम हुआ, बिम्ब, सूरज जेल में, आँखें, लगा आग पूंछ में, सूरज खोता नहीं, नीलकण्ठ, तथा चाचा रामगुलाम. आदि कविताओं को भी वर्गीकृत किया जा सकता है, विविधताओं से भरे इस संग्रह के लिए लेखक साधुवाद का पात्र है. संग्रह में वर्णित कविताओं को पढते हुए कहा जा सकता है कि-


कवि के भीतर मौजूद व्याग्रता, व्याकुलता और अधीरता के बावजूद भी ध्यान, मनन, चिंतन, धीरता, मंथरता और गंभीरता के साथ उनकी कविता ज्यादा दिखाई देती है. इन कविताओं में प्रेम की मधुर आँच है, प्रणय की उष्मा है, और प्रेम का लौकिक सौंदर्य है, जो देश और दुनियां की सीमाएं स्वीकार नहीं करता. निश्चित ही कहा जा सकता है कि आपका प्रेम असीम और निश्छल रहा है. कवि ने अपने रागात्मक संबंधों को लेकर एक काव्यात्मक दुनिया निर्मित करते हुए अपने दुख-सुख, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, संकल्प-स्मृतियों को अलग-अलग कोणॊं से उल्लेखित किया है. इन कविताओं को पढते हुए यह भी महसूस होता है कि तमाम तरह की ऎन्द्रिकता के बावजूद उनमें नारी के प्रति असीम सम्मान का भाव रहा है.


कवि ने अलक्षित रह जाने वाले प्रसंगों और भावों को पकडने की, एवं अपने आसपास के जीवन और जीवानुभवों में धंसते हुए उन तमाम बिंदुओं को पकडने की भी कोशिश की है. कविताएं तो कई बार डायरी के पन्नों की तरह पर्सनल बातों को उजागर करती प्रतीत होती हैं. पति-पत्नि के संबंधों पर आधारित कविताओं में एक ताप देखा जा सकता है, तो कहीं आलोचनात्मक टीपें भी हैं.


कवि अपने छॊटॆ-छॊटॆ निजी दुखों के बीच रहते हुए काव्य संभावनाओं का सफ़रनामा लिखने में उसका आत्मगत संसार बार-बार व्यक्त होता है. और उसने एक सचेत कवि की तरह अपने समय के सत्य को अपनी आँखों से देखने का और बतलाने का रास्ता चुना.कई छॊटी-छॊटी अन्य रचनाएं भी संग्रह में अपना विशेष स्थान बनाते हुए दर्ज हुई हैं,जिनकी गूंज देर तक मन में बनी रहती है.

संकलन की  कविताएं राज हीरामन के रचनाकार के आत्म का पारदर्शी प्रतिरूप है. छ्ल-छद्म, दिखावेपान और सारी बनावट से दूर, लाभ, लोभ वाली आज की खुदगर्ज दुनिया में, एक सरल, सहज,निष्कुंठ, निर्मल मन से हमारा सादर अभिवादन. 

पुस्तक समीक्षा : नमि मेरी आँखें कवि- राज हीरामन
संपर्क-

103, कावेरी नगर, छिन्दवाडा(म.प्र.) 480001
मोबा0-09424356400 (संयोजक म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति)
 छिन्दवाडा                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                            

रविवार, 20 सितंबर 2015

बेटियों का भी हो सम्मान : प्रदीप लाल आर्य





उत्तराखण्ड के टिहरी गढ़वाल में जन्में बी0 0 की पढ़ाई कर रहे प्रदीप लाल आर्य ने इधर कुछ कविताएं लिखने की कोशिश की है। एकाध पत्र -पत्रिकाओं में छपने के बाद पहली बार किसी ब्लाग में । स्वागत है इस युवा स्वर का।


1- बेटियों का भी हो सम्मान 

जग में फैलेगा जब ज्ञान
होगा तभी बेटियों का सम्मान
जो रखते  बेटों से लगाव
और बेटियों को देते घाव
बेटा यदि घर लौटे  देर
बोलेंगे बेटा है शेर 
दुनियाँ की है कैसी सोच
और बेटियों के सपने नोच 
बेटियां होती हैं नन्हीं जान
हंसती -खेलती , सुन्दर संतान
अगर कभी हो जाती देर
प्रश्नों के रख देंगे ढेर
बेटों को देते सम्मान
फिर बेटियों का क्यों अपमान ?

