शुक्रवार, 1 मई 2020

युवा कवि चन्द्र की कविता-रात के ठीक बारह बज रहे हैं




  असोम के कार्बीआंगलांग जिले में एक किसान परिवार में जन्में युवा कवि चन्द्र ने कविता लेखन के साथ श्रम की एक नयी परिभाषा गढ़ी है । मजदूर दिवस पर प्रस्तुत है उनकी एक कविता-

रात के ठीक बारह बज रहे हैं


रात के ठीक बारह बज रहे हैं
मैं अकेले सुदूर खेतों में 
गेहूँ का खेत अगोर रहा हूँ 
और आप अभी इस वक्त 
एक नहीं,कई-कई मछरदानियों के भीतर
कई-कई राजाईयों के भीतर 
रजाओं की तरह गर्म साँस ले रहें होंगे! 

मेरी खतरनाक खाँसी बढ़ती जा रही है
मेरा जिस्म बर्फ का पत्थर हुआ जा रहा है
मेरे पास माचिस की एक तीली भी नहीं बची है 
खैनी की आखिरी खिल्ली है मेरी चिनौटी में 
जिससे मैं पूष की रात पूरी तरह गुजार सकूँगा 

जंगली सियार हुआँ-हुआँ कर रहे हैं खेतों के इर्द-गिर्द
लगभग चीख और चुप्पियों से भरी हुई है खेतों की दुनिया
झींगुरों के संगीत
मेरी आत्मा की मिट्टी को छेदते जा रहे हैं 

जंगली हाथियों के झुंड 
बर्बाद कर रहे हैं गन्ने की लहराती हुई खेतियाँ 
आचानक इन्हीं में से कोई हाथी 
छुट्टे सांड की तरह अकेला आएगा 
मुझे मार देगा और आप सुबह
खेतों में पड़ी हुई मेरी लाश को 
दीफू के सिविल अस्पताल में ले जाएँगे पोस्टमार्टम करने!

सुबह अखबार में छपेगा
कि गेहूँ अगोरते वक्त बुरी तरह से मारा गया मोहन  
और मोहन के साथी मारे गए 

यह कहानी,यह कविता नहीं है समझदार लोगों!
सीमा पर जवानों की तरह शहीद हुए
एक नहीं लाखों,करोड़ों किसानों की वीरगाथा है यह 
जिसकी मरसिए मैं नहीं लिख सकूँगा कभी भी!

 संपर्क - खेरनी कछारी गांव
जिला -कार्बीआंगलांग असोम
मोबा0-09365909065


मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

चिड़ियों का संकट - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा



 इस नवोदित कवि की कविता का कच्चापन एवं कसैलापन आगे मीठे संभावनाओं से भरा है ऐसा मुझे महसूस हो रहा है। तो पढ़ते हैं आज मुकेश कुमार ऋषि वर्मा की कविता - प्रकाशन - आजादी को खोना ना, संघर्ष पथ (काव्य संग्रह) रूचियाँ - लेखन, अभिनय, पत्रकारिता, पेंटिंग आदि सदस्य जिला अध्यक्ष - मीडिया फोरम ऑफ इंडिया, मीडिया पार्टनर - एकलव्य फिल्मस एण्ड टेलीविजन, मुंबई।

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा की कविता

चिड़िया
बिजली के नंगे तारों से
चिड़िया धोखा खा जाती
गलती से चोंच भिड़ा जाती |
करंट खाकर मर जाती ||

कौन उसे यह बात बताये
नंगे तारों पर न चोंच लड़ाये
पर वो बेचारी समझ न पाये |
चिड़िया जाये तो कहाँ जाये ||

पेड़ बचे अब बस थोड़े से
उड़ान की थकान से थककर
बिजली के तारों पर विश्राम करे |
अपनों से प्यार भरी दो बातें करे ||

झट करंट दोनों में दौड़ पड़े
बड़ी दु:खद घटना घट जाती
वैज्ञानिकजी कोई अविष्कार करो! 
नन्हीं-नन्हीं चिड़ियों का संकट हरो ||

संपर्क -
मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 
ग्राम रिहावली, डाक तारौली गूजर
फतेहाबाद, आगरा, 283111
मो. 9627912535, 9927809853