2- क्यों करते पेड़ों का नाश

क्यों करते पेड़ों का नाश
इन्हीं से मिलती हमको सांस
करोगे सब पेड़ों से प्यार
यही हमारे सच्चे यार
क्यों इनसे अपना मुख मोड़ा
पेड़ों को हमने क्यों तोड़ा
पेड़ हमें देते हैं जीवन
फिर क्यों छिनते इनसे यौवन
जब मानव को है यह ज्ञान
काम करते फिर क्यों अज्ञान
पेड़ों पर न हथियार चलायें
अपनी मौत खुद क्यों बुलायें
पेड़ों पर है निर्भर जीवन
फिर क्यों छिनते इनसे यौवन
पेड़ों के कारण मिलता पानी
इन्हें काटने की फिर क्यों ठानी
पेड़ तो हैं पृथ्वी का गहना
न काटो इन्हें मानो कहना
इनको देख के मन खुश होता
फिर क्यों इनको दुश्मन माने
पेड़ हमें देते हैं छाया
यही तो है प्रकृति की माया
पेड़ रोकते हैं प्रदूषण
फिर क्यों करते इनका शोषण
काटोगे तो हर्ज हमारा
इन्हें बचाना फर्ज हमारा।


संपर्क-

प्रदीप लाल आर्य
राजकीय महाविद्यालय , चन्द्रबदनी , नैखरी टिहरी गढ़वाल , उत्तराखण्ड
Email- parya0497@gmail. Com
Mo-9756461704



रविवार, 13 सितंबर 2015

शैलेय की चार कविताएँ


कविमित्र खेमकरण सोमनके माध्यम से शैलेय  की ये कविताएं प्राप्त हुई हैं। शैलेय को इनकी छोटी छोटी कविताओं के लिए जाना जाता है। इधर के कुछ वर्षों में इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित और चर्चित भी हुई हैं।
 


शैलेय की चार कविताएँ
 1.प्लीज

क्या कहा
एक मछली
सारे तालाब को गंदला कर देती है?
लौट आना पड़ता है??

निरी मूर्खता

आओ
जरा इधर आओ
मेरे पास

कभी सूरज को देखा है?
अकेला ही
सारे संसार में उजाला करता है

इतना ही नहीं
रात के दौरान भी
वह
चाँद सितारों की टीम भेज देता है
वैसे भी
कैसी भी मछली हो
नदी तो कभी गंदा नहीं होती

पोखर बनाकर
पानी न सड़ाओ!
मछली को
अपने बहाव में बहने दो प्लीज!

हाँ,
शिकार का इतना ही शौक है अगर
तो कितने साँप हैं
जहर भी मिटेगा
कुछ मांस भी मिलेगा!!


 2. संस्कार

जो छोड़ता ही जाता है अपनी
धरती
न चाहते हुए भी
डूब जाता है समुद्र में

संभव है
भागमभाग में ही उखड़ जाए
दम

इसलिए
जब कभी जान पर बन आए
आदमी को
आत्मा भिड़ा देनी चाहिए

वैसे भी
आप तो मानते ही हैं कि
आत्मा अमर है
अजर है सदैव ही

फिर
बच्चे भी हमें देख रहे हैं कि
अपनी जमीन पर
आखिर कैसे खड़ा रहा जाता है।

 3.हमेशा ही

लोग कहते हैं/रात गई
बात गई

लेकिन
मैं गाता हूँ
जैसा कि पाता हूँ
हमेशा ही/रात ढह जाती है
बात रह जाती है।

 4.घर

दो आदमी हों
या कि सौ देश
कभी-कभी बहस
झगड़े तक भी पहुँच जाती है
युद्ध हो जाते हैं
नरसंहार..........

दुनिया में
केवल घर ही है
जो
रूठे हुए की भी चिन्ता करता है।


सम्पर्क- 
शैलेय
बीटा-24, ऑमैक्स, रूद्रपुर, जिला-ऊधम सिंह नगर, उत्तराखण्ड-263153
मो0-09760971225


शनिवार, 5 सितंबर 2015

संस्मरण-जब मैं बीड़ी पीता था-रणीराम गढ़वाली



     समकालीन रचनाकारों में अपनी पहचान बना चुके रणीराम गढ़वाली का जन्म 06 जून 1957 को ग्राम मटेला जिला पौड़ी गढ़वाल , उत्तराखण्ड में हुआ था। इनकी कहानियां देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रही हैं। अब तक इनकी प्रकाशित कृतियों में -पखेरू, पतली गली का बंद मकान, खण्डहर, बुराँस के फूल, देवदासी, व शिखरों के बीच (कहानी संग्रह) प्रकाशित। आधा हिस्सा ( लघु कथा संग्रह)  तथा  दो बाल कहानी संग्रह। शीघ्र ही दो कहानी संग्रह मेरी चुनिंदा कहानियां व पिता ऐसे नहीं थे, जनवरी विश्व पुस्तक मेले तक प्रकाशित।

अनुवाद-  कन्नड़, तेलगू ,व असमिया भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद।
सम्प्राप्ति- उत्तरांचल जनमंच पुरस्कार व साहित्यालंकार की उपाधि से सम्मानित।
सम्पादन-  काव्य संग्रह हस्ताक्षर का सम्पादन।
     अभी हाल ही में श्री गढ़वाली जी के बड़े भाई का आकस्मिक निधन हुआ है । शिक्षक दिवस पर शिक्षक सदृश्य भाई को पुरवाई परिवार नमन करता है । प्रस्तुत है संस्मरण- जब मैं बीड़ी पीता था