ईमेल - mukesh123idea@gmail.com


सोमवार, 16 मार्च 2020

दुःख की गली में रौशनी : राजेंद्र ओझा


  लघुकथा

         करीब पांच मिनट  साथ रहे हम। एक नाटक देख कर मैं लौट रहा था घर की तरफ। सदर बाजार के अंबादेवी मंदिर तिराहे पर एक बुजुर्ग ने मुझे रोककर आगे छोडने का अनुरोध किया । पैर रखने के लिए  फुट स्टेप खोलता देख उन्होंने कहा - बेटा, एक तरफ  ही बैठ पाऊँगा मैं। 
        ठीक है, कह, बैठने का कहा मैंने।
         उन्होंने मुझे टिल्लू चौक तक छोडने का निवेदन किया।
   उन्होंने मुझसे पूछा- आप कहाँ जा रहे हैं। 
    मैंने कहा - कुशालपुर। 
     तब तो  बेटा मुझे पंकज उद्यान के पास छोड देना- बुजुर्ग ने कहा।
   अंबा देवी मंदिर से पंकज उद्यान तक के इस लगभग पांच मिनट के रास्ते में दुःख शब्द रूप  से लेकर आंसू रूप तक बहते रहा।इस भीगने में सूखना कहीं नहीं था।
    बुजुर्ग का नाम तो मुझे  याद नहीं  लेकिन सरनेम तो 'बजाज' ही बताया था उन्होंने । जहाँ छोडा था उसके पास ही बंधवापारा में वे रहते थे।
   घर तक छोड देता हूँ- मैंने कहा।
  नहीं बेटा, यहाँ एक बहन जी के घर से टिफ़िन लूंगा और फिर घर पैदल ही चले जाऊंगा।
   करीब 70-75 वर्ष के बजाज जी अपने भाई के यहाँ गये थे और लौटते में  गलती से अंबादेवी मंदिर के पास उतर गये।
   उनके परिवार के बाबत  जानने की चाह में मैंने उनसे जब बात की तो दुःख, जो अभी तक बंधा था बहने लगा। यह बहना एक बाढ की तरह था, जिसमें सुख की इच्छा की कई-कई एकड जमीन डूब गयी थी।
   बडा बेटा इन्कम टैक्स का वकील था। ठीक चलता था उसका काम। अचानक ही उसकी तबियत खराब हो गई और डाक्टर पहुंचता उसके पहले ही वह चल बसा। बहु साथ देने को तैयार नहीं थी। खाना भी नहीं बनाती थी। रात दो - तीन बजे तक फोन से बात करती रहती थी किसी से। पूछता था तो गुस्सा हो जाती थी। बोलती, तेरे को क्या है इससे। सोये रह चुपचाप।  इस बूढ़े पर हाथ भी उठा दिया उसने तो। हार कर उसको जाने का बोल दिया। चली गई वो।   छोटा बेटा लाखे नगर की एक दूकान मे काम करता है। प्राइवेट।  थक जाता है बेचारा, उसको कैसे बोलूं खाना बनाने का।   गरीब  को कौन पूछता है बेटा। तुमने यहाँ तक छोड दिया। धन्यवाद बेटा, भगवान भला करे तुम्हारा। वे रो रहे थे। जीवन में हार से उपजा रोना था यह। निराशा और दुर्बलता का रोना था यह। कहीं तो रूकना चाहिए यह रोना।
      रोते रोते ही वे गली मे आगे बढ गये।  गली में अंधेरा था। मैंने हेड लाइट से गली को रौशन किया। सम्हल कर चलते बजाज जी इस उजाले मे कुछ तेज चलने लगे।
    ऐसी ही किसी रौशनी को वहीं ठहर जाना चाहिए। 


संपर्क -
राजेंद्र ओझा 
बंजारी मंदिर के पास 
पहाड़ी तालाब के सामने 
कुशालपुर 
रायपुर (छत्तीसगढ)
492001
मो.नं. 09575467733
         08770391717

  

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

बृजेश कुमार अग्निहोत्री के दोहे




                           बृजेश कुमार अग्निहोत्री 

लेखन-हाइकु, क्षणिका, दोहा, कुण्डलियाँ, मुक्तक, गीतकविता
संस्मरण, कहानियाँसामयिक लेख इत्यादि l