                      कवि मित्र गणेश गनी की वाल से साभार

      यह घटना तब की है जब मैं स्कूल पढ़ता था। तब मुझे बीड़ी पीने की लत लग गई थी। उस वक्त मुझे यह पता नहीं था कि बीड़ी पीना सेहत के लिए कितनी हानिकारक होती है। ;इसे पीने से कैंसर, टी. बी. व दमा जैसी गम्भीर बीमारियां लग जाती हैं।द्ध जब मेरे पास बीड़ी नहीं होती थी तो मैं चुपके से अपने पिता की जेब में से बीड़ी चुरा लिया करता था। सुबह स्कूल जाते हुए मै आधी बीड़ी पीता और फिर उसे बुझाकर आधी बीड़ी मैं हाफ टाइम में पीता था। पिता के जेब से बीड़ी चुराने की खबर न तो कभी पिता को ही लगी और न ही घर में किसी को पता चला कि मैं बीड़ी पीता हूँ। लेकिन एक बार मेरे बड़े भाई साहब दिलाराम गढ़वाली गाँव आए हुए थे। वे दिल्ली रेलवे में नौकरी करते थे। एक दिन जब वे अपने ससुराल जाने लगे तो उन्होंने मुझे भी साथ चलने को कहा। मैं बड़ा खुश हुआ और उनके साथ चलने के लिए जल्दी से तैयार हो गया था। क्योंकि इससे पहले मैं कभी भी उनके ससुराल नहीं गया था। जब हम दोनों भाई बाजार में पहुँचे तो उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘यहाँ सिगरेट मिलती हैं?’’
    ‘‘हाँ...।’’ मैंने कहा।
    ‘‘कौन-कौन सी...?’’

    मैंने तुरन्त ही उन्हें कुछ नाम बताते हुए कहा, ‘‘पनामा, गोल्डन गोल्ड फ्लैक, कवैंडर्स...विल्स...।’’ और भी कई नाम थे जो अब मुझे याद नहीं हैं। लेकिन जितनी बिकती थी वे सभी बता दिए थे।

    मेरे शब्दों को सुनकर वे मुस्कराते हुए बोले, ‘‘इनमें सबसे अच्छी सिगरेट कौन सी है?’’
    ‘‘गोल्डन गोल्ड फ्लैक।’’ मैंने तत्परता से जवाब दिया।
    भाई साहब ने मेरे बताए अनुसार गोल्डन गोल्ड फ्लैक की एक डिब्बी ले ली थी। बाजार से भाई साहब के ससुराल के लिए चढ़ाई का रास्ता था। इसलिए चढ़ाई चढने के बाद पहाड़ की चोटी पर पहुँचकर जब हम सुस्ताने के लिए बैठे तो भाई साहब ने मेरी ओर सिगरेट की डिब्बी बढ़ाते हुए कहा, ‘‘ले सिगरेट पी।’’

    उनके इस ब्यव्हार को देखकर मैं घबरा गया था। मेरे चेहरे का रंग उतर गया था। अपनी घबराहट पर काबू पाने की कोशिश करते हुए मैंने कहा, ‘‘दद्दा मैं सिगरेट नहीं पीता।’’
    ‘‘अगर तू सिगरेट नहीं पीता तो बाजार में बिकने वाली सिगरेटों के बारे में तुझे कैसे पता कि गोल्डन गोल्ड फ्लैक अच्छी है? इसका मतलब यह है कि तू सिगरेट पीता है। ले सिगरेट पी? डर मत...। जो काम करना है वह सामने करो। चोरी-चोरी नहीं। पीता है तो पी।’’

   मैंने एक बार दद्दा की ओर देखा और फिर मैं डिब्बी में से सिगरेट निकाल कर पीने लगा तो दद्दा मुस्कराते हुए बोले, ‘‘इसका मतलब है कि तू पिता की जेब में से भी बीड़ियां चुराकर पीता होगा।’’
   मैंने हाँ में अपना सिर हिला दिया था।
   ‘‘चोरी करना बुरी बात है। बीड़ी पीनी है तो पिता से मांगो। छोटी-छोटी चीजें चोरी करते-करते आदमी बड़ी-बड़ी चोरियां करने लगता है। आज के बाद कभी भी पिता की जेब से बीड़ी मत चुराना। मैं तुम्हारे लिए दिल्ली से तुम्हारे नाम पर, तुम्हारे स्कूल के पते पर खर्चा भेज दिया करूँगा।’’

   दद्दा की बातें सुनकर मेरी नजरें झुक गई थी। मैंने सिगरेट तो ले ली थी। लेकिन अब मेरी हालात ऐसी हो गई थी कि न तो मैं सिगरेट ही फेंक पा रहा था और न ही मेरा सिगरेट पीने का मन ही कर रहा था। मैं दद्दा की नजरों में अपने आपको एक अपराधी महसूस करने लगा था। उस वक्त तो जैसे-तैसे मैंने वह सिगरेट पी ही ली। लेकिन मैंने उसी वक्त अपने मन में निश्चय किया कि आज के बाद मैं कभी बीड़ी नहीं पियूँगा, और न ही मैं पिता की जेब से बीड़ी चोरी करूँगा। जब तक दद्दा गाँव में रहे। मैं उनसे दूरियां बनाए रहा। हमेशा एक ही डर रहता था कि वे अन्य लोगों के सामने मुझे बीड़ी पीने के लिए न कह दें।