प्रकाशन -काव्य रंगोली, मधुराक्षर, अन्वेषी, शव्दगंगा, विन्दु में सिंधु, फतेहपुर जनपद के हाइकुकार, शव्द-शव्द क्षणबोध, पथविकास आदिक पत्रिकाओं एवं संकलनों सहित अनेक राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में
उत्तराखंड सरकार द्वारा आपदा के समय अतुल्य सेवा हेतु सम्मानित 
काव्य रंगोली द्वारा साहित्य के क्षेत्र में काव्य भूषण सम्मान 
सम्प्रति-सामान्य आरक्षित अभियंता बल (ग्रेफ) में सेवारत l



बृजेश कुमार अग्निहोत्री के दोहे 

कौवे मोती चुग रहेहंस फिरें बेचैन
मानसरोवर बैठकरबगुले बोलें बैन ll

गीदड़ भभकी दे रहे, पहन शेर की खाल
जंगल में मंगल हुआ, खूब उड़ाओ माल ll 

गोदामों में सड़ रहामेहनत का आनाज
बाट जोहता मौत की, ग्रामदेवता आज ll

धरती तपती तवे सी, जड़ चेतन बेचैन l
दया याचना कर थके, पवन तरेरे नैन ll

तपते तलवे भागते, जेठ मास लख छाँव
पथ-पथरीला भवन मन, अतिशय करें दुराव ll

बैठ कलम लिखती रही, रोज नई तारीख
संविधान बेदम हुआ, माँग न्याय की भीख ll

नरम-गरम बिस्तर पढ़ें, रात पूस की सर्द l
उजियारा लिखता रहा, अँधियारे का दर्द ll

रोम-रोम चन्दन सना, मुख जपता हरि जाप l
मन कपटी व्यभिचार रत, अनुदिन करता पाप ll

क्यों विकास के वृक्ष को, बढ़ा रहा है खींच
पात भिगोना छोड़कर, पहले जड़ को सींच ll

शुभचिंतक ओ कृषक के, वोट माँगना बाद l
पहले उन्हें बताइए, मँहगी कैसे खाद ll

लागत मँहगी फसल पर, सस्ता बिके अनाज l
हलधर फिर कैसे भरे, मूलकर्ज पर ब्याज ll

बकरी माँ के भेड़ियेचाट रहे हैं पाँव l
सत्तासुख रख ध्यान में खेल रहे हैं दाँव ll


संपर्क सूत्र- 
खरौली, पोस्ट-मिराई,  
जनपद-फतेहपुर, पिन-212665
मोबाईल न. 07905411920  

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

सुशांत सुप्रिय की कविताएँ

    श्री सुशांत सुप्रिय हिन्दीपंजाबी और अंग्रेज़ी में लिखते हैं. हत्यारे हे राम दलदल इनके कुछ कथा संग्रह हैंअयोध्या से गुजरात तक और इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं इनके काव्य संकलन. इनकी कई कहानियाँ और कविताएँ विभिन्न भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं. अनेक कहानियाँ  कई राज्यों के स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैंकविताएँ पूणे विश्व-विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हैं और विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोधार्थी इनकी कहानियों पर शोध कर रहे हैं. भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा इनकी रचनाएँ पुरस्कृत की गई हैं. कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई )में लगातार दो वर्ष प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किये गए.    
    
 1. जागी नींद में

धरती पर बहुत कुछ ऐसा है
जो नहीं देख पाता हूँ मैं :

बाल मज़दूरों का
छिन गया बचपन

ऋतु के यौवन के समय
उखाड़ फेंके गए पौधे की व्यथा

घरेलू कामकाज में दिन-रात पिसती
पत्नी की थकान

रक्त में टहल रही
चापलूसी और अवसरवादिता ...

इसी तरह खुली आँखों से सो रहे
और लोग भी तो होंगे
जो नहीं देख पाते होंगे
हत्यारों को और
मासूमियत से कहते होंगे --
कितनी सुख-शांति है चारो ओर
कहाँ हैं लाशें यहाँ ? 


2. प्यार
यह ऐसे ही होता है
मैंने कहा --
अकेले आना
किंतु वह अपने साथ
पूरा वसंत ले आई
मैंने कहा --
चुपचाप आना
किंतु वह अपने साथ
पक्षियों का संगीत ले आई
मैंने कहा --
रात में आना
किंतु वह अपने साथ
चुंबनों का उजाला ले आई
मैंने कहा --
कुछ मत कहना
किंतु वह अपनी चुप्पी में भी
चाहत के गूँजते गीत ले आई

उसकी आँखों में
कोमल स्पर्श अटके हुए थे
उसके रोम-रोम में
मृदुल निगाहें उगी हुई थीं
उसकी देह में
महासागर हिलोरें ले रहा था
सोने के समय भी
उसका अंग-अंग जगा हुआ था ...

3. लापता का हुलिया 

 
उसका रंग ख़ुशनुमा था
क़द ईश्वर का-सा था
चेहरा मशाल की
रोशनी-सा था
वह ऊपर से कठोर
किंतु भीतर से मुलायम था
वैसे हमेशा
इंसानियत पर क़ायम था
अकसर वह बेबाक़ था
कभी-कभी वह
घिर गए जानवर-सा
ख़तरनाक था
उसे नहीं स्वीकार थी
तुच्छताओं की ग़ुलामी
उसे नहीं देनी थी
निकृष्टताओं को सलामी

सम्भावना की पीठ पर
सवार हो कर
वह अपनी ही खोज में
निकला था
और ग़ायब हो गया

पुराने लोग बताते हैं कि
देखने पर लगता था वह
गाँधीजी के सपनों का भारत

 

संपर्क - सुशांत सुप्रिय
ए-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी , वैभव खंड , इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014( उ. प्र . )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

गुरुवार, 23 जनवरी 2020

नारी भावों की सूक्ष्म विवेचना है पूनम शुक्ला जी की कविताएँ




समीक्षा - कविता संग्रह ' उन्हीं में पलता रहा प्रेम '


    पूनम शुक्ला की पृष्ठभूमि विज्ञान की रही है, इसके साथ सूचना प्रौद्योगिकी की विशद जानकारी भी है, मगर मूलतः आप रचनाधर्मी हैं, कवयित्री हैं. अब तक आपके दो कविता संग्रह 'सूरज के बीज' 'उन्हीं में पलता रहा प्रेम' प्रकाशित हुए हैं. 'उन्हीं में पलता रहा प्रेम' संग्रह की रचनाएँ मैंने पढ़ी हैं. इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ महिलाओं के भावों-अनुभावों व संचारी भावों के इर्द-गिर्द घूमती हैं. नारी का शोषण जन्म से मृत्यु तक किसी न किसी रूप में होता ही रहता है.  हमारा समाज इतना ही निर्दयी है कि भले ही संसार की उत्पत्ति में नारी का सर्वाधिक योगदान हो, मगर अहमियत उसकी ही होती है. 'खबर' रचना में बेटे और बेटी के जन्म की मनोदशा को कितनी ख़ूबी के साथ निरूपित किया है-
 