   उसके बाद जब दद्दा छुट्टियाँ बिताने के बाद वापस दिल्ली लौटे मैंने राहत की सांस ली। लेकिन उसके बाद मैंने आज तक कभी बीड़ी नहीं पी। अब से छः महीने पहले जब मैं दिल्ली में दद्दा के घर उनसे मिलने जाता तो वे इस बात को छेड़ते हुए हँसने लगते थे। उस वक्त मैं उनसे कहता, ‘‘दद्दा...कोई भी बड़ा अपने से छोटे के लिए यह नहीं कहता कि बीड़ी पी और आपने मुझे सिगरेट पिलवा दी।’’

   दद्दा हँसते हुए कहते, ‘‘समझदार के लिए इशारा ही काफी होता है। प्यार से जो काम होता है वह जोर-जबरदस्ती से नहीं होता। मैं तुझे थप्पड़ मारता तो तू आज भी बीड़ी पी रहा होता। मुझे पूरा यकीन था कि तू अब फिर कभी बीड़ी नहीं पिएगा। और वही हुआ जो मैं चाहता था।’’

   आज दद्दा नहीं हैं। लेकिन दद्दा की बातें व उनकी यादें मेरे लिए प्रेरणास्रोत बनकर मेरे जीवन को सींच रही हैं।

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सोमवार, 31 अगस्त 2015

लव-जिहाद जैसा कुछ नहीं... अनवर सुहैल







       अनवर सुहैल का समकालीन रचनाकारों में महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी लेखनी को कविता, कहानी ,उपन्यास आदि विधाओं में एकाधिकार प्राप्त है। इस वर्ष इन्हें मध्य प्रदेश सरकार का प्रतिष्ठित वागीश्वरी पुरस्कार भी प्रदान किया गया है। इनकी कहानी को पढ़ने के बाद कई मिथक टूटते से नजर आ रहे हैं। तो प्रस्तुत है इनकी कहानी -लव-जिहाद जैसा कुछ नहीं...








      रूखसाना से इस तरह मुलाकात होगी, मुझे मालूम न था.चाय लेकर जो युवती आई वह रूखसाना थी. जैसे ही हमारी नज़रें मिलीं...हम बुत से बन गए. बिलकुल अवाक् सा मैं उसे देखता रहा. एकबारगी लगा कि खाला क्या सोचेंगी कि उनके घर की स्त्री को मैं इस तरह चित्रलिखित सा क्यों देख रहा हूँ?खाला सामने बैठी हुई थीं.खाला ने मुझे इस तरह देखा तो बताने लगीं--अच्छा तो तुम इसे जानते हो...ये रुखसाना है, गुलजार की बीवी.  अल्लाह का फ़ज़ल है कि बड़ी खिदमतगार है. दिन-रात सभी की खिदमत करती है. तुम्हारे गाँव की तो है ये. अपने इनायत मास्साब की लड़की.’’


      मैंने उन्हें बताया—“इनके अब्बू ने हमें पढ़ाया है खाला...मैं तो इनकी घर ट्यूशन पढने जाया करता था..!और इनायत मास्साब का वजूद मेरे ज़ेहन में हाज़िर हो गया.हमारे प्रायमरी स्कूल के शिक्षक इनायत मास्साब.नाम से बड़ा रवायती तसव्वुर उभरता है, लेकिन इनायत मास्साब बड़े माडर्न दीखते थे. क्लीन-शेव्ड रहते और अमूमन ग्रे पेंट और सफ़ेद शर्ट पहना करते. ठण्ड के दिनों में वे इस ड्रेस पर एक ग्रे कोट डाल लिया करते. बड़े स्मार्ट-लूकिंग थे मास्साब.उनकी तीन लड़कियां थीं.बड़ी का नाम उसे याद नही क्योंकि वो ससुराल जा चुकी थी, दूसरी का नाम शबाना था और सबसे छोटी रुखसाना...शबाना स्थानीय गर्ल्स कालेज में पढ़ती थी.रुखसाना और मैं एक ही कक्षा के विद्यार्थी थे लेकिन स्कूल अलग-अलग था हमारा.

      मैं गणित में काफी कमज़ोर था, सो अब्बा मुझे गणित पढ़ने के लिए इनायत मास्साब के घर भेजा करते थे.मुझे गणित विषय अच्छा नही लगता था लेकिन मेरी रूचि गणित के बहाने रुखसाना में ज्यादा थी.जब मैं उनके घर पहुंचता तब दरवाज़ा रूखसाना ही खोलती और फुर्र से अंदर भाग जाती इस आवाज़ के साथ--अब्बू, पढने वाले आ गए!