रात के नौ बजे / बहु को ले गए अस्पताल / रात तीन बजे / बेटे का जन्म हुआ /
रात में ही / तीन बजकर पाँच मिनट पर / गाँव से यहाँ आ गया फोन / बेटा हुआ है.
दो साल पहले / बेटी हुई थी / बीस दिनों बाद / किसी और के मुँह से / यह खबर सुनी थी....
​जीव विज्ञान में बी.एससी. हैं आप. 'शरीर धरने का दंड' कविता में जीव विज्ञान के माध्यम से यह बात सिद्ध की है कि-
​​शारीरिक संरचना के अनुसार / हम ज्यादा संतुलित थीं और अग्रणी /
ऐसा लिखा था / जीव विज्ञान की पुस्तक में
​आगे इसी रचना में लिखती हैं-
​​यह शरीर धरने का दंड ही तो है / कि घर में रखते हुए सबका खयाल /
हम पा जाती हैं लड़कों से अधिक अंक / फिर भी असमय ही /
रोक दी जाती है हमारी पढ़ाई / कि कहीं हम सीख न जाएँ गुर / खुद भी खयाल रखने का.
     नारी की प्रगति में पुरुष ही बंधक है. वो नहीं चाहता कि नारी उस पर शासन करे. अतः बीच में ही काट-छाँट करता रहता है. कदम-कदम पर स्पीड-ब्रेकर खड़े करता रहता है.
'नहीं लाऊँगी बोनसाई' रचना में इस बात को अभिव्यक्ति दी गई है-
​​प्रकृति ने तो नवीं कक्षा में ही / सौंप दी थी पाँच फुट छह इंच की लंबाई/
फिर भी रास नहीं आई / मेरे इर्द-गिर्द के लोगों को मेरी ऊँचाई /
छाँट दिया गया हर नई सोच की शाखा को / जो प्राकृतिक रूप से / बढ़ने की बाट जोह रह थी.
​   और अंत में कवयित्री बोनसाई न लाने की कसम खा ही लेती है-
​​नहीं, अब नहीं लाऊँगी बोनसाई का एक भी पौधा /
समझ आ गई है अब मुझको उसकी पीड़ा....
​   पुरुषों को महिलाओं का न तो ज्यादा पढ़ना और न ज्यादा बढ़ना यहाँ तक कि ठीकठाक वस्त्र पहनना भी रास नहीं आता. स्त्री खुलकर न तो हँस सकती है और न ही रो सकती है. 'छुपकर' कविता में इस बात को व्यक्त करती हैं कवयित्री-
वे हँसती हैं / किवाड़ ओटकर / सांकल लगाकर / पिछवाड़े अहाते में जाकर /
क्योंकि सामने हँसना / यानी किसी विवाद में फँसना / आ जाना किसी शक के दायरे में..
​  नारी कहने को तो गृहस्वामिनी है मगर सिवाय खाना बनाने और बर्तन माँजने के उसका घर में और कुछ काम नहीं है.
'मैं गृहस्थन गृहविहीन'  कविता में कवयित्री कहती हैं-
​​मैं गृहस्थ / घर बनाने वाली / एक स्त्री / गृहविहीन हो गई हूँ
​बटियाँ बेटों से न केवल पढ़ाई-लिखाई में, सोच में बल्कि समझदारी में भी बहुत आगे होती हैं. 'चार स्त्रियां' कविता में इस बात को शब्द रूप दिया है-
    तीनों स्त्रियाँ एक साथ बोल उठीं / बिटिया बहुत समझदार है /
अच्छा हुए उसे यह बात अभी से समझ आ गई / चौथी खड़ी-खड़ी सोचती रह गई /
स्त्रियाँ बनने से पहले ही / बेटियाँ इतनी समझदार क्यों होती हैं
​इस संग्रह की शीर्षक कविता 'उन्हीं में पलता रहा प्रेम' उत्कृष्ट रचना है. इस कविता की शब्द बुनावट बेजोड़ है-
​​अपशब्दों ने कानों को सुना / गीतों ने सुना होठों को / हस्तलिपि को हाथों ने पढ़ा /
हृदय ने पढ़ ली वेदना / आँखों ने आँसुओं को पढ़ा / चूड़ियों ने कलाईयों को /
देर रात तक तैरती रहीं प्रतिलिपियाँ / अंततः हृदयलिपि पहचान ली गई...
x – x – x – x
सूरज दूर से झाँकता रहा / बोए गए बीज नफ़रत के / उन्हीं में पलता रहा प्रेम
महिलाओं के अतिरिक्त कुछ रचनाएँ इतर विषयों पर भी लिखी गई हैं. 'नापसंद' कविता के माध्यम से हरेक से नफ़रत करने वालों को एक संदेश दिया गया है.
नफ़रत करने वालों / नफ़रत करने से पहले / प्रकृति के इस नियम पर /
एक नज़र जरूर डाल लेना / जिस भी विषयवस्तु, व्यक्ति से /
तुम बेशुमार नफ़रत करते हो / कहीं तुम इतना न हावी हो जाए /
कि एक दिन वह तुम्हारी पहचान बन जाए.
'चुप्पी' कविता के माध्यम से चुप्पी के मनोभाव से बारीकी से व्यक्त किया गया है-
​​शिकारी शिकार से पहले हो जाते हैं चुप /
बाबा रहते हैं अपनी रोशनी की उजास पर चुप
​कवयित्री ताजमहल को प्रेम का प्रतीक नहीं मानती. 'मत कहो इसे प्रेम का प्रतीक' कविता में वे कहती हैं-
​​मत कहो इसे प्रेम का प्रतीक / यह बस मकबरा है
जिसमें मरे हुए लोगों की बू आती है.
​नारी-विमर्श की तो यह अनुपम कृति है ही, अन्य विषयों को भी गंभीरता से अभिव्यक्त किया गया है.
      जहाँ तक छंद विधा का प्रश्न है इस संग्रह की लगभग सभी रचनाएँ अछांदस हैं लेकिन रचना प्रकिया बहुत अच्छी है. भाषा बड़ी ही प्रांजल और परिमार्जित है. अकादमिक लोगों की भाषा तो है ही, लेकिन आम पाठकों के लिए भी दुरूह नहीं है. वर्तनी की शायद ही कोई अशुद्धि हो पूरी किताब में.
      मैं कवयित्री पूनम शुक्ला को इस अनुपम काव्य संग्रह 'उन्हीं में पलता रहा प्रेम' के लिए बधाई देता हूँ. अकादमिक विद्वजनों / अध्येताओं के लिए यह बहुत अच्छी कृति है. हिंदी में अब इस तरह की गंभीर रचनाएँ कम ही आ रही हैं. मैं कामना करता हूँ कि कवयित्री इस दिशा में आगे बढ़ती रहेंगी और नई कृति के साथ उपस्थित होंगी.
शुभकामनाओं सहित,
डॉ. माणिक मृगेश

 

 कविता संग्रह - उन्हीं मे पलता रहा प्रेम
कवयित्री - पूनम शुक्ला
प्रकाशन - आर्य प्रकाशन मंडल 

किताबघर प्रकाशन का उपक्रम 



बुधवार, 25 दिसंबर 2019

इन्हीं तारीखों समय और दिनों में - आरसी चौहान


वह कवियों की तरह नहीं लिखते कविताएं
खेतों में बोते हैं अपनी मेहनत के बीज
उनके अंखुआने से
नाचती है धरती अपनी धुरी पर
और जीवन कुनमुनाता है मधुर मंद


आज उनके सपनों में
घुस आया है कोई
उनके जहन में खड़ा किया गया
तिलिस्म का बाजार
चुगाये गये शब्दों के दाने
पहनाई गई पुरस्कारों की माला
घुमाया गया राजपथ पर
एक भ्रम का जाल
मढा गया उनकी आंखों में
कि तुम्हारी आय पांच साल में
हम दोगुनी कर देंगे


तब से उसकी नींद से
सपने गायब हैं
अब कभी नहीं देखता सपने में
हरियाई फसलों को
फसलों पर अठखेलियां करती मधुमक्खियाें
और तितलियों को 


उसने उतार कर रख दिए हैं हल और जुआठ
किसी संग्रहकर्ता द्वारा रख दिया जाएगा
संग्रहालय में इन्हें
और किसी पत्थर या प्लेट पर
लिख दिया जाएगा दिन,समय और तारीख


कि ये खेती करने के औजार हैं फलां सदी के
जिनके नायक सपना-सपना
बुद्बुदाते हुए विलुप्त हो गये
इन्हीं तारीख़ों, समय और दिनों में |



संपर्क  - आरसी चौहान (जिला समन्वयक - सामु0 सहभागिता )
        जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी आजमगढ़ उत्तर प्रदेश
                276001
        मोबाइल -7054183354
        ईमेल- puravaipatrika@gmail.com

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं


  समकालीन रचनाकारों में प्रमुख स्थान रखने वाले शिरोमणि महतो  की कविताएं सरल शब्दों में बड़ा वितान रचती हैं कवि अपने लोक से कितना जुड़ा है । यह तो इन कविताओं को पढने के बाद ही जान पाएंगे।
युवा कवि  शिरोमणि महतो की कविताएं-
1-दुःख

हरे-भरे पेड़ पर ही अक्सर होता है-बज्रपात
पूर्णिमा के पूरे चांद को ही लगता है-ग्रहण
ठीक बांध जब भर जाता है छपाछप
अगाध पानी में मछलियाँ तैरती है-निर्बात
तभी टूट जाती है-मेढ़
खेतों में लहलहा रही होती है फसलें
तभी आ जाती है-बाढ़
और दहा जाती है फसलों को

और,
जब होना था राज्याभिशेक
तभी मिला-बनवास !

जीवन हुलस रहा होता है सुख से
तभी आ टूटता है-दुःखों का पहाड़
सुख की पीठ पर सवार होकर चलता है-दुःख !

2-बचपन के दिन


पेड़ों के पत्तों से
चुअता पानी ठोप-ठोप
और उसके नीचे बैठे
हम खेलते रहते गोंटी
भींग जाता हमारा माथा
डर लगता-कहीं सर्दी न हो जाय
फिर भी हम टस-से मस नहीं होते

आम के फलों से
फूटती सिन्दूर की लाली
और कड़ी धूप में
हम फेंक रहे होते टाल्हा
आम झाड़ने के लिए
पसीने से तर-बतर होता हमारा षरीर

जब झाड़ लेते कोई पका हुआ आम
और चाव से चखते तो ऐसा लगता
मानो हमने चख लिया हो
धरती के भीतर का स्वाद और मिठास

आज बाजार से तौलकर नहीं ला सकते
वह स्वाद और मिठास !