     उसने कभी ये नहीं कहा कि शरीफ आया है...ट्यूशन पढ़ने. पता नही क्यों वो मेरा नाम न लेती थी...बहुत खतरनाक टीचर थे इनायत मास्साब, जो भी चेप्टर समझाते इस ताईद के साथ कि न समझ आया हो तो पढाते समय पूछ लो. एक बार नहीं दस बार पूछो...हर बार समझायेंगे वे..लेकिन इसके बाद यदि सवाल नहीं बना तो फिर बेंत की मार खानी होगी. वे बेंत इस तरह चलाते की हथेली लाल हो जाती और चेहरा रुआंसा.एक और खासियत थी उनकी. सवाल का जवाब नहीं लिखाते थे. बच्चों को जवाब लिखने को प्रेरित करते. वे कहते कि दिखाओ कैसे कोशिश की सवाल का जवाब पाने की.बड़े ध्यान से बच्चों के जवाब देखते और बताते कि सवाल हल करने का तरीका कितनी दूर तक ठीक था और कहां से रास्ता भटक गया है. यह भी कहा करते कि गणित में सबसे महत्वपूर्ण बात होती है सवाल को समझना. यदि सवाल सही न समझा गया तो कितना बड़ा फन्नेखां हो सवाल हल नहीं कर पाएगा. इसलिए अव्वल बात ये कि सवाल भले से याद हो फिर भी जवाब लिखने से पूर्व सवाल को अच्छी तरह पढ़ा और समझा जाए. हम बच्चे उनकी इस शिक्षा को जीवन के हर स्तर पर खरा उतरता पाते.

      मेरे हिसाब से बच्चे उस शिक्षक की ज्यादा कद्र करते हैं और उससे डरते भी हैं जिसके बारे में उनके बाल-मन में यकीन हो जाए कि ये शिक्षक विलक्षण ज्ञानी है. कहीं से भी पूछो और कितना कठिन प्रश्न पूछो चुटकी बजाते हल कर दिया करते थे. मुझे उनमे एक रोल-मॉडल दीखता...मैं भी बड़ा होकर उन्ही की तरह का ज्ञानी-शिक्षक बनने के ख़्वाब देखने लगा था.ठीक इसके उलट बच्चे उन शिक्षकों का मज़ाक उड़ाते, जिनके बारे में जान जाते कि इस ढोल में बड़ी पोल है.उनमे हिंदी के अध्यापक का नाम सबसे ऊपर था.वैसे भी विज्ञान के बच्चे हिंदी के शिक्षकों का मज़ाक उड़ाया करते हैं.हिंदी के अध्यापक उर्फ़ जेपी सरन उर्फ़ उजड़े-चमन….


          मुझे नही मालूम लेकिन ये बात कितनी सही है कि हिंदी का अध्यापक कवि ज़रूर होता है.कवि भीऐरागैरा नही. तुलसीदास से कुछ कम और निराला से कुछ ज्यादा.उनकी बात माने तो कविता वही है जैसी जेपी सरन उर्फ़ उजड़ेचमन लिखते हैं.बच्चे उनकी इतनी हूटिंग करते लेकिन वाह रे सर की मासूमियत, वे समझते की उन्हें दाद मिल रही है.इनायत मास्साब को हम सर भी कह सकते थे, लेकिन नगर के उम्रदराज़ शिक्षक थे इनायत मास्साब.जब शिक्षकों को गुरूजी कहा जाता था उस वक्त भी उन्हें मास्साब का लकब मिला हुआ था.जाने कितने लेखको की गणित की किताबों का अध्ययन उन्होंने किया हुआ था.

        हम तो सोचा करते कि इनायत मास्साब खुद ही  सवाल  बना लिया करते हैं.काहे कि अपनी देखी भाली किसी किताब में वैसे सवाल नही मिलते थे.इनायतमास्साब मुझे पसंद करते थे क्योंकि मैं सवाल हल करने का वास्तव में प्रयास करता था. मेरी कापी के पन्ने इस बात के गवाह हुआ करते.इनायत मास्साब के ट्यूशन ने गणित को मेरे लिए खेल बना दिया था...

        वे कहा करते...मैथेमेटिक्स एक ट्रिक होती है. जिसे महारत मिल जाए उसकी बाधाएं दूर...जब मास्साब ट्यूशन पढ़ाते उस दरमियान एक बार रूखसाना पानी का गिलास लेकर आती थी.वैसे भी किशोरावस्था में किसी को कोई भी लड़की अच्छी लग सकती थी. लेकिन रूखसाना इसलिए भी अच्छी लगती थी कि उसे मैं काफी करीब से देख सकता था. वह दरवाज़ा खोलती थी. अपने पिता के लिए पानी का गिलास लाती थी.