जब कभी हम लौटते
बचपन के दिनों की ओर
छोटे होने लगते हमारे पांव
और हमारा कद
हम जाके उलझ जाते
पुटुस की झड़ियों से
जहाँ हमने लुक-छिपकर किया था
पहली बार अनगढ़ प्यार....!



पता  : नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144   
मोबाईल  : 9931552982

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

चन्द्र की कविता-घाठी


  

  आसोम के युवा कवि चंद्र की कविताएं बिल्कुल खेत खलिहान से होते हुए राजमार्गों तक अपनी यात्रा पूरी करती हैं इनकी अधिकांश कविताओं में लोक जीवन के रंग बखूबी देखे जा सकते हैं। इनकी एक लंबी कविता घाठी के माध्यम से परदेश जाने पर मां के अंदर हो रहे उथल-पुथल एवं संगी-साथियों के छूटने की कसक मन में समुद्री लहरों - सा तरंगित होती रहती है जिसमें गांव-वार के सारे पशु-पक्षी, पेड़-पौधे उमड़ते-घूमड़ते मन के कैनवास पर अलौकिक दृश्य उपस्थित करते हैं । यह कविता की ताकत ही है कि शुरू से अंत तक कविता लंबी होने के बावजूद भी पाठक को पढ़ने के लिए बाध्य करती है । आज पढ़ते हैं युवा कवि चंद्र की लंबी कविता घाठी -

घाठी
यहाँ के लोग जब जाते हैं दूर परदेश, कमाने-धमाने 
तब बनती है घाठी !

घाठी, गेहूँ के पिसान की 
जिसमें भरी जाती हैं
खाँटी चने की जाँत में पिसी हुई सतुआ

जिसमें भरे जाते हैं
नमक, मिर्च और आम के अचार के मसाले

उसके बाद सरसों के तेल में
छानी जाती हैं नन्ही -नन्ही घाठी !

घाठी ,जिसे छानने- बघारने के लिए 
रात भर जगतीं हैं माँ और घर रात से भिनसार तक 
गुलज़ार रहता है

घाठी, जिसे माँ ,सुबह-सुबह मेरे जाने से पहले 
छानती हैं करीअई कराही में कराही - की - कराही 
और नरम-गरम छानकर थरिया भर देती हैं मुझे 
स्नेह से यह कहते हुए कि बेटा !
रेलगाड़ी में जाते हुए बटोही को भूख ख़ूब लगती है
और ख़रीद कर इधर-उधर खाने में पैसा भी तो लगता है, बाबू !
इसलिए, प्राण-मन-भर ये ही खा लो, बाबू !

मैंने बनाई है, बेटा ! अपने हाथों से
लो, और दो ले लो
क्या पता कब खाओगे मेरे हाथ की 
बनी-बनाई घाठी !

माँ लाख सिफ़ारिश करती हैं 
कि ले , और ले ,
खा ले बेटा !

पर मुझसे खाया नहीं जाता!

तब माँ चुप्पे-चुप्पे 
मेरे परदेसी बैग में
भर देती हैं घाठी 
कई जन्म के खाने के बराबर जैसे 
कई जने के खाने के बराबर जैसे ...

तब मैं ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ 
इससे पहले कि
मेरी माँ मेरी बहन मेरे भाई मेरे पिताजी मेरी लुगाई
सब के सब कुछ दूरी पर पहुँचाने जाते हैं 
कपली नदी के सँग-सँग 
और गाय बैलों की 
चिरई-चुरूँगों की घोर उदासी मेरी आँखों में
किसी नुकीली खूँटी की तरह धँस जाती हैं !

मैं तब जल्दी में होता हूँ 
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ 
इससे पहले कि 
हाथ जोड़ अपने बाबा का गोड़ लाग लूँ

इससे पहले कि
आजी माई बाबूजी की अमर चरनिया को छू लूँ

और छोटे भाइयों को कोमल अभिलाषा दिला कर 
उनके हाथों में दस-बीस थम्हा दूँ 
कि मैं जरूर आऊँगा मेरे भाई
तुम्हारी पसन्दीदा कोई चीज़ लेकर...

मैं तब जल्दी में होता हूँ 
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ 
लंका स्टेशन की तरफ जाने वाली ऑटो !