       ईद के मौके पर मुझे भी सेवईयां मिल जातीं. उनके घर की शबे-बरात के  समय सूजी और चने की कतलियां तो बाकमाल हुआ करतीं थीं, क्यूंकि उन कतलियों में  रूखसाना का स्पर्श भी छुपा होता था.वह ज़माना ऐसे ही इकतरफा इश्क या इश्क की कोशिशों का हुआ करता था.तब मोबाईल, फेसबुक या व्हाटसएप नहीं था. मिस-काल या साइलेंस मोड की सवारी कर प्यार परवान नहीं चढ़ा करता था.चिट्ठियां लिखी जाएं तो पकड़े जाने का डर था.और यदि लड़की चिट्ठी अपने पिता या भाई को दिखला दे या कि चिट्ठियां ओपन हो जाएं तो फिर शायद कयामत हो जाए...ऐसे दुःस्वप्न की कल्पना से रोम-रोम सिहर उठे.

     कुछ बद्तमीज़ लड़के थे जो जाने कैसे पिटने की हद तक जलील होकर इश्क करते थे और राज़ खुलने पर खूब ठुंकते भी थे.इस तरह मैं यह फ़ख्र से कह सकता हूं कि रूखसाना मेरा पहला इकतरफा प्यार थी.बड़ा अजीब जमाना था. बात न चीत, सिर्फ देखा-दाखी से ही सपनों में दखल मिल जाता.इस रुखसाना ने मेरे ख़्वाबों में बरसों डेरा डाला था.कभी देखता कि पानी बरस रहा है,मैं छतरी लेकर घर लौट रहा हूँ.रुखसाना किसी मकान के शेड पर बारिश रुकने का इंतज़ार कर रही है और फिर मुझे देख  मेरी ओर बढती है. मैं उसे इस तरह छतरी ओढाता हूँ  कि  वह  न  भीगे... भले  से  मैं  भीग  जाऊं. कभी  ख़्वाब  में  वह  मेरे  घर  आकर  मेरी  बहनों के साथ लुकाछिपी खेलती होती और मुझे घर में देख अचानक अदृश्य हो जाती.आह,वो ख्वाबों के दिन...किताबों के दिन...सवालों की रातें...जवाबों के दिनवही मेरे सपनो वाली रुखसाना इस रूप में मेरे सामने थी और मैं चित्र-लिखित



    कुछ साल बाद मैं बाहर पढ़ने चला गया.अपने कस्बे में अब कम ही आ पाता था.मेरे ख्याल से जब मेरा तीसरा सेमेस्टर चल रहा था तभी दोस्तों से पता चला था कि इनायत मास्साब की बेटी रूखसाना की कहीं शादी हो गई है. शादी हो गई तो हो गई. मुझे क्या फर्क पड़ सकता था. मुझे तो शिक्षा पूर्ण कर अच्छे प्लेसमेंट का प्रयास करना था. उसके बाद ही शादी के बारे में सोचता. घर से कोई दबाव नहीं था. अब्बू चाहते हैं कि मैं अभी प्लेसमेंट के बारे में न सोचूं और पीजी करूं. पीएचडी करूं. फिर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर लग जाऊं.


     अब्बू का मानना है कि दुनिया में प्रोफेसर या शिक्षक से बढ़कर कोई नौकरी या काम नहीं है. कितनी इज़्ज़त मिलती है प्रोफेसरों को. जिन बच्चों को पढ़ाओ, एक तरीके से वे मुरीद बन जाते हैं....पीरों-फकीरों वाला पेशा है प्रोफेसरी. मुझे भी यही लगता कि मेहनत इस तरह की जाए कि मां-बाप  के ख़्वाब भी पूरे हों और भविष्य भी सुनिश्चित रहे.शिक्षक, वकील  या डॉक्टर कभी रिटायर नही होता...ताउम्र उनकी सेवायें ली जा सकती हैं.बुजुर्गों की दुआओं से वही हुआ और मैंने पीएचडी की, अन्य  अर्हताएं  प्राप्त  कीं  और  एक  मानद  विश्वविद्यालय में  सहायक प्राध्यापक बन गया.बाल-बच्चेदार  हो  गया... दुनियादार  हो  गया...समझदार हो गया...लेकिन दिल के कोने में एक बच्चा,एक किशोर,एक युवक हमेशा उत्सुकता से छिपा बैठा रहा. यही मेरी प्रेरणा है और यही मेरी ताकत.


      मैं अपनी खाला से मिलने काफी अरसे बाद आया था.अनूपपुर में बस-स्टेंड से लगा है खाला का घर. अम्मी के इंतेकाल के वक्त खाला मिलने आई थीं. लगभग दस साल बाद उन्हें देखा था. आसमानी रंग का सलवार-सूट पहने थीं वो जिस पर सफेद चादर से बदन ढांप रखा था उन्होंने. हमारे खानदान में बुरके का चलन नहीं है. मेरी अम्मी भी बुरका नहीं पहनती थीं. जिसे बुरा लगे या भला, मुझे बुर्के का काला रंग एकदम पसंद नही. जाने  कब  और  कहाँ  बुर्के  के  इस  प्रारूप का चलन शुरू हुआ...आजकल शहरों में लडकियां कितनी खूबसूरती से चेहरा ढाँपती हैं. एक  से  बढ़कर  एक  सुन्दर  से  स्कार्फ  मिलते  हैं. डिज़ाइनर-स्कार्फ. जिनसे चेहरा छुपता  तो  बखूबी  छुपता  है  लेकिन  लडकियाँ बुर्केवालियों  की  तरह  अजूबा  नही  दीखतींमेरा  उद्देश्य बुर्के  की  बुराई  करना  नही  है, लेकिन  खाला  के  घर  में  रुखसाना  को देख विचार यूँ ही भटकने लगे थे.


     मुझे अच्छी तरह मालुम था कि खाला के बेटे गुलज़ार भाई की शादी तो बहुत पहले खाला की रिश्तेदारी में ही कहीं हुई थी. फिर गुलज़ार  भाई  के पहले  बच्चे को जन्म  देने की बाद लम्बी   बीमारी के  बाद वह चल बसी थी. गुलज़ार   भाई  उसके  बाद दुकानदारी  और तबलीग  जमात के  काम किया  करते थे. एक   बार  हमारे  शहर  में  गुलज़ार  भाई आये थे एक तबलीगी जमात के साथ. शायद  चिल्ला  (चालीस दिन) का  इबादती   सफ़र  था. मैं  जुमा  की  नमाज़  के  लिए  वक्त   निकाल  ही  लेता  हूँ. जुमा के  जुमा  मुसलमानी का नवीनीकरण  करता रहता हूँ.मोहल्ले की मस्जिद में मासिक  चन्दा  भी  देता  हूँ. मस्जिद के इमाम,सदर-सेक्रेटरी  और  अन्य  नमाज़ी  मुझे  काफी  अदब से देखते हैं. मेरा  आदर  करते  हैं. विश्वविद्यालय  में  प्रोफेसर  होने के अलग फायदे हैं.समाज के हर तबके से  आदर मिलता है.


            तो गुलज़ार भाई ने फोन किया था कि तुम्हारे शहर में तबलीग के सिलसिले में आ रहा हूँ.इसमें जमात  छोड़ कहीं घूमने-फिरने की आज़ादी नही होती. इसलिए  संभव  हो  तो  मस्जिद  में  आकर  मिलो. जुमा  की  नमाज़  से  फारिग  होकर  हम  मिले. अजीबो गरीब  दीख  रहे  थे  गुलज़ार  भाई. पहले  कितने  हैंडसम  हुआ  करते थे वो...जींस और टी-शर्ट के  शौक़ीन... लेकिन  उस  दिन  मैं  उन्हें पहचान नही पाया...मेहँदी रची दाढ़ी, माथे पर काला निशान, गोल टोपी, लम्बा  सा  कुरता  और  उठंगा पैजामा….


          मैं हतप्रभ रह गया.वैसे मुसलमानों की ये परम्परागत पोशाक है.लेकिन अपने गुलज़ार भाई इस मुद्रा में मिलेंगे ऎसी उम्मीद नही थी. मुझे हंसी आई. गुलज़ार  भाई  गंभीर  दिखे  और  मुझसे  हाल-चाल  पूछने की जगह दुनियादारी त्याग कर समय रहते दीन के राह में  चलने  की  दावत देने लगे. तबलीग  जमात  में  लोगों  को  यात्रा  में  निकलने  की  गुजारिश करने को दावत देना' कहते  हैं. ये  प्रत्येक  तबलीगी  का  काम है कि वो मुसलमानों को दीन और  धर्म  का  पालन  करने  की दावत दें.उनसे घर छोड़ कर दीन की  राह  में  निकल  पड़ने  का  आग्रह  करें  और  गुमराही  में  भटकने  से बचा लें.तब  लीग  जमात  का  काम  सारी  दुनिया  में  ज़ारी  है. गुलज़ार  भाई  जैसे  धर्मप्रेमी  लोग  अपने जीवन में रसूल की सुन्नतें लाने के लिए...अपना आखिरत (परलोक)संवारने के लिए  तबलीग में दस या चालीस दिन के लिए घर छोड़ कर विभिन्न कस्बों-शहरों  की  मस्जिदों  में  कयाम  करते  हैं. सादा  जीवन,सादा भोजन और इबादतें करते रहते हैं. एक  चिल्ला  काटने  के  बाद  उनकी  दुनियावी  आदतों  में  दीन  ऐसा  पेवस्त  हो  जाता  है  कि  एक  तरह  से  उनका कायाकल्प  हो जाता है.   न  जाने  मुझे  क्यों  इन  तबलीगी  लोगों से चिढ होती है.घर-बार  छोड़  कर  इस्लामी जीवन पद्धति  सीखना  मुझे  पसंद  नही. दुनिया  की  रोज़मर्रा  की  उलझनों  के  बीच  रहकर  दीन पर  कायम  रहना  ज्यादाकठिन है.



       खैर...पत्नी के निधन के बाद इंसान में ऐसी तब्दीली आती होगी ऐसा मैंने  सोचा  था.मैंने  गुलज़ार  भाई  की  बातें  ध्यान  से  सुनी  थीं  और  हस्बे- मामूल  उन्हें यही जवाब दिया--इंशा-अल्लाहपहली फुर्सत  में एक  चिल्ला  मैं भी काटूँगा...अभी नौकरी नई है भाई साहेबथोड़ी मुहलत दें!