इससे पहले कि
अपनी दुलारी बहन को
यह आशा दिला दूँ 
कि मैं जल्द ही लौट आऊँगा
अगले रक्षाबन्धन तक ज़रूर आ जाऊँगा, मेरी बहन !

तू सोन चिरई है री !
चिन्ता मत कर ।

मैं तब जल्दी में होता हूँ 
मैं तब ऑटो पकड़ने वाला ही होता हूँ 
इससे पहले कि 
अपनी प्यारी दुल्हनिया से 
एक मीठी बतिया, बतिया तो लूँ 
और धीरज दिला तो दूँ 
कि मैं जल्द ही लौट आऊँगा
आऊँगा तो तुम्हारे लिए ज़रूर 
एक सुन्दर चुनरी लेकर आऊँगा
यहाँ की तरह वहाँ टिकुली-सेनुर ,
छाएगल , और शौक-सिंगार का सामान
मिलेगा कि नहीं
पर भरोसा दिलाता हूँ तुम्हें प्रिय !
मैं जल्द ही लौट आऊँगा अगले करवाचौथ तक !

आऊँगा तो ज़रूर तुम्हारे लिए कुछ लाऊँगा
ख़ाली हाथ थोड़े ही आऊँगा
और हाँ , कलकतवा जाऊँगा 
तो ज़रूर अपनी एक दो कविताएँ 
उन मज़दूरों को भी सुना कर ही आऊँगा !

मैं तब जल्दी में होता हूँ 
ऑटो पकड़ ही लेता हूँ

कुछ देर बाद लंका स्टेशन पहुँच ही जाता हूँ 
तुरन्त टिकट भी कटा लेता हूँ

कुछ देर स्टेशन पर 
दूर परदेश जाने वाले यात्रियों का चेहरा
एक बच्चे की तरह पढ़ता हूँ ...
कुछ सोचता हूँ ...

तब तक देखता हूँ कि पूरब की तरफ से 
सीटी बजाती हुई ट्रेन, धुआँ उड़ाती हुई ट्रेन
आ रही है झक झक झक झक ....

तुरन्त कन्धे पर टाँगता हूँ बैग
बैठ जाता हूँ रेल में खिड़कियों के पास
देखता हूँ दूर, दूर पेड़-पौधे,

पशु-पक्षी ,नदी-नाले, जल-जँगल-ज़मीन 
धानों की हरी-भरी पथार
पथारों में खटते हुए किसान-बनिहार..

इसी तरह उदास-उदास बीत जाता है दिन 
इसी तरह उदास-उदास बीत जाती है रात......

अचानक भूख लगने लगती है कस के
तब याद आती है घाठी की, बस, घाठी की !!

घाठी , चलती हुई रेल में चुपचाप 
अचार के सँग खाने से खाया नहीं जाता !

तब माई की याद आती है
बहन की याद आती है
वह खाट पर लेटे हुए बीमार बाबा याद आने लगते हैं
मस्तक पर पगड़ी बाँधे हुए
खेती-बारी में घूमते हुए पिताजी की 
दिव्य-दृश्य चलचित्र की तरह 
याद आने लगते हैं
आँगन-दुआर में रोज़ सँध्या को हुक्का पीते हुए 
आजी की याद आने लगती है 
उन मासूम-मासूम भाइयों की याद आने लगती है 
शिवफल-वृक्ष के शीतल छईंयाँ बँधाए हुये खूँटियों में 
गईया बछिया बरधा याद आने लगते हैं
याद आने लगते हैं गाँव-गिराँव के मज़दूर-किसान बन्धु !

तमाम खेत याद आने लगते हैं 
खेत की मेड़ें याद आने लगती हैं

और जब लुगाई की याद आने लगती हैं
तब आँखों से कल-कल-निनाद करती हुई 
धारदार नदी बहने लगती है !
...आत्मा और काया में प्रेम ,
 बिरह और माया इतने कचोटने लगते हैं..कि 
अपने गाँव-जवार ,नदी-नाले ,वन-जँगल ,पर्वत-अँचल
इतने रच बस जाते हैं तन-मन में
कि मन करता है कि अगले स्टेशन पर 
तुरन्त उतरकर लंका की तरफ़फ जाने वाली ट्रेन पकड़ लें !

पकड़ ही लें !

संपर्क - खेरनी कछारी गांव
जिला -कार्बीआंगलांग असोम
मोबा0-09365909065