     बात आई-गई हुई. गुलज़ार भाई  से फिर  मेरी मुलाकात नही  हुई. आज  जब  खाला के घर में हूँ. रुखसाना  मेरे  सामने  है  तो  जाने  कितने  खयाल आ-जा  रहे  हैं. खाला  ने  मुझे  उस  दिन  जाने  न  दिया.मैं रुक गया.शाम की चाय खाला के साथ पी.फिर खाला पड़ोस में एक जनाना मीलाद में चली गईं.रुखसाना और मैं अकेले रह गये.इधर-उधर की बातें हुईं फिर मेरी जिज्ञासा ने जोर मारा और हम मुद्दे पर आ गए. रुखसाना  ने  झिझकते  हुए  जो  किस्सा  बताया  उसे  सुन  मेरे  होश  उड़  गए.ये रुखसाना की दूसरी शादी है.


     रुखसाना की पहली  शादी जिस युवक से हुईवो  अपने  पडोस  की  एक  हिन्दू  लडकी  से  प्यार  करता  था. युवक  ने घर  वालों  के  दबाव  में  आकर  रुखसाना  से  निकाह  तो  पढवा  लिया  था, लेकिन  उस  हिन्दू  लडकी से  अपना  संपर्क  नही  तोड़ा  था. और  एक  दिन  नगर  में  खबर  फ़ैल  गई  की  रुखसाना  का  शौहर  उस  हिन्दू  लडकी  को  लेकर  कहीं भाग गया है.नगर में हिन्दू मुस्लिम  फसाद  के  आसार  हो  गए. लडकी का परिवार नगर के संपन्न लोगों का था. बड़े  रसूख  वाले  लोग  थे वे लोग.

      रुखसाना के शौहर के खिलाफ लड़की भगा ले जाने का अपराध पंजीबद्ध हुआ.नगर के कई संगठन इस घटना से तिलमिलाए हुए थे. शुक्र है तब लव-जिहाद' शब्द उस कस्बे में नही पहुंचा था. हाँ, कुछ सिरफिरे ज़रूर इस केस को हवा देना चाह रहे थे. उनका मानना था कि मुसलमान लडकों में गर्मी ज्यादा होती है, तभी तो वे उंच-नीच नहीं देखते और ऐसी हरकतें कर बैठते हैं कि उन लोगों की ठुकाई का मन करता है.

     रुखसाना ने बताया कि ऐसे हालात बन गये थे कि यदि कोई भी पक्ष थोडा सा भी तनता तो फिर उस आग में सब कुछ जल कर भस्म हो जाता.खुदा का शुक्र था कि दोनों तरफ समझदार लोगों की संख्या अधिक थी. फिर  भी  कई  दिनों  तक  दोनों  पक्षों  में  तनातनी  बनी रही. दोनों  समुदाय  के  रसूखदार  लोगों  के  बीच  नगर  में  पंचायत  हुई. अब सुनते हैं की वे लोग घर से भागकर सूरत चले गये थे. युवक वहां किसी फैकट्री में काम करने लगा और दोनों सुकून से  दाम्पत्य  जीवन गुज़ार रहे हैं.और जो भी हुआ हो उसके आगे...लेकिन रुखसाना अपने मायके वापस आ गई.इनायत मास्साब ने रुखसाना के लिए आनन्-फानन रिश्ते खोजने लगे.



             उसी समय गुलज़ार भाई की बीवी का इन्तेकाल हुआ था. गुलज़ार  भाई  की  पहली बीवी  से  पैदा  संतान  अब  स्कूल  जाने  लगी  है. लेकिन  उस  समय  तो खाला को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा  था. ऐसे  में  मेरी  अम्मी  ने  खाला  से  रुखसाना  प्रसंग  पर  बात  की. रुखसाना  को  देखने  खाला आई थीं और उन्होंने रुखसाना को गुलज़ार भाई के बारे में, अपनी मृतक बहु के बारे  में और गुलज़ार भाई  की  नन्ही  सी  औलाद  के  बारे  में साफ़-साफ़ बता दिया था.


       रुखसाना शादी-ब्याह के मसले से उकता चुकी थी.इस नए रिश्ते के लिए मानसिक रूप से वह तैयार नही हो पा रही थी.वह घबरा रही थी, लेकिन फिर इनायत मास्साब की बुजुर्गियत, मोहल्ले  की  बतकहियाँ  आदि  ने उसे एक नया फैसला लेने दिया.और घुमा-फिरा कर रुखसाना का निकाह एक सादे समारोह में गुलज़ार भाई से हो गया.


        हम बहुत देर तक खामोश बैठे रहे और बेदर्द समय की हकीकत को महसूस करते रहे......


सम्पर्क:  टाईप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी
          जिला अनूपपुर .प्र.484440 

        फोन 09907978